इन सभी नेताओं का वीर सावरकर जी के प्रति बहुत श्रद्धा का भाव था । वीर सावरकर जी जेलों में रहते हुए भी जिस प्रकार भारतीय धर्म , संस्कृति और इतिहास के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रहे थे , उसका भारत के ये सभी नेता हृदय से सम्मान करते थे ।
वीर सावरकर जी ने कहा था :–
आसिंधु सिंधु पर्यंता यस्य भारत भूमिका ।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव सा वै हिंदू रीति स्मृता ।।
अर्थात जो इस पवित्र भारत भूमि को अपनी पुण्य भूमि और पितृभूमि मानता है , वह स्वाभाविक रूप से हिंदू है । मुसलमान और ईसाई इस भारत भूमि को अपनी भूमि तो मानते थे , परंतु इसे अपनी पुण्यभूमि और पितृभूमि नहीं मानते थे , उनकी धार्मिक निष्ठा किसी और भूमि के प्रति जुड़ी हुई थी । पितृभूमि भी वह अपने – अपने मजहबों के मूल देश के लोगों की भूमि को ही मानते थे । इसलिए यह परिभाषा ईसाई और मुसलमानों पर लागू नहीं होती थी । फिर भी सावरकर जी ने इस परिभाषा में यह उदारता दिखाई थी कि यदि कोई इस बात की गारंटी देता है कि वह पवित्र भूमि भारत को ही अपनी पुण्य भूमि व पितृभूमि मानेगा तो उसे भी हिंदू माना जा सकता है ।
सावरकर जी का यह महान विचार राष्ट्रीय सेवक संघ , आर्य समाज व हिंदू महासभा तीनों का ही प्रेरक वाक्य बना । इसका अभिप्राय था कि ये तीनों संगठन अलग अलग न होकर राष्ट्र के महान कार्य के लिए एकमत होकर आगे बढ़ने पर सहमत थे । आर्य समाज और हिंदू महासभा ने आरएसएस को इसीलिए पैदा किया था कि यह भारत की संस्कृति , धर्म और इतिहास की संरक्षा व सुरक्षा के लिए महान कार्य करेगा।
सबने आगे बढ़ने का निर्णय लिया
सावरकर जी के इसी विचार को अपनाकर और उस पर अपनी सहमति और स्वीकृति की मोहर लगाकर आर्य समाजी , सनातनी , जैन , बौद्ध व सिख आदि धर्म विचारों को मानने वाले लोगों ने एक दिशा में आगे बढ़ना व सोचना आरंभ किया । इस एकता के भाव ने ऋग्वेद के ‘ संगठन सूक्त ‘ को धरती पर लाकर साकार कर दिखा दिया । इन सभी ने मिलकर इस्लाम और ईसाइयों की ओर से भारत में हिंदू समाज के प्रति अस्पृश्यता का जो भाव अपना रखा था , उसको मिटाने और हिंदुओं का सैनिकीकरण करने की दिशा में ठोस कार्य किया । सैनिकीकरण का अभिप्राय प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति व धर्म का रक्षक बनाने की शिक्षा और प्रेरणा देना था । इसके अतिरिक्त हिंदू समाज में भी जिस प्रकार ऊंच-नीच , भेदभाव और छुआछूत जैसी बीमारियां घर कर गई थीं , उन्हें दूर करने में भी इन तीनों संगठनों ने अपने – अपने क्षेत्र में महान कार्य किया और हिंदू समाज को आधुनिकता के साथ जोड़ने में सफलता प्राप्त की । जिसका परिणाम यह निकला कि देश स्वतंत्र हुआ ।
आर्य समाज ने महाराणा प्रताप , शिवाजी , वीर हकीकत राय , बंदा वीर बैरागी, छत्रसाल आदि के विलुप्त इतिहास को ढूंढ – ढूंढकर उसे लोकगीतों के माध्यम से समाज में लोगों के सामने इस प्रकार प्रस्तुत किया कि लोगों के हृदय झंकृत हो उठे और देश व समाज की रक्षा के लिए देशभक्तों के दल के दल मैदान में उतर आए । यही कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने भी किया । उन्होंने भी विचार गोष्ठियों का आयोजन किया और राणा प्रताप , शिवाजी आदि को अपना आदर्श बनाकर उनके बारे में युवाओं को बताना आरंभ किया । वीर सावरकर जी के द्वारा लिखित पुस्तक ‘ हिंदुत्व ‘ को पढ़कर स्वयंसेवक जब लोगों को सुनाते थे तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। जिसका परिणाम यह होता था कि उन सबके भीतर देश को आजाद कराने की भावना जागृत होती थी ।
सावरकर जी के भाई बाबाराव सावरकर ने अपने ‘ युवा संघ ‘ के 8000 सदस्यों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में यह सोचकर मिला दिया था कि हम सब मिलकर देश का कार्य करें । उसी समय एक संत पाँचलेगाँवकर भी हिंदू धर्म के लिए बड़ा कार्य कर रहे थे । उनका अपना संगठन ‘ मुक्तेश्वर दल ‘ के नाम से जाना जाता था । उन्होंने भी अपने उस दल के 5000 लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिला दिया था । संत महोदय ने ईसाई बने हिंदुओं को पुनः हिंदू बनाकर उन्हें अपने दल के सदस्यों में सम्मिलित कर लिया था। 1937 में जब सावरकर जी जेल से बाहर आए तो वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने । अगले वर्ष हिंदू महासभा के नागपुर अधिवेशन में उन्हें फिर से हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। नागपुर अधिवेशन की सारी व्यवस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ही संभाली थी । उस समय इसकी सदस्य संख्या बढ़कर 700000 हो गई थी ।
लेकिन देखने वाली बात यह है कि इनकी इतनी बड़ी सदस्य संख्या को बढ़ाने में हिंदू महासभा और आर्य समाज ने बढ़-चढ़कर योगदान किया था । इसके अतिरिक्त अन्य ऐसे हिंदूवादी संगठन भी इसमें स्वेच्छा से सम्मिलित होने लगे थे जो हिंदू समाज की एकता के लिए कार्य करना चाहते थे। कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारत की आवाज बनाने का कार्य आर्य समाज ,हिंदू महासभा और अन्य अनेक संगठनों ने किया ।
आज का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
यह दु:ख का विषय है कि आज आरएसएस दंभी , घमंडी और अहंकारी हो गया है । उनको इस ऊंचाई तक पहुंचाने में किन-किन लोगों ने कब-कब अपना सहयोग और योगदान दिया , उस सब को भुलाकर उल्टे यह उन दलों की कब्र खोदने में लगा है । यह भी देखने वाली बात है कि आर्य समाज और हिंदू महासभा की संपत्तियों को अपने कब्जे में लेकर संघ ने इन संगठनों को कमजोर करने का कार्य भी किया है।
निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह कार्य प्रणाली उचित नहीं कहीं जा सकती। उसे अपने खून पसीने से जिस प्रकार आर्य समाज और हिंदू महासभा ने खड़ा किया था, वह यह सोचकर किया था कि जैसे बड़ा होकर कोई पुत्र अपने माता-पिता का ध्यान रखता है वैसे ही आरएसएस बड़ा होकर अपने मातृ संगठनों का ध्यान रखेगा। पर उसने इसके विपरीत आचरण किया है। वह आर्य समाज के विचार , विचारधारा और विचार भूमि तीनों को ही खाने में लग गया है। आर्य समाज ने आरएसएस के साथ समन्वय स्थापित करते हुए ‘आर्य, आर्यभाषा और आर्यावर्त’ को ‘हिंदी- हिंदू – हिंदुस्तान’ के समकक्ष मानकर उसका स्वागत किया। अच्छी बात यह होती कि आर0एस0एस0 अपनी ओर से उदारता और महानता का प्रदर्शन करते हुए कहता कि उसके ‘हिंदी, हिंदू ,हिंदुस्तान’ का अर्थ आर्य समाज के ‘आर्य, आर्यभाषा, आर्यावर्त’ से ही है। वह भारत की वैदिक संस्कृति के प्रति निष्ठा दिखाता और भारत की प्राचीन संस्कृत भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने पर बल देता । उससे यह भी अपेक्षा की जाती थी कि वह हिंदी को आर्य भाषा के रूप में मान्यता दिलाकर काम करना अपना लक्ष्य बनाता। पर आर0एस0एस0 ने व्यवहार में ऐसा कुछ भी नहीं किया। जैसे वोटों के भूखे नेताओं को वोटों की राजनीति के समक्ष कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वैसे ही संघ को बड़ी संख्या में अपने संगठन के सदस्य बनाने की चिंता हुई और उसने लोगों को अपने साथ भीड़ के नाम पर जोड़ना आरंभ किया।
आर्य समाज के प्रति संघ का दृष्टिकोण
विचारधारा के आधार पर आर्य समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल राष्ट्र के नाम पर भ्रमित कर अपने साथ लगाना चाहता है , परंतु यह भी ध्यान रखने लायक बात है कि आर्य समाज की विचारधारा को यह अपनाकर आगे बढ़ना नहीं चाहता । हेडगेवार के बाद ही जिन लोगों का वर्चस्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर हुआ उन्होंने धीरे धीरे आर्य समाज को निगलने का कार्य आरंभ कर दिया । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यही कार्य हिंदू महासभा के साथ भी किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आर्यसमाज के शुद्ध वैज्ञानिक और वैदिक दृष्टिकोण से अपनी सहमति व्यक्त करनी चाहिए। आज के वैज्ञानिक युग में पौराणिक अवैज्ञानिक मान्यताओं का समर्थन करना आरएसएस के मानसिक खोखलेपन को प्रकट करता है।
आर्य समाज के अनेक उत्साही और राष्ट्रभक्त कार्यकर्ता आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जाकर राष्ट्र के नाम पर काम करते देखे जाते हैं। हम भी इसमें कोई बुराई नहीं देखते । राष्ट्र के बिंदु पर हम सबको एक होना चाहिए। पर यह कब तक चलेगा कि आरएसएस आर्य समाज के राष्ट्रवादी स्वरूप का तो समर्थन करे, पर उसके वैज्ञानिक वैदिक चिंतन को पीछे धकेलने का काम करता रहे। उसे अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए कि वह पौराणिक मान्यताओं की जड़ता को आगे लेकर चलना चाहता है या स्वामी दयानंद जी महाराज के शुद्ध वैज्ञानिक वैदिक दृष्टिकोण का समर्थन करता है ?
जब मुसलमान पौराणिक मान्यताओं की बाल की खाल उतारते हैं अर्थात पौराणिक मान्यताओं का उपहास उड़ाते हैं, और जब हमारे पौराणिक भाई उनके सामने निरुत्तर हो जाते हैं तो उस समय उन्हें मुसलमान लोगों का सामना करने के लिए आर्य समाज याद आता है। स्वामी दयानंद जी महाराज का सत्यार्थ प्रकाश याद आता है। आर्य समाज का चिंतन याद आता है। पर जब स्थिति सामान्य होती है तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कई लोग आर्य समाज को ही हिंदू समाज का शत्रु कहते देखे जाते हैं। जब कोई रोगी चिकित्सक को ही यह कहकर धमकाने लगे कि वह उसका अहित कर रहा है और यही कारण है कि वह उसके हाथ की दवाई नहीं लेना चाहता तो समझा जा सकता है कि उस रोगी का हाल क्या होने वाला है? कई बार यह भी चल सकता है कि चिकित्सक को धमका लिया जाए, पर यह कभी नहीं चल सकता कि चिकित्सक के हाथ की दवाई ही न ली जाए।
आर्य समाज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को जिस सीमा तक राष्ट्र के हित में उचित मानता है वहां तक उसका भी समर्थन करता है और आगे की कई बातों पर चुप भी रहना जानता है। हमारी अपेक्षा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी आर्य समाज के प्रति ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। समाज की रुग्णावस्था का उपचार करने के लिए उस आर्य समाज को खुली छूट देनी चाहिए और सनातन का सच्चा सेवक आर्य समाज को घोषित कर उस रोगी का सही उपचार करने देना चाहिए।
स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज के शुद्धि आंदोलन को आगे बढ़ाने की दिशा में आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों मिलकर काम करें। दोनों मिलकर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की नीति पर भी काम करें। दोनों ही एक समन्वयक समिति के माध्यम से परस्पर वार्तालाप करते रहे और उन बिंदुओं को तलाशते खोजते रहें ,जिससे राष्ट्र विरोधी तत्व देश में सक्रिय न हो सकें।
आज आर्य समाज को चिंतन करने की आवश्यकता है । माना कि राष्ट्रवाद के नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समर्थन दिया जा सकता है , परंतु अपनी विचारधारा का क्या होगा ? भारत की मौलिक वैदिक संस्कृति और उसकी विचारधारा का उद्धार करना आर्य समाज का उद्देश्य है , परंतु उसके साधनों में और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साधनों और विचारधारा में मौलिक अंतर भी है । आर्य समाज को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देश ,काल , परिस्थिति के अनुसार आर्य समाज स्वयं ही आरएसएस के साथ न लगे बल्कि आर्य समाज को चाहिए कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी अपने साथ लगाए । उसके लिए मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है । जो अभी आर्य समाज के पास नहीं है। यही कारण है कि नेतृत्वविहीन आर्य समाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ धीरे-धीरे निगल रहा है । नेतृत्वविहीनता की यही स्थिति हिंदू महासभा की भी है। इसलिए उसे भी राष्ट्रीय सेवक संघ अपना भोजन बना रहा है । आरएसएस की यह कार्य शैली भी है कि यह अपने विरोधियों को धीरे धीरे निगलता है । कितना दुखद तथ्य है कि जिन्होंने कभी पैदा किया था उन संगठनों को ही राष्ट्रीय स्वयं संघ अपना विरोधी मानकर निगल रहा है ,और जो निगले जा रहे हैं , वह शोर भी नहीं कर रहे ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक की “एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज” नामक पुस्तक से)