भारत की राष्ट्रीय चेतना को आर्ष ग्रंथों ने बहुत अधिक प्रभावित किया है । दीर्घकाल तक भारतीय संस्कृति की प्रेरणा के स्रोत बने इन ग्रंथों ने भारत के राष्ट्रीय मानस को ,राष्ट्रीय चेतना को , राष्ट्रीय परिवेश को और राष्ट्रीय इतिहास को इतना अधिक प्रभावित किया है कि इनके बिना भारतीयता के उद्बोधक इन सभी स्थलों या प्रतीकों की कल्पना तक नहीं की जा सकती । यही कारण है कि विदेशी विद्वानों ने भी भारत के इन आर्ष ग्रंथों की और विशेष रूप से उपनिषदों की बहुत ही श्रद्धाभाव के साथ विवेचना की और जब वह इनकी ज्ञान गंगा में सराबोर हो गए तो बाहर निकलकर इनके भीतर मिले ज्ञानानंद को वर्णन करते हुए रो पड़े । उन्हें लगा कि वह अब तक जिस अज्ञान की चादर को ओढ़े पड़े थे , आनंद वहां नहीं था , अपितु आनंद तो भारत के इन उपनिषदों के भीतर घुसने में था । यही कारण रहा कि विदेशी विद्वानों ने भारत के इन आर्ष ग्रंथों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की और यह कहने में भी नहीं चूके कि यदि भारत के पास अपनी आध्यात्मिक परंपरा को बनाए रखने वाले यह ग्रंथ न हों तो विश्व के अस्तित्व की कल्पना तक नहीं की जा सकती।भारत की इतिहास परंपरा में भी उपनिषदों का विशेष महत्व और योगदान है । उपनिषदों की अध्यात्म परंपरा का ही प्रभाव रहा कि हमारे राजा , महाराजा और सम्राट अपनी प्रजा के प्रति अपने वास्तविक कर्तव्य कर्म को समझते रहे ।
उन्होंने प्रजा की सेवा को अपना धर्म बनाया और ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया जिससे उनका राजधर्म पतित या कलंकित होता हो । उन्होंने इस बात को बड़ी गहराई से समझा कि यह संसार नश्वर है , जीवन क्षणभंगुर है । इस नाशवान शरीर व संसार से निकलकर हमें वह संसार प्राप्त करना है जो नश्वरता के इस बन्धन से मुक्त है । यही कारण रहा कि उन लोगों ने प्रजाहितचिंतन करते हुए प्रजा के उपकार के कार्यों में लगे रहकर परलोक को सुधारने पर ध्यान दिया । सांसारिक ऐश्वर्य और भोग सामग्री उन्हें आकर्षित नहीं कर पाई । वह कीचड़ में कमल की भांति अपने जीवन को जीने में सफल रहे यही कारण रहा कि भारत के इतिहास में राजकीय शक्तियों के माध्यम से जनता पर किसी भी प्रकार के अत्याचार करने के उदाहरण नहीं मिलते और मिलते हैं तो बहुत कम अनुपात में ही मिलते हैं । जबकि इस्लाम और ईसाइयत के पास ऐसे अनेकों सम्राट , शासक , राजा नवाब आदि हैं जिनका कार्य ही प्रजा पर अत्याचार करना रहा । लूट खसोट करना और दूसरों की स्त्रियों और संपत्ति का अपहरण करना उनका धर्म बन गया। जिससे राजधर्म पतित और कलंकित हुआ ।भारत का सारा स्वाधीनता संग्राम इस पतित और कलंकित राजधर्म को फिर से पटरी पर लाने के लिए हुआ अर्थात भारत की चेतना ने भारत को इस बात के लिए चेतनित और प्रेरित किया कि राजधर्म की कलंकित और पतित पटरी को फिर से व्यवस्थित करो , पाप मुक्त करो ,जनता को अत्याचारों से मुक्त करो और उसी आदर्श व्यवस्था को स्थापित करो जो व्यक्ति को इस लोक और परलोक दोनों को सुधारने में सहायक हो । भारत के दीर्घकालीन स्वतंत्रता समर के इस मौलिक चिंतन को ऊर्जा और गति देने में भारत के उपनिषदों का योगदान अविस्मरणीय है ।
उपनिषद शब्द का अर्थ है कि जिस विद्या से परब्रह्म, अर्थात ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो,वह विद्या ‘उपनिषद’ कहलाती है। भारत के ऋषियों ने ईश्वरीय सानिध्य और सामीप्य की प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया । उन्होंने अनुभव किया कि संसार के किसी अन्य आकर्षण या ऐश्वर्य और भोग में उतना आनंद नहीं मिलता जितना ईश्वर के सामीप्य और सानिध्य में प्राप्त होता है। संसार के सारे आकर्षण ,ऐश्वर्य और भोग जहाँ जीवन को नष्ट करते हैं , वहीं ईश्वर का सामीप्य और सानिध्य जीवन को आनंदित करता है।विद्वानों के अनुसार उपनिषद में ‘सद’ धातु के तीन अर्थ और भी हैं – विनाश, गति, अर्थात ज्ञान -प्राप्ति और शिथिल करना । इस प्रकार उपनिषद का अर्थ हुआ-‘जो ज्ञान पाप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्राप्त कराये, आत्मा के रहस्य को समझाये तथा अज्ञान को शिथिल करे, वह उपनिषद है।’उपनिषद के अध्ययन से हमारा ज्ञान निरंतर पवित्र और कोमल होता जाता है । जबकि अज्ञान की सारी दीवारें ढहती चली जाती हैं । बीहड़ जंगल में काम , क्रोध , मद ,मोह और लोभ आदि के फुंकारते सांप , दहाड़ते शेर और जलती हुई आग आदि सब शांत होते चले जाते हैं । मन शांत होने लगता है । निर्भ्रांत होने लगता है । उसे जीवन का रहस्य समझ में आने लगता है और वह समझ जाता है कि जीवन के इस घोर घने जंगल में से कैसे निकला जा सकता है और जीवन का वास्तविक उद्देश्य क्या है ?
अष्टाध्यायी में उपनिषद शब्द को परोक्ष या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। स्पष्ट है कि उपनिषद रहस्यों को खोलता है और अज्ञानावरण को मिटाकर ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य को विचरण करने के लिए प्रेरित करता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में युद्ध के गुप्त संकेतों की चर्चा में ‘औपनिषद’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे भी यही भाव प्रकट होता है कि उपनिषद का तात्पर्य रहस्यमय ज्ञान से है।अमरकोष कोर्स में उपनिषद के विषय में व्यवस्था दी गई है कि – उपनिषद शब्द धर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए प्रयुक्त होता है।विद्वानों ने ‘उपनिषद’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘उप’+’नि’+’षद’ के रूप में मानी है। इनका अर्थ यही है कि जो ज्ञान व्यवधान-रहित होकर निकट आये, अर्थात इतनी उत्कृष्टता , पवित्रता और कोमलता के साथ हमारे अंतर्मन में प्रविष्ट हो जाए कि सारा अज्ञानान्धकार मिटता हुआ चला जाए , जो ज्ञान विशिष्ट और सम्पूर्ण हो अर्थात जिसमें कहीं से भी न्यूनता ना हो , जो मनुष्य को ‘ पूर्ण ‘ से मिलाने में सफलता दिलाए अथवा पूर्ण का बोध कराए , तथा जो ज्ञान सच्चा हो, वह निश्चित रूप से उपनिषद ज्ञान कहलाता है। स्पष्ट है कि जो ज्ञान ब्रह्म से साक्षात्कार कराए , ब्रह्म से हमें मिलाए ,उससे हमारा तादात्म्य स्थापित कराने में सहायता करे , वही ज्ञान उपनिषद है। इसे अध्यात्म-विद्या भी कहा जाता है।
भारत के अनगिन ऋषियों महर्षियों , विद्वानों , राजा महाराजाओं और अनेकानेक सामान्य लोगों ने उपनिषदों के प्रकाश से अपने जीवन को आलोकित किया और परमानंद की उपलब्धि प्राप्त की । उनका जीवन चमक गया , जीवन में निखार आ गया ।उपनिषदों के संबंध में स्वामी विवेकानंद ने अपने अनुभवों को इन शब्दों में प्रस्तुत किया है — ” मैं उपनिषदों को पढ़ता हूँ, तो मेरे आंसू बहने लगते हैं। यह कितना महान ज्ञान है ? हमारे लिए यह आवश्यक है कि उपनिषदों में सन्निहित तेजस्विता को अपने जीवन में विशेष रूप से धारण करें। हमें शक्ति चाहिए। शक्ति के बिना काम नहीं चलेगा। यह शक्ति कहां से प्राप्त हो ? उपनिषदें ही शक्ति की खानें हैं। उनमें ऐसी शक्ति भरी पड़ी है, जो सम्पूर्ण विश्व को बल, शौर्य एवं नवजीवन प्रदान कर सकें। उपनिषदें किसी भी देश, जाति, मत व सम्प्रदाय का भेद किये बिना हर दीन, दुर्बल, दुखी और दलित प्राणी को पुकार-पुकार कर कहती हैं- उठो, अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बन्धनों को काट डालो। शारीरिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, अध्यात्मिक स्वाधीनता- यही उपनिषदों का मूल मन्त्र है।” उठो ‘अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और बंधनों को काट डालो ‘ — उपनिषदों का यह एक ऐसा गहरा संदेश है जिसने भारत के इन लोगों को विदेशी शासकों के बंधनों से मुक्त करने के लिए प्रेरित किया।
उपनिषदों के इस ज्ञान ने हमारे लोगों के अंतर्मन में चेतना जागृत की और वह विदेशी शासकों के विरुद्ध न केवल उठ खड़े हुए बल्कि उन्हें उखाड़ फेंक कर ही अर्थात अपने लक्ष्य की प्राप्ति को पाकर ही उन्हें चैन मिला । इस प्रकार भारतीय इतिहास पर उपनिषदों का स्पष्ट प्रभाव हमें परिलक्षित होता है।हमने अपने इतिहास में अंग्रेजों की ‘ फूट डालो और राज करो ‘ – की राजनीति पर तो अनेकों लेख पढ़े हैं , अनेकों विद्वानों के मत सुने हैं , परंतु कभी हमने यह नहीं सोचा कि हमारे क्रांतिकारियों ने भी ‘ ‘लूटो और काट डालो ‘ की जिस रणनीति को विदेशी शासकों के विरुद्ध अपनाया , उनकी वह कारगर रणनीति उन्हें मिली कहां से ? ‘ लूटो और काट डालो ‘ की उनकी इस नीति का अर्थ ही यह था कि जिन विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत में रहकर भारत की धन संपत्ति को लूटा है , उनके उस राजकोष को लूट लो क्योंकि उस पर हमारा अपना अधिकार है । हमारे सारे क्रांतिकारी आंदोलन में जितने भर भी हमारे क्रांतिकारी हुए उन सबका उद्देश्य यही था कि जनसामान्य से पैसा ना लेकर विदेशी शासकों के खजाने को लूटो और फिर अपने देश की गुलामी के बंधनों को काटो ।
उपनिषद प्रदत्त ‘ लूटो और काटो ‘ – की इस क्रांतिकारी सोच को भी इतिहास में स्थान दिया जाना चाहिए था । स्पष्ट है कि हमारे क्रांतिकारियों को यह प्रेरणा उपनिषदों से प्राप्त हुई । उन्होंने इस बात को गंभीरता से अनुभव किया कि देश में शांति तभी आ सकती है जब विदेशियों को यहां से भगाया जाएगा। हमारा इहलोक और परलोक तभी सुधर सकेगा जब हम विदेशी आक्रमणकारियों को यहां से भगा देंगे।जब भारत अपनी ऐसी अवस्था को प्राप्त होगा अर्थात जब स्वतंत्र हो जाएगा और स्वतंत्र होकर अपने उपनिषदों के प्रकाश को लेकर संसार का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़ेगा तो क्या होगा ? इस पर रविंद्र नाथ टैगोर जी के इस चिंतन को हमें स्वीकार करना होगा — ” चक्षु-सम्पन्न व्यक्ति देखेगें कि भारत का ब्रह्मज्ञान समस्त पृथिवी का धर्म बनने लगा है। प्रातः कालीन सूर्य की अरुणिम किरणों से पूर्व दिशा आलोकित होने लगी है। परन्तु जब वह सूर्य मध्याह्र गगन में प्रकाशित होगा, तब उस समय उसकी दीप्ति से समग्र भू-मण्डल दीप्तिमय हो उठेगा। “उपनिषदों के महत्व और ज्ञान गाम्भीर्य को प्रणाम करते हुए भारत के दूसरे राष्ट्रपति रहे डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी अपने जीवन को पवित्र बनाया था । उन्होंने उनके विषय में लिखा है –” उपनिषदों को जो भी मूल संस्कृत में पढ़ता है, वह मानव आत्मा और परम सत्य के गुह्य और पवित्र सम्बन्धों को उजागर करने वाले उनके बहुत से उद्गारों के उत्कर्ष, काव्य और प्रबल सम्मोहन से मुग्ध हो जाता है और उसमें बहने लगता है।
“सन्त विनोवा भावे ने भी अपने जीवन में उपनिषदों का ज्ञान अध्ययन किया । जब उनके जीवन में उपनिषदों के अध्ययन से व्यापक परिवर्तन हुए और उनको अनुभव होने लगा कि उनका जीवन दिव्यानंद की प्राप्ति कर रहा है तो उनके हृदय से भी ये शब्द फूट पड़े — ” उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। हिमालय जैसा पर्वत और उपनिषदों- जैसी कोई पुस्तक नहीं है, परन्तु उपनिषद कोई साधारण पुस्तक नहीं है, वह एक दर्शन है। यद्यपि उस दर्शन को शब्दों में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है, तथापि शब्दों के क़दम लड़खड़ा गये हैं। केवल निष्ठा के चिह्न उभरे है। उस निष्ठा के शब्दों की सहायता से हृदय में भरकर, शब्दों को दूर हटाकर अनुभव किया जाये, तभी उपनिषदों का बोध हो सकता है । मेरे जीवन में ‘गीता’ ने ‘मां का स्थान लिया है। वह स्थान तो उसी का है। लेकिन मैं जानता हूं कि उपनिषद मेरी मां की भी माँ है। उसी श्रद्धा से मेरा उपनिषदों का मनन, निदिध्यासन पिछले बत्तीस वर्षों से चल रहा है।” गोविन्दबल्लभ जी का कथन है कि –” उपनिषद सनातन दार्शनिक ज्ञान के मूल स्रोत हैं । वे केवल प्रखरतम बुद्धि का ही परिणाम नहीं है, अपितु प्राचीन ॠषियों की अनुभूतियों के फल हैं। “हमें इतिहास के संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि इतिहास दो धाराओं से बनता है । इसकी एक धारा कहीं पीछे छूट गई लगती है , जबकि एक धारा सतत प्रवाह के साथ इसके साथ आज भी बह रही होती है। जैसे मुल्तान या गजनी हमसे कहीं पीछे छूट गए , परंतु उनकी स्मृतियां हमारे साथ आज भी हैं । उनकी स्मृतियों का यह सनातन प्रवाह हमारे साथ तब तक रहेगा जब तक भारतवर्ष है। गजनी और मुल्तान का पीछे छूट जाना इतिहास की भौतिकवादी धारा है , जबकि उनकी स्मृतियों का भारत के मानस में बने रहना इतिहास की आध्यात्मिक धारा है। इसी प्रकार राजा महाराजाओं का होना और उनका मिट जाना भी इतिहास की भौतिक धारा है । जबकि भारत के सांस्कृतिक समृद्ध परंपरा का सतत सनातन स्वरूप भारत की फिजाओं में बने रहना , उसकी अध्यात्म धारा है । इन दोनों से ही इतिहास बनता है , यही इतिहास बोध है और यही राष्ट्र बोध है।व्यक्ति जन्म लेता है और फिर मरता है परंतु राष्ट्र अपने आप में सनातन है , वह शाश्वत है । क्योंकि राष्ट्र का निर्माण सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से होता है। इस प्रकार इतिहास और भारत की सनातन परंपरा का अन्योन्याश्रित संबंध है । इतिहास तब तक अपूर्ण है जब तक इसमें उपनिषदों का प्रकाश सम्मिलित न् हो या उपनिषद प्रदत चेतना के स्वरों को इतिहास की शाश्वत परंपरा के प्रवाह में खोजने का उद्यम न किया जाए।हमको यह पता होना चाहिए कि हमें उपनिषदों के प्रकाश से इसलिए काटा गया है कि यदि उपनिषद से जुड़ गए तो हम चेतनित और झंकृत हुए रहेंगे और यदि इससे कट जाएंगे तो हम कुरान और बाइबल के शिक्षकों के प्रति स्वयं झुक जाएंगे , और जानते हो फिर उसका परिणाम क्या होगा ? समय रहते अपने इतिहास के सनातन , शाश्वत प्रवाह को खोजो और उसमें आनंदित होकर डूब जाओ , समय की पुकार यही है।
डॉ राकेश कुमार आर्य