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आज का चिंतन

मैं ही सबसे अधिक बुद्धिमान हूं – होने का भ्रम

      प्रायः सभी लोग ऐसा मानते हैं, कि *"मैं ही सबसे अधिक बुद्धिमान हूं। इसलिए दूसरे लोगों को मेरी बुद्धि के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।"* परंतु ऐसा होता नहीं। क्यों? यह तब हो सकता था, जब दूसरे लोग आपको अपने से अधिक बुद्धिमान मान लेते। परन्तु वे लोग आपको अपने से अधिक बुद्धिमान मानते नहीं। क्यों नहीं मानते? इसका कारण यह है कि *"सब लोग सत्यग्राही नहीं हैं। पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण उनमें हठ अभिमान आदि दोष बहुत अधिक हैं। प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धि का स्तर भी अलग-अलग है। सबके माता पिता और उनका प्रशिक्षण भी अलग अलग है। प्रत्येक परिवार का वातावरण खान पान आदि भी अलग अलग है।  इत्यादि कारणों से, लोग स्वयं को ही अधिक बुद्धिमान मानते हैं, दूसरे व्यक्तियों को अपने से अधिक बुद्धिमान स्वीकार नहीं कर पाते। इसलिए वे दूसरे व्यक्ति की बात नहीं मानते, और उसके अनुसार व्यवहार नहीं करते।"*
       ऐसी स्थिति में यदि कोई व्यक्ति दूसरे को समझाता है, कि *"आप ऐसा व्यवहार न करें, और ऐसा करें।" "तब यदि उसके संस्कार विचार अच्छे हों, बुद्धि तीव्र हो, वह व्यक्ति सत्यग्राही हो, तो वह दूसरे की बात मान लेता है। और सही बात को समझ कर अपने व्यवहार को शुद्ध कर लेता है।"*
     *"परंतु जिसके संस्कार विचार अच्छे नहीं होते, बुद्धि तीव्र नहीं होती, जो सत्यग्राही नहीं होता, तो वह दूसरे व्यक्ति की बात को स्वीकार नहीं करता। वह अपने व्यवहार में सुधार नहीं करता। वह अपनी बुद्धि के अभिमान से अपने हठ को पकड़े रखता है।" "उनको आप नहीं समझा सकते। ऐसे लोगों से तो दूर रहना ही ठीक है। बल्कि वहां तो स्वयं को समझा लेना ही अच्छा है।"* 
     वहां स्वयं को इस प्रकार से समझा लेना चाहिए, कि *"मेरे सामने वाला व्यक्ति अज्ञानी है, हठी है, दुरभिमानी है। यह मेरी बात को नहीं समझ रहा, और स्वीकार भी नहीं कर रहा। इसलिए मुझे इस पर और अधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए, बल्कि इससे व्यर्थ बहस न करके अपनी शक्ति को बचाना चाहिए। इससे दूर रहकर अपने ढंग से अपना जीवन जीना चाहिए। तभी मैं सुख से जी पाऊंगा।"* यदि आप वहां ऐसे स्वयं को समझा लें, तो आप सुखी जीवन जी सकते हैं।
     स्मरण रहे, कि *"जैसे आप पूरे नगर में कालीन नहीं बिछा सकते, परंतु अपने पांव में जूते पहन कर नगर भर के कंकड़ों के चुभने से बच सकते हैं। बस, ऐसे ही आप सबको नहीं समझा सकते, अपने आप को समझा कर कुछ शान्ति से अपना जीवन जी सकते हैं।"*

—– “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।”

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