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भारतीय संस्कृति

प्रणाम की प्रक्रिया और उसका महत्व

मनुष्य अनादि काल से अपना पूरा जीवन आत्मा और परमात्मा के गूढ़ रहस्य को जानने की जिज्ञासा में रेगिस्तान में जल के लिये भटकते एक मृगतृष्णा की भांति समाप्त कर देता है और वह तामसिक प्रवृत्तियों के गहन अंधकार में निमग्न रहकर प्रणाम, प्रार्थना और विसर्जन के मूल तत्व तक से अनभिज्ञ बना रहता है। आज के मनुष्य में अहंकार इतना है कि वह उधार लिये शब्दों-परिभाषाओं के मोहजाल में स्वयं को परमज्ञानी समझने के साथ वैसा ही आचरण करने के कुशल अभिनय में वह न कुशल अभिनेता बन पाता है और न ही मनुष्य होकर वह मनुष्य रह पाता है। मॉ की कुक्षी से जब वह इस धरा पर पहला कदम रखता है तब वह एक शिशु के रूप में पहली बार जगत के दृश्यों को अपनी आंखों से देख किलकारियां भरते रोता है और परिजन उसके जन्म के समय उत्साहित हो उत्सव मनाते है। जन्म के समय वह स्वस्थ, आरोग्यमय तन के साथ विचार रहित मन का विशाल आकाश लिये होता है,जिसे ताउम्र सॅवारने की बजाय वह एक विकृति को जीता है और उसे ही अपनी धरोहर समझकर आखिर में मर जाता है। जन्म के समय उसकी हर इन्द्रिय निष्पाप होती है और उसकी बुद्धि, मन और आत्मा को हम अपनी प्रतिकृति में ढ़ालने की शुरूआत करते है। हम उसे एक शब्द जो उसका नाम होता है वह उच्चारित करते है ताकि जन्म लिये शरीर की पहचान इस जगत के समक्ष उस नाम को करने में कठिनाई न हो। नाम मिलते ही हम पहले वह नाम उसे हृदयंगम कराते है ताकि विश्वास कर सके कि जिस नाम से हम उसे बुला रहे है वह उसका है, नाम मिलते ही वह सचेत होकर सुनना शुरू करता हैं। जब शिशु नाम शब्द को समझने लगता है तब उसके मुख को देखकर, उसकी आंखों में झांककर, उसके होठों की हँसी से तादात्म्य बनाकर हम उसे मॉ, मम्मी, पापा, भैया, जो भी उस शिशु के लिये आसानी से समझना आ जाये वह शब्द देते है फिर शब्दों के साथ भाषा देते है, ज्ञान देते है। भाषा वह जो हमारी है, ज्ञान वह जो शिशु को सम्बन्धों-चीजों का बोध कराता है। शिशु को जो बोध कराने की शिक्षा हमारे द्वारा दी गयी है वह धीरे-धीरे उसकी अंतरात्मा में विराजित मन-बुद्धि और आत्मा के कल्याण का मार्ग बननी चाहिए, लेकिन बन नहीं पाती? शिशु, बालक,किशोर,युवावस्था की ओर अग्रसर हो जाता है और फिर अपने धर्म-कर्म के साथ उसके प्रचलित आध्यात्म की यात्रा में वह निकल पड़ता है। उसके जीवन में स्वयं का आत्मशोधन और कल्याण के लिये अनेक मान्यतायें, धारणायें चारों ओर बिखरी मिलती है तब उसके जीवन के अनुभव उसे प्रेम-समर्पण और आत्मकल्याण के साध्य की ओर भी चलने को प्रेरित करते है किन्तु उसका मार्ग हमारी विरासत से होकर जाता है। हम वे जो सदियों से अपने पूर्वजों की उपलब्धि को अपनाते लकीर के फकीर से नहीं हट पाते, उनके भावों, प्रार्थनाओं में हटके होते है जहॉ न हम प्रणाम करने का आनन्द पा पाते है और न ही प्रणाम के आर्शीवाद के अहोभाव को पा पाते है। प्रार्थनाओं को हम तोते की तरह रटने के आदि हो गये है, इसलिये आज तक हम स्वयं की प्रार्थना नहीं कर सके और नही प्रार्थना के आनन्द को जान सके है। हमारे ईष्ट के दर्शन की अलौकिता को हम आभास ही नही कर पाते फिर उनके श्रीविग्रह के विसर्जन या अपने मन,इन्द्रिय आत्मा से विकारों के विसर्जन तक को विस्मृत किये हुये है जिसे आज समझकर समष्टि के प्रति अपने कर्तव्य बोध को जागृत करने की आवश्यकता है जिसका स्वाद हमने चखा नहीं, किन्तु बिना चखे जीवन जीना व्यर्थ ही होगा।

एक प्रश्न से शुरुआत करता हॅू कि प्रणाम क्या है ? कहा गया है ’पूर्णतः नत होना’ ही प्रणाम है। सभी तरह की अहंता को, निज-मुख-स्पृहा को, अपनी इच्छा को विसर्जन कर प्रणम्य के चरणों में आत्मनिवेदन करना। भगवत इच्छा के समक्ष अपनी इच्छा को जो सम्पूर्ण रूप से बिना किसी शर्त के उत्सर्ग करता है, वही प्रणाम है अगर किसी से कुछ अपेक्षा,चाहत या मांगने के लिए प्रणाम करना है तो वह प्रणाम सिद्ध नहीं होता है। मनुष्य के जीवन में जब आन्तरिक भगवतानुभूति पाने का आग्रह ओर उत्साह होगा तो ही उसे आनन्द की अनुभूति होगी। जो सदैव अपने मन के अनुराग में अभावपूर्ण वैचारिकता के उधार-थोथे शब्दों का नैसर्गिक उपचार किये बिना उन्हें ग्रहण कर उनके संसर्ग में जीने को उत्सुक रहते है वे किसी भी प्रकार की ईश्वर साधना के स्वाद से वंचित होते है। मनुष्य का मनुष्य के प्रति आत्मीय प्रेम मनुष्यता के प्रारंभ की पहली कुंजी है और प्रेम प्रगट करने के लिये अगर पहली सीढ़ी अभिवादन को, प्रणाम को, नमस्कार को मान्यता दे तो निश्चित रूप से दो पृथक व्यक्ति जब प्रत्यक्ष उपस्थित हो तो उनका एक दूसरे से भेंट से पूर्व आत्मीय प्रेम की अभिव्यक्ति के स्वरूप में अभिवादन करना उनके परस्पर मिलने का साध्य बनता है जहॉ दोनों एक दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम करेंगे या सिर झुकाकर नमस्कार करेंगे। प्रणाम के समय जो व्यक्ति झुकता है उसका अहंकार तिरोहित होता है और जब हाथ जोड़े जाते है तब प्रेम का प्रगटीकरण ही नही होता बल्कि मन और आत्मा दोनों अन्दर ही अन्दर ज्ञान, भक्ति और शक्ति के प्रकाश से आलोकित हो उठते है। भारत दुनिया में विश्वगुरू के नाम से वैसे ही शोभित नहीं है, हमारे पूर्वजो की यही देशना हमें पूरी दुनिया में गर्वोक्तता प्रदान करती है। हमारे धर्म-ग्रंथों, वेद-पुराणों में प्रणाम करने के मंगलमय दर्शन देखने को मिलते है। प्रणाम करने के अवसर पर नतमस्तक हुये दोनों व्यक्तियों, समूहों आदि को यह अनुभव होना चाहिये कि मैं कुछ भी नहीं हॅॅू, सब आपका है। कहा भी गया है नमम अर्थात ’न मम ’ मेरा कुछ भी नहीं। जिन्हें प्रणाम किया जा रहा है तब अपने हाथों के प्रति भाव होना चाहिये कि मैं, उनके हाथ का यंत्र हॅू वे मेरे संचालक है, यह भाव अहं के अस्तित्व को विलोपित करता है जब एक व्यक्ति के प्रति हमारे यह भाव प्रणाम को लेकर होंगे तो निश्चित मानिये जब भगवान को प्रणाम करने का अवसर आवेगा तब आपकी तन्मयता आपको भक्ति के चरम शिखर पर अधिष्ठित करने में सहायक होगी। जगत में जिन्हें प्रणाम करना आ गया है और जिन्होंने प्रणाम से अपनी उपासना की पूर्णता प्राप्त कर ली वे सच्चे मायने में पथप्रदर्शक माने जाते है। प्रणाम सिद्धि तभी है जब उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर अपने को अनुगत स्वीकारना प्रणाम की सार्थकता का संदेश होगा। पूजा में, भक्ति में, साधना में, व्रत में, श्रीमदभागवत कथा, अनुष्ठानों आदि में सभी जगह ईश्वर के स्मरण के साथ उनको हृदय में धारण कर प्रणाम करने की वैदिक विधि का पालन करने की परम्परा है। रोज मंदिरों में पूजा घरों में, अनुष्ठानों में सर्वव्यापी परब्रह्म को संधान करने के लिए इसी प्रकार सालों से जनमानस के बीच में यह स्वाभाविक प्रणाम निवेदित होता है और पूर्णात्मा परमात्मा के प्रणाम के बाद फिर कोई प्रणाम शेष नहीं रहता और और यही प्रणाम का अवसान भी है।

प्रत्येक जीव का एक गुरू होता है। इसलिये समस्त जगत में जो ज्ञानदाता है वह गुरू ही है। गुरु और जगतगुरु में कोई भेद नहीं है। मनुष्य को यह समझ लेना चाहिये कि गुरू तत्व अखण्ड है। जो सब जीवों की आत्मा में विराजमान है, सभी का पालन कर शिक्षा दे रहे है वही सर्वव्यापी ज्ञानाधार आश्रयदाता गुरुदेव को नमस्कार करता हॅॅू। गुरु के विषय में जीव को समझना होगा कि वह विश्वमय होते हुए विश्वास है, कर्म के नियन्ता होते हुए स्वयं में उदासीन है वे अनासक्त भाव से सभी शिष्यों से अनुरागी की तरह अनुराग करते है और संसारी होकर संसार का त्याग भी करते है। ब्रम्हाण्डव्यापी सर्वभूत में पूर्णतः विराजमान जगदीश्वर के परम तत्व से साक्षात्कार कराने के लिये इसी कारण गुरू का महत्व अग्रणी है जिसका सरलतम उदाहरण कबीरदास ने देते हुये कहा कि गुरूगोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पॉव, बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दिये बताये। पॉव लागने का अर्थ है पूर्ण समर्पण अर्थात शिष्य का अपने अहं का परित्याग कर गुरू के चरणों में साष्टांग दण्डवत करना। चराचर ब्रम्हाण्ड के केन्द्र में भगवान को अवस्थित कहने का अर्थ ही है कि वह सब विषयों में पूर्ण है, उनसे जो ज्योति प्रकाशमान हो चहुदिशा में फैली है वह अनन्त प्रसारित है जिसका वर्तुल मण्डलाकार होगा इसलिये अखण्डमण्डलाकार में उसकी उपस्थिति है। वेद-पुराण और शास्त्र जिसे सबके नाथ अर्थात विधाता और रक्षाकर्ता जगन्नाथ बतलाता है जो समस्त जीवों के विधाता है। कहा गया है कि- मन्नाथः श्री जगन्नाथो मद्गुरुः श्रीजगदगुरूः। ममात्मासर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरूवे नमः।। गुरू जो जगदगुरू है ज्ञान के देने वाले है अर्थात मेरा आत्मा ही सर्वभूतात्मा का संचालनक है के प्रति प्रणाम की कृतज्ञता अभिव्यक्त रही है, यही चर्मोत्कृष्टता गुरू की महिमा को जगत में पूजनीय बनाये हुये है।

श्रीगणेशाय नमः से हमारे सारे कार्य प्रारम्भ होते है। हम परमात्मा के जिस नाम,स्वरूप से उन्हें स्मरण कर अपना प्रणाम निवेदित करते है तब हमारा भाव होता है कि आप ही एकमात्र हमारे रक्षक है जिसे मैं निरंतर भजता हॅू। हम परमात्मा के प्रति उसी भाव में उसके रूपमें, सौन्दर्य में, माधुर्य में, जब स्वयं को एकाकार करते है तो हमारा पूरा मन, चिन्तन उसके चरणों में रत रहता है। हमारा हृदय उनकी छवि को अपने में अधिष्ठित कर लेता है और भाव स्वमेव हमारी तुच्छ मॉगों के लिये समर्पित हो जाताहै कि हमारे क्लेश हरो, हमारी इन्द्रियॉ हमारे वश में नहीं है ऐसी शक्ति दीजिये कि हमंअपनी कामनाओं-वासनाओं के कुचक्र से मुक्त हो सके। हम तुम्हें बार-बार प्रणाम करते है। हमारे अपने भाव हम परमात्मा को सौंपते है जिसमें हमारी पीड़ायें होती है, हमारा दुख होता है, हमारी तकलीफे होती है, हमारी समस्यायें होती है, हम प्रणाम के बाद कातरदृष्टि रख अपने शत्रुओं के विनाश की भी कामना करते है जबकि हम भूल जाते है कि हमारा हमारे आराध्य के प्रति जो आर्शीवाद की कामना है वह किसी के अहित या सर्वनाश से निकलती है तो उसे सर्वात्मा जो सब में व्याप्त है क्योंकर पूरी करेगा? हमारा प्रणाम माता,पिता,भाई-बहिनों, परिवार, कुटुम्ब, रिश्तेदारों और मोहल्ले से शुरू हुआ ग्राम,नगर,राजधानी होता हुआ ईश्वर तक पहुॅचता है। प्रणाम के लिये एक घर-परिवार का खूबसूरत परदा है तो दूसरी ओर हमारे ही बनाये गये मंदिर ऑर मंदिर में विराजमान मूरतें है जिन्हें हम अपने नयनों से दर्शन कर उधार के शब्दों से प्रार्थना कर प्रणाम करते है,निश्चित ही हमारा अपने आराध्य के प्रति यह गुणानुवाद एक सीमाबद्ध लकीर खड़ी करता है,जैसे हमने साम्प्रदायिक भावनाओं के कभी न मिटने वाले झंझावत खड़े किये है। इसलिये प्रणाम के मूल तत्व को परिभाषित करने की अपेक्षा आत्मसात कर प्रणाम निवेदित और प्रार्थित होने से प्रणाम स्वयं प्रकाशवान हो आर्शीवाद की रश्मियॉ बिखेरेगा इसलिए प्रणाम सिद्ध हो सके इस दिशा में मनुष्य को प्रयास करना चाहिये ताकि प्रणाम की अखण्डता परिष्कृत होकर आर्शीवाद बन युगो-युगों तक एक मिसाल के रूप में स्मरण किया जाता रहे।

आत्‍माराम यादव पीव

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