प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर विपक्ष की अपरिपक्व राजनीति
ललित गर्ग-
रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और अधीर रंजन चौधरी एवं इंडिया गठबंधन के अन्य दलों ने शामिल नहीं होने का निर्णय लेकर जहां अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया है, वहीं भारत के असंख्य लोगों की आस्था एवं विश्वास को भी किनारे करते हुए आराध्य देव भगवान श्रीराम को राजनीतिक रंग देने की कुचेष्ठा की है। भले ही यह भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्चस्व का अनुष्ठान है, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठा देते हुए कांग्रेस को ऐसे राजनीतिक निर्णय लेने से दूर रहते हुए समारोह में भाग लेना चाहिए था। राम मंदिर के निमंत्रण को ठुकराना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और आत्मघाती फैसला है। ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस ने खुद अपनी जमीन को खोखला करने की ठान रखी है। विनाशकाले विपरीत बुद्धि! निश्चित ही कांग्रेस अब भारत की बहुसंख्यक जनता की भावनाओं को नकार रही है, वह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वास्तविकताओं और भावनाओं से पूरी तरह से कट गई है। इन दिनों कांग्रेस की ओर से लिए जा रहे हर फैसले भारत विरोधी शक्तियों को बल देने, कुछ वामपंथी चरमपंथियों को बढ़ावा देने, जातीयता एवं साम्प्रदायिकता की राजनीति को कायम रखने और शीर्ष पर बैठे नेताओं के आसपास के कुछ कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए है। कांग्रेस ने पिछले कुछ दशकों में अयोध्या में मंदिर के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया जो भगवान श्रीराम के अस्तित्व को नकार देने का ही द्योतक है। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम केवल हिन्दुओं का ही नहीं बल्कि राष्ट्र का उत्सव है। साथ ही देश के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गौरव का महा-अनुष्ठान है।
बाबर से लेकर औरंगजेब तक सभी मुगल आक्रांताओं ने तलवार के बल पर हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन ही नहीं कराया बल्कि हिन्दु मन्दिरों एवं आस्था के केन्द्रों को ध्वस्त किया था। श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ धाम को भी नहीं छोड़ा गया और हजारों मंदिरों को ध्वस्त कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवा दीं गयी। आजादी के बाद इस गौरवमय धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को पुनर्निर्मित करने का काम होना चाहिए था लेकिन कांग्रेस शासन ने संकीर्ण एवं स्वार्थ की राजनीति के कारण ऐसा नहीं होने दिया। आज भाजपा अपनी राष्ट्रीय अस्मिता एवं ऐतिहासिक भूलों को सुधारने काम कर रही है तो उसे राजनीतिक रंग देना मानसिक दिवालियापन एवं राष्ट्र-विरोधी सोच है। श्रीराम मंदिर राजनीति का विषय नहीं है बल्कि आस्था का विषय है। आस्था हर व्यक्ति की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है। राम लला साढ़े पांच सौ वर्षों से इसका इंतजार कर रहे थे। अब वह समय आ गया है, भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण हो चुका है और आगामी 22 जनवरी का दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज होने वाला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस दिन राम लला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में उपस्थित रहेंगे। श्रीराम भारतीय समाज के आदर्श पुरुष रहे हैं, भारत की राजनीति के लिये वे प्रेरणास्रोत है, उन्हें केवल भाजपा या आरएसएस का बताने वाले भारत की जनआस्था से स्वयं को ही दूर कर रहे हैं, स्वयं को हिन्दू विरोधी एवं राम-विरोधी होने का आधार ही मजबूत किया है। अच्छा होता निमंत्रण ठुकराने की बजाय इस समारोह में उपस्थित होकर श्रीराम के प्रति एवं असंख्य लोगों की आस्था का सम्मान करते। इस तरह एक जीवंत परम्परा को झुठलाने एवं ठुकराने के निश्चित ही आत्मघाती दुष्परिणाम होंगे।
श्रीराम राज्य तब भी और आज भी राजनीति स्वार्थ से प्रेरित ना होकर प्रजा की भलाई के लिए है। जनता की भलाई एवं आस्था को न देखकर कांग्रेस मुस्लिम एवं ईसाई वोटों को प्रभावित करने के लिये तथाकथित ऐसा निर्णय लिया है, जो उसकी हिन्दू विरोध मानसिकता का द्योतक है। कांग्रेस ने सदैव श्रीराम मंदिर आंदोलन से दूरी बनाकर रखी, मंदिर निर्माण की प्रक्रिया में रोड़े अटकाए और जिसने सर्वोच्च न्यायालय में यह हलफनामा दिया हो कि श्रीराम का कोई अस्तित्व नहीं है, श्रीराम एक काल्पनिक पात्र हैं, उस कांग्रेस के नेताओं से यह अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है कि वे श्रीराम मंदिर निर्माण के महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक प्रसंग में उत्साह, उमंग एवं आनंद के साथ शामिल होंगे? कांग्रेस के इस निर्णय से हिन्दू मन के कांग्रेसी नेता अवश्य ही आश्चर्यचकित एवं दुःखी हैं। कांग्रेस के भीतर से ही कई नेताओं ने खुलकर यह कहने की हिम्मत दिखायी है कि “मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम हमारे आराध्य देव हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि भारतभर में अनगिनत लोगों की आस्था इस नवनिर्मित मंदिर से वर्षों से जुड़ी हुई है। कांग्रेस के कुछ लोगों को उस खास तरह के बयान से दूरी बनाए रखनी चाहिए और जनभावना का दिल से सम्मान करना चाहिए।’’ यहां प्रश्न यह भी है कि जब मंदिर निर्माण को मंजूरी देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कांग्रेस ने स्वागत किया था, तो अब वे इसे केवल भाजपा का पार्टीगत मामला क्यों मान रही है? वास्तव में कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल केवल एक ही तरीके से भाजपा को इससे होने वाले राजनीतिक लाभ को कम कर सकते है और वह तरीका शालीनता से इस समारोह में भाग लेना और इस बात पर जोर देना है कि श्रीराम सभी के हैं, उन पर किसी एक पार्टी या नेता का एकाधिकार नहीं है। लेकिन एक तरफ न्यायिक प्रक्रिया का स्वागत करना और दूसरी तरफ उद्घाटन-समारोह का न्योता ठुकराना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली रणनीति है। भले ही कांग्रेस ने सारे नफा-नुकसान को देखकर अपनी धर्मनिरपेक्ष वाली वैचारिक छवि के साथ खड़ी रहने का फैसला लिया हो, लेकिन इस फैसले से सन्निकट खड़े लोकसभा चुनाव में उसे भारी नुकसान ही होगा। वैसे भी श्रीराम के बहुप्रतीक्षित धाम का निर्माण भाजपा का अपना निजी प्रोजेक्ट नहीं है, यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की निष्पत्ति है और इसीलिए यह एक गैर-राजनीतिक घटना है। मंदिर-निर्माण की देखरेख के लिए न्यायिक रूप से स्वीकृत ट्रस्ट का गठन किया गया था और वही उद्घाटन-कार्यक्रम की व्यवस्था कर रहा है।
भाजपा को श्रीराम मन्दिर बनने का राजनीतिक फायदा मिलना स्वाभाविक भी है। मंदिर निर्माण का बीड़ा भाजपा-संघ ने दशकों से उठा रखा था। शायद जब आडवाणी ने 1990 में रथ यात्रा शुरू की, तब इसकी प्रेरणा आस्था और राजनीति दोनों रही होगी, क्योंकि पार्टी को 1984 की अपमानजनक हार से उबारने के लिए एक मजबूत भावनात्मक मुद्दे की जरूरत थी। लेकिन आज इस भव्य मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा तब की जा रही है, जब पार्टी बहुमत से सत्ता में है और उसका नेतृत्व नरेंद्र मोदी जैसे करिश्माई नेता कर रहे हैं। यह स्वाभाविक ही है कि इसका लाभ भाजपा को मिलेगा, खासकर तब जब उद्घाटन चुनावों की पूर्व संध्या पर किया जा रहा है। लेकिन कांग्रेस एवं इंडिया गठबंधन दलों के रुख पर ताज्जुब है। वास्तव में कांग्रेस एवं विपक्षी दलों का जोर तो श्रीराम पर भाजपा के बराबर ही दावा करने पर होना चाहिए था। उन्हें पुरजोर तरीके से कहना चाहिए था कि मंदिर-निर्माण उन सभी लोगों की जीत है, जो श्रीराम में विश्वास करते हैं, ताकि उसका श्रेय लेने के भाजपा के उद्देश्य को कमजोर किया जा सके। दार्शनिक एवं राजनीतिक दृष्टि से भी ऐसा करना उचित ही होता। निमंत्रण ठुकराने के निर्णय के बाद कांग्रेस हिन्दुओं की सहानुभूति पूरी तरह खो सकती है। देखना होगा कि ‘राम के निमंत्रण’ को ठुकराने के कांग्रेस के निर्णय को हिन्दू समाज किस तरह लेता है। बाकी तो ‘होई वही जो राम रचि राखा’। विपक्षी गठबंधन में शामिल राजनीतिक दलों के नेता आज भी इस प्रकार के बयान इसलिए दे रहे हैं ताकि श्रीराम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा महाउत्सव में किसी-न-किसी प्रकार का विवाद खड़ा हो जाए। इसी संदर्भ में वे शंकराचार्यों की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति को लेकर वितंडावाद खड़ा करने का प्रयत्न कर रहे हैं, लेकिन हिन्दू समाज इन सब बातों को कुतर्क एवं विपक्षी नेताओं की हताशा-निराशा मानकर अनदेखा कर रहा है। हिन्दू आस्था एवं उजालों पर कालिख पोतने एवं उन्हें कमजोर करने की चेष्ठाओं के दिन अब लद चुके हैं, इसलिये कांग्रेस एवं इंडिया गठबंधन के दलों को अपनी राजनीति जमीन को सुदृढ़ करने के लिये अपनी संकीण एवं पुरातन सोच को बदलना चाहिए।