भारत स्वराज्य की प्रेरणा वेदों से प्राप्त हुई। वेद में राष्ट्र ,राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का बड़ा मार्मिक चित्रण किया गया है। संसार के सबसे प्राचीन धर्मशास्त्र वेद – ऋग्वेद में स्वराज्य की आराधना करने की बात कही गई है। वेद के स्वराज्य संबंधी इसी चिंतन ने भारत को पराधीनता के काल में कभी भी चैन से बैठने नहीं दिया।
भारत माता वीर प्रस्विनी है। इसकी दासता की रोमांचकारी कहानी बड़ी कारूणिक और मार्मिक है। इसका इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब इस देश की स्वतन्त्रता का हरण करने के लिए पहला हाथ सिकन्दर ने इसकी ओर उठाया तो उसका उत्तर कितनी वीरता से दिया गया था ? इसका पोरस पौरूष उस समय भी जीवित था और बाद में भी रहा। राजा पोरस के पौरूष का ही पुण्य प्रताप था कि उसके पश्चात् सदियों तक किसी व्यक्ति, राष्ट्र अथवा शासक का साहस इस राष्ट्र की स्वतंत्रता का अपहरण करने के लिए नहीं हुआ। जब भारत पर विदेशी आतंक और आक्रमणकरियों का साया सब ओर मंडराया हुआ था, सर्वत्र भारतीयता का पतन हो रहा था, दूर-दूर तक भी स्वाधीनता का सूर्य उगता हुआ दिखाई नहीं दे रहा था, तब स्वामी दयानंद जी का आगमन भारत और भारतीयता की स्थापना के संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
यद्यपि संघर्ष की इस गाथा में सल्तनत काल के वे हिन्दू वीर राजा भी बधाई के पात्र हैं जिन्होंने किसी प्रकार से हिन्दू धर्म और संस्कृति का दीपक अपने सत्कृत्यों से बुझने नहीं दिया। जबकि बड़ी भयंकर आँधी उस समय चल रही थी। इसी प्रकार मुस्लिम मुगल बादशाहत के काल में महाराणा प्रताप का स्वातन्त्रय संघर्ष हमारे लिए वन्दन का हेतु है। महाराणा से प्रेरणा लेकर अन्य हिन्दू वीरों, सैनिकों, शासकों के प्रयास भी स्तवनीय हैं। जिन्होंने किसी भी प्रकार से भारत की स्वतन्त्रता को लाने में अपनी ओर से कोई न कोई प्रयास किया था। वीर बन्दा बैरागी, छत्रसाल, शिवाजी जैसे अनेकों वीरों को इतिहास की ‘टॉर्च, से ढूँढ ढूँढकर खोजना पड़ेगा। जिनके कारण हमें आज विश्व में स्वतन्त्र देश के स्वतन्त्र नागरिकों के रूप में जाना जाता है। ऐसे महान लोगों के बलिदानों के कारण हम जीवित हैं।
इसी प्रकार अंग्रेजों के जमाने में सन् 1857 की क्रान्ति के लिए महर्षि दयानन्द ने किस प्रकार क्रान्ति भूमि तैयार की थी, यह जानना होगा। उन्होंने स्वयं मेरठ में ‘मौनी-बाबा’ के रूप में जिस प्रकार कार्य किया, वह इतिहास का ओझल किन्तु रोमांचकारी हिस्सा है। जिनके वर्णन के बिना स्वतंन्त्रता का इतिहास अधूरा है। उनके उस स्वरूप को हमें ध्यान में रखकर इतिहास को पूरा करना होगा। रानी, लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना फडऩवीस जैसे अनेक क्रांतिकारी 1857 की क्रान्ति में लाखों भारतीयों की आवाज बने थे।
जिस समय 1857 की क्रांति की भूमिका तैयार हो रही थी उस समय स्वामी दयानंद जी महाराज एक परिव्राजक का जीवन जी रहे थे। नर्मदा और गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में ही इस क्रांति का व्यापक प्रभाव पड़ा था और इन्हीं क्षेत्रों में स्वामी दयानंद जी महाराज उस समय प्रवास कर रहे थे। उन्होंने हरिद्वार में नाना साहेब, अजीमुल्ला खां, बाला साहेब, तात्या टोपे और बाबू कुंवर सिंह से मुलाकात की थी। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक राजाओं, सेठ साहूकारों और अधिकारियों को सुधारने और देश की आजादी के लिए तैयार किया था। उन्होंने आम जनता को देश की आजादी के लिए काम करने के लिए बाद में प्रेरित किया, पहले उन लोगों को प्रेरित किया जो नेतृत्व कर सकते थे। इसी काल में स्वामी जी महाराज ने मंगल पांडे से भी मुलाकात की थी। इसे आप इस प्रकार भी कह सकते हैं कि बैरकपुर में रहते हुए क्रांति का शुभारंभ करने वाले मंगल पांडे ने भी स्वामी जी महाराज से आशीर्वाद लिया था। क्रांति का व्यापक स्तर पर शुभारंभ करने वाले मेरठ के धन सिंह कोतवाल गुर्जर ने भी स्वामी जी से आशीर्वाद लिया था। इस कथन की पुष्टि आचार्य दीपंकर जी की पुस्तक ‘ स्वाधीनता आंदोलन और मेरठ’ से होती है।
जो लोग यह कहते हैं कि स्वामी दयानंद जी का राजनीति और राजनीतिक गतिविधियों से कोई लेना-देना नहीं था और उन्हें राजनीति या राजनीतिक गतिविधियों के साथ जोड़ने से उनका व्यक्तित्व घटता है, उनके इस मत से हम सहमत नहीं हैं। ऐसा कहने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि हमारे भारतवर्ष में राष्ट्र की अवधारणा वेदों के प्रादुर्भाव के साथ ही हो गई थी। यही कारण है कि राज्य संचालन का संकल्प जहां हमारे राजनीतिक लोगों ने लिया वहीं राष्ट्र रक्षा का संकल्प हमारे ऋषियों ने संभाल यहां तक कि महर्षि मनु जैसे महाविद्वान व्यक्ति को भी राष्ट्र रक्षा के उपाय उनके समकालीन ऋषियों की सभा के माध्यम से ही उपलब्ध होते थे। यही परंपरा हमारे देश में निरंतर बनी रही। शस्त्र राज्य संचालन करने वाले क्षत्रिय के लिए आवश्यक था तो शास्त्र राष्ट्र रक्षा के प्रति संकल्पित विद्वानों ऋषियों के लिए अपेक्षित था। स्वामी दयानंद जी महाराज राजाओं को जगा कर जहां उन्हें राज्य संचालन और राष्ट्र रक्षा के लिए संकल्पित कर रहे थे, वहीं वह अपने पुनीत दायित्व के प्रति उदासीन हों, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। उन्होंने मौन रहकर अपना कार्य संपादित किया । क्योंकि उन्हें किसी भी प्रकार की एषणा छू भी नहीं गई थी। क्षितीश वेदालंकार जी अपनी पुस्तक ‘चयनिका’ के पृष्ठ 38 पर लिखते हैं कि ‘यदि विद्रोह (1857 की क्रांति से ) उनका संपर्क था तो मौन सर्वथा उचित था। क्योंकि अंग्रेजों का शासन रहते ‘आ बैल मुझे मार’ में कोई बुद्धिमानी नहीं थी। यह भीरुता नहीं थी, नीतिमत्ता थी।
‘भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में आर्य समाज का योगदान’ नामक पुस्तक के लेखक आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री जी ने भी ऐसे अनेक तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि स्वामी दयानंद जी महाराज 1857 की क्रांति में सक्रियता से अपना योगदान दे रहे थे। इसके लिए उन्हें उनके गुरु पूर्णानंद जी से उस समय प्रेरणा मिली। पूर्णानंद जी के आदेश से ही वह दंडी स्वामी बिरजानंद जी से मिलने के लिए चले थे। वास्तव में उस समय गुरु बिरजानंद जी की अवस्था 79 वर्ष की थी। उनके गुरुजी पूर्णानंद जी की अवस्था उस समय 110 वर्ष की थी । जबकि उनके भी गुरुजी ओमानंद योगी जी की अवस्था उस समय 160 वर्ष की थी। इन तीनों महान विभूतियों से उन्हें इतिहास का सीधा ज्ञान मिला। जिसमें मुगलों और अंग्रेजों के द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों को उन्होंने बिना किसी लागलपेट के इन महान संन्यासियों के श्रीमुख से श्रवण किया। उस समय दंडी स्वामी बिरजानन्द जी महाराज मथुरा में बड़ी-बड़ी सभाओं के माध्यम से लोगों को क्रांति के लिए तैयार कर रहे थे। इन तीनों महान सन्यासियों और उनके द्वारा किए जा रहे विशेष कार्य की जानकारी हमें निहाल सिंह आर्य जी की पुस्तक ‘सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम’ नामक पुस्तक से मिल जाती है। इस पुस्तक में भी यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है कि स्वामी दयानंद जी महाराज का 1857 की क्रांति से सीधा संबंध था। स्पष्ट है कि स्वामी जी महाराज अपने जीवन के उपरोक्त चार-पांच वर्ष के काल में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे थे बल्कि देश के उस प्रत्येक व्यक्ति को जाकर जगा रहे थे जो हाथ पर हाथ धरे बैठा था।
1857 की क्रांति के प्रति स्वामी जी का क्या दृष्टिकोण रहा होगा ? यदि इस पर विचार किया जाए तो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित उनके इस लेख से उनके दृष्टिकोण की स्पष्ट जानकारी होती है ‘जब संवत 1914 (अर्थात् सन् 1857 के वर्ष ) में तोपों के मारे मंदिर मूर्तियां अंग्रेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्ति कहां गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की, शत्रुओं ( अर्थात अंग्रेजों ) को मारा, परंतु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी नहीं तोड़ सकी , जो श्री कृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके ( अर्थात अंग्रेजों ) के धुर्रे उड़ा देता और वह (अर्थात अंग्रेज ) भागते फिरते अर्थात भारत छोड़कर चले जाते।’ ( ‘चयनिका’, पृष्ठ – 41)
स्वामी दयानंद जी महाराज की देश के स्वाधीनता आंदोलन में अग्रणी भूमिका को देखते हुए देश के पहले उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सरदार पटेल ने उनके बारे में कहा था कि ‘भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानंद ने ही डाली थी।’
स्वामी जी महाराज के दिए हुए संस्कारों ने पूरे देश के युवा मानस को झकझोर कर रख दिया था। ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आर्य समाज का विशेष ( 80% ) योगदान’ नामक पुस्तक इस विषय में विशेष रूप से पठनीय है। इस पुस्तक के अध्ययन से यह तथ्य पूर्ण रूप से उजागर होता है कि स्वामी जी महाराज के मार्गदर्शन में चलने वाले आर्य क्रांतिकारियों के कारण सर्वत्र क्रांति की धूम मच गई थी।
स्वामी दयानंद जी के स्वराज्य का चिंतन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के प्रत्येक नेता को छू गया था। “सत्यार्थ प्रकाश” में स्वामी जी महाराज ने जिस प्रकार स्वराज्य का चिंतन दिया है,उससे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के गरम दल और क्रांति दल के नेताओं को तो प्रेरणा मिली ही नरम दल भी उससे अछूता नहीं था। महादेव गोविन्द रानाडे, श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला लाजपतराय, गोपाल कृष्ण गोखले और इनकी विचारधारा से पैदा हुई आजादी की जंग की त्रिवेणी-गरम दल, नरम दल और क्रान्तिकारी दल, सभी स्वामी दयानंद जी के गीत गाते हुए दिखाई देते हैं। देश की स्वाधीनता के लिए काम कर रहे गरम दल, नरम दल और क्रांति दल के नेताओं के बारे में यदि विचार किया जाए तो पता चलता है कि यह त्रिवेणी स्वामी दयानंद जी नाम की गंगोत्री से ही निकली थी। जिसके कारण भारत में हजारों लाखों की संख्या में रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद पैदा हुए। जिनकी क्रान्ति की धूम ने गाँधी की शांति का पिटारा खोल दिया और देश की जनता को क्रान्ति प्रिय बना दिया। हमें गाँधी जी को उचित सम्मान देते हुए भी ‘सम्मान के वास्तविक पात्रों का उचित ध्यान रखना होगा।
एक समय ऐसा भी आया था जब आर्य समाज के नेताओं ने कांग्रेस के मंच पर लगभग एकाधिकार कर लिया था। उस समय गांधी और नेहरू लोकप्रियता में बहुत पीछे चले गए थे। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोल रही थी। उसी के कारण वह 1937 – 38 में निरंतर दो बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। यदि गांधीजी की हठधर्मिता के चलते उन्हें कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा ना देना पड़ता तो नेताजी और हिंदू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष वीर सावरकर स्वामी जी महाराज के सपनों का भारत बनाने के लिए बहुत आगे बढ़ चुके थे।
स्वामी दयानंद जी द्वारा स्थापित किए गए आर्य समाज ने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए क्रांति के लाखों सपूतों को देश की सेवा के लिए समर्पित किया आर्य समाज के गुरुकुल उस समय क्रांति पुत्रों को तैयार करने की फैक्ट्री बन चुके थे। सुभाष चंद्र बोस को आर्य समाज लाहौर में महाशय कृष्ण जी ने 10000 की थैली भेंट करते हुए उन्हें आश्वासन दिया था कि गुरुकुल के विद्यार्थी आपकी सेना के सिपाही हैं । आप जब भी आवाज़ दोगे, ये सब आपके साथ खड़े मिलेंगे । तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि आर्य समाज तो मेरी मां है।
इन्हीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कारण भारत की सारी सेना अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई थी। भारत की निजी यात्रा पर आए ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री लॉर्ड एटली ने 1965 में कहा था कि हम किसी शांतिवादी आंदोलन के कारण भारत छोड़कर नहीं गए थे बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों के कारण हमारे लिए भारत को छोड़ना अनिवार्य हो गया था। इस प्रकार जिन क्रांति सपूतों ने आर्य समाज को अपनी माता कहा उनके कारण देश को आजादी मिली। यह एक स्थापित सत्य है और इस स्थापित सत्य के पीछे स्वामी दयानंद जी और आर्य समाज का महत्वपूर्ण योगदान है। जिसे नकारा नहीं जा सकता।
- डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
दयानंद स्ट्रीट, सत्यराज भवन, (महर्षि दयानंद वाटिका के पास)
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