आज आर्यसमाज के लिए अपने अंत:करण में झांकने का समय है। अपने आपसे ही कुछ पूछने का समय है। प्रश्न भी टेढ़े- मेढ़े नही अपितु सपाट सीधे कि ‘ऋषि मिशन भटका या हम भटके, हमारी वाणी कर्कश हुई या हम रूखे फीके और नीरस हो गये? अंतत: हम ऋषि के राष्ट्र जागरण को एक दिशा क्यों नही दे पाए? बहुत से प्रश्न, इतने प्रश्न कि झड़ी लग जाए। अनुत्तरित प्रश्न और अनसुलझे रहस्यों से भरे प्रश्न, जो लोग महर्षि के आर्य समाज को किन्ही विशेष लोगों तक समेटकर देखते हैं वे संकीर्ण हैं, उनसे भी बड़े संकीर्ण वे लोग हैं जो आर्य समाज को एक अलग सम्प्रदाय घोषित करते हैं, या ऐसा कराने की मांग करते हैं, और उनसे भी बड़े संकीर्ण वे हैं जो आर्य समाजों को किन्ही जाति विशेष की बपौती बनाकर प्रयोग कर रहे हैं।
जिनकी छोटी सोच है , उनके छोटे काम।
खोट है जिनकी सोच में, होते हैं बदनाम।।
तनिक विचार करें 1875 में ऋषि दयानंद ने क्या कहा था और हम क्या कर बैठे ? ऋषि ने कहा था-”भाई हमारा कोई स्वतंत्र मत नही है। मैं तो वेद के अधीन हूं और हमारे भारत में पच्चीस कोटि (तब भारत की जनसंख्या 25 करोड़ थी और उस सारी जनता को ही ऋषि आर्य कह रहे हैं) आर्य हैं। कई-कई बात में किसी-किसी में कुछ-कुछ भेद है सो विचार करने से आप ही छूट जाएगा। (ऋषि कितने आशावादी हैं और साथ ही कितने सरल कि कुछ-कुछ भेदों को सम्प्रदाय का भेद नही मान रहे हैं) मैं संन्यासी हूं और मेरा कर्त्तव्य है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूं, इसके बदले में जो सत्य समझता हूं, उसका निर्भयता से उपदेश करता हूं। मैं कुछ कीर्ति का राही नही हूं। चाहे कोई मेरी निंदा करे या स्तुति करे, मैं अपना कर्त्तव्य समझ के धर्म बोध कराता हूं। कोई चाहे माने वा न माने, इसमें मेरी कोई हानि या लाभ नही हो।'
स्वामी जी महाराज ने अपने इस संक्षिप्त से संदेश में यह स्पष्ट किया कि वह सत्य को कहने से किसी भी स्थिति में पीछे हटने वाले नहीं हैं। निर्भीकता उनके भीतर कूट-कूट कर भरी थी और वही उनका सबसे बड़ा हथियार था। जिसके सामने अच्छे - अच्छे बलशाली लोग झुक जाते थे। उनके भीतर गजब का वीरता का भाव था। परंतु उन्होंने कभी भी अपनी इस वीरता को किसी गरीब के खिलाफ प्रयोग नहीं किया। उन्होंने बलशाली के विरुद्ध ही अपनी वीरता को प्रकट किया। गरीब, असहाय और मजबूर लोगों के अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने अपनी वीरता का प्रयोग किया। इस दृष्टि से वह सच्चे वीर निर्भीक साहसी योद्धा भी थे। स्वामी दयानंद जी महाराज हर उस निर्बल, असहाय और मजबूर व्यक्ति के अधिवक्ता बन गए जो बोल नहीं सकते थे। उनके द्वारा स्थापित किए गए आर्य समाज जैसे क्रांतिकारी संगठन ने भी सदा दुर्बल का पक्ष लेकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वह अपने ऋषि दयानंद के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए कृत संकल्पित है।
आज की बड़ी चुनौती
ऋषि अपना मत वेदाधीन रखकर चल रहे थे इसलिए उन्होंने कहा कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नही है। परंतु आज स्थिति शीर्षासन कर गयी है। बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज वेद विरूद्घ आचार – विचार और आहार – विहार ने आर्यों की गति और मति दोनों ही भंग कर दी हैं।
टेढ़ी राहों को अपनाना जीवन को गलत बनाना है,
संगत बुरी में रहना भी , शीश पकड़ पछताना है।
सत्संगति पाकर दुनिया में जो जीवन सरल बनाते हैं,
याद करे इतिहास उन्हें और गाता उनका गाना है।।
आज हम देख रहे हैं कि भारतवर्ष में ही नये -नये सम्प्रदाय , नये-नये मत और भांति - भांति के पाखण्ड नित पैर पसार रहे हैं और आर्य समाज सो रहा है। पहले से भी अधिक पाखंड फैलता जा रहा है। अज्ञानी लोग जब सड़कों पर नाचते गाते और अपने किसी देवता की सवारी निकालते देखे जाते हैं तो उन्हें देखकर बड़ा तरस आता है। कुछ पाखंडी और ढोंगी लोग उनकी इस अज्ञानता का और भोलेभालेपन का लाभ उठाते हैं और उन्हें सही रास्ता नहीं दिखाते। जबकि आर्य समाज के अधिकतर विद्वानों ने उन्हें किसी विपरीत मत का अनुयायी मानकर उन्हीं के दुर्भाग्य पर अकेला छोड़ दिया है।
आर्य समाज के अनेक लोग पदों पर गिद्घों की भांति लड़ रहे हैं, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के एक से अधिक धड़ों को देखकर लगता है संसार को आर्य नही अनार्य बनाने का बीड़ा हमने उठा लिया है। यही स्थिति अन्य आर्य समाजों की है। किसी भी पौराणिक को अपना शत्रु सम माना जाता है, उसके देवता को अपशब्दों में संबोधित करना हमने गर्व का विषय बना लिया है। इसलिए हमारे सम्मेलनों का नाम चाहे ‘विशाल आर्य सम्मेलन रखा जाए पर वहां उपस्थिति बहुत कम लोगों की ही होती है। वक्ता की वाणी में विनम्रता का अभाव होता है, सहज सरल और विनम्र भाव से अपनी बात को लोगों के हृदय में उतारने वाले ‘महात्मा आनंद स्वामी अब इस संस्था के पास न के बराबर हैं।
दयानंद ! मेरे देश का यह हाल हो गया,
छद्म – पाखंड और भी विकराल हो गया।
तेरे नाम की सौगंध ले कहता हूं तेरे सामने
तेरा मिशन इतिहास में , गुमनाम हो गया।।
गांव में जाकर आर्य सम्मेलन करने वाले आर्योपदेशक स्वामी भीष्म जी जैसे वेद प्रचारक भी अब नही हैं। गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना कर हजारों देशभक्तों की कार्यशाला आरंभ कर ‘हिंदू संगठन के निर्माता और नियामक स्वामी श्रद्घानंद भी नही रहे, अब तो हिंदू कहने-कहाने पर भी संग्राम आरंभ हो जाता है। ऋषि की विनम्रता नही ली और ना ही ऋषि का मण्डनात्मक चिंतन लिया। सत्यार्थ प्रकाश को विपरीत दिशा से पढऩा आरंभ कर दिया है और सारा बल खण्डनात्मक चिंतन पर लगा दिया गया है। जिससे लगता है कि आर्य समाज दूसरों की केवल निंदा करता है। इससे आगे कुछ नही करता और ना कुछ कर सकता है।
गोरक्षा और हिंदी आंदोलन इस समाज का मुख्य उद्देश्य था पर अब यह भी नही रहा लगता है। आर्य समाज के हिंदी आंदोलन को डी0ए0वी0 शिक्षा संस्थानों ने तथा गौ रक्षा आंदोलन को अन्य गोरक्षा दलों ने हड़प लिया है। लगता है कि सारा समाज (अपवादों को कोटिश: नमन करते हुए) महर्षि की कमाई खाने में ही लगा है, और अकर्मण्यता इस सर्वाधिक कर्मशील संगठन की रगों में व्याप्त हो गयी है।
महर्षि दयानंद जी महाराज ने कहा था-”आज यदि समाज से पुरूषार्थ कर परोपकार कर सकते हो, तो आर्य समाज स्थापित कर लो। इसमें मेरी कोई मनाही नही है, परंतु इसमें यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय हो जाएगा। मैं तो जैसा हूं अन्य को उपदेश देता हूं, वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष्य में रखना कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नही है और मैं सर्वज्ञ भी नही हूं।
इससे यदि कोई मेरी गलती आगे पाई जाए तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इसी को सुधार लेना। यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जाएगा और इसी प्रकार से बाबा वाक्यं प्रमाणम् करके इस भारत में नाना प्रकार के मतमतांतर प्रचलित होके, भीतर भीतर दुराग्रह रखके धर्मांध होके लड़कर नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश करके यह भारतवर्ष दुदर्शा को प्राप्त हुआ है। इससे यह भी (आर्य समाज) एक मत बढ़ेगा। मेरा अभिप्राय तो यह है कि इस भारतवर्ष में नाना मत मतांतर प्रचलित हैं वे भी सब वेदों को मानते हैं, इससे वेद शास्त्र रूपी समुद्र में यह सब नदी नाव पुन: मिला देने से धर्म ऐक्यता होगी और धर्म ऐक्यता से धार्मिक और व्यावहारिक सुधारणा होगी और इससे कला कौशल आदि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्य मात्र का जीवन सफल होके अंत में अपना धर्मबल से अर्थ, अर्थ से काम और मोक्ष मिल सकता है।’
महर्षि के मन्तव्य से हम कितने दूर चले गये ? बाप की कमाई खाने से निकम्मापन तो आता ही है, हममें परस्पर की शत्रुता भी बढ़ती है और आज यही हो रहा है।
दीपावली के पावन पर्व पर ऋषि के नाम का एक दीपक अपनी हृदय गुफा में जलाने की आवश्यकता है। वहां प्रकाश हो गया तो हम ऋषि को भी सच्ची श्रद्घांजलि दे सकेंगे और इस पावन प्रकाश पर्व को भी सही अर्थों में मना सकेंगे। ‘पिता की कमाई खानी छोड़ें अपनी कमाई पर भरोसा करें।
( 12 नवंबर 2023: दीपावली के प्रकाश पर्व के अवसर पर)
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक की “एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज” नामक पुस्तक से