सृष्टि काल से भारत शिक्षा, संस्कृति, संस्कार साधन का साधक रहा है और उक्त ज्ञान विज्ञान को संसार को देकर कृण्वन्तोविश्वार्यम् को चरितार्थ किया है। यह कार्य आदि ऋषि ब्रह्मा से लेकर गौतम ,कपिल, कणाद ,विश्वामित्र ,भृगु वेदव्यास ,गार्गी, सुलभा, मदाल्सा, मैत्रेयी, अनुसूया ,श्रुतावती, शिवा, द्रोपदी, उत्तरा, भोज पत्नी विद्यावती, महर्षि वेदव्यास, जैमिनी पर्यंत को पण्डित-पण्डिता शब्द से संबोधित किया है । महर्षि दयानंद ने श्री रामचंद्र और श्री कृष्णचंद्र को भी आप्त पुरुष के साथ पण्डित शब्द से अलंकृत किया है। पण्डित शब्द पडिँ गतौ धातु से पण्डा शब्द सिद्ध होता है। पण्डा इति ज्ञानं बुद्धिर इति । न्याय दर्शनकार भी कहता है। बुद्धि उपलब्धिर ज्ञानम् इत्यनर्थान्तरम् अर्थात बुद्धि ,उपलब्धि और ज्ञान तीनों ही शब्द एक ही अर्थ वाले हैं। जिसमें शुद्ध सात्विक बुद्धि हो, वही पण्डित है।
प्राचीन काल से ही शिक्षा दीक्षा देने वाले को पण्डित बोला जाता था। पचास वर्ष पहले तक भी विद्यालयों में विशेषकर प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाने वाले को पण्डित जी बोला जाता था। चाहे वह किसी वर्ण अथवा आज की जाति व्यवस्था से हो। सर या मास्साब का प्रचलन नहीं था। किसी समय पण्डित की इतनी महिमा थी कि उनको सभ्य समाज समादर की दृष्टि से देखता और मुक्त कंठ से प्रशंसा करता। वास्तव में पण्डित शब्द बुद्धिमान होने का द्योतक है। कश्मीर में किसी भी वर्ण एवं जाति का मनुष्य हो सभी अपने को पण्डित लिखते हैं। इस्लाम के खतरे से बचने के लिए एक संघ की स्थापना की। उसी संघ के कारण सब पण्डित बोलने लगे। आज भी यदि कोई व्यक्ति शुद्ध संस्कृत अथवा आर्य भाषा (हिंदी) बोलने लगता है तो उसे भी लोग कहने लगते हैं कि अरे! अब तो तू पण्डित हो गया है। अतः पण्डित ज्ञान और संस्कार का बोधक है।अर्थात जिसमें विद्या का पाण्डित्य हो, और विद्या के अनुकूल आचरण हो वही पण्डित है।
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्थआ नआपकर्षन्तइ से वौ पण्डित उच्यते।।
जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान हो, जो आलस्य और प्रमाद को छोड़कर सदा उद्योगी, सुख दुखादि का सहन,धर्म का नित्य सेवन करता हो जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ाकर अधर्म की ओर प्रवत्त न करे, वही पण्डित कहलाता है।
प्रवत्त वाक चित्रकथ ऊहवआन प्रतिभानवान।
आशु ग्रन्थस्थ वक्ता च य: स पण्डित उच्यते।।
जिसकी वाणी सब विधाओं में पारंगत, अत्यंत अद्भुत विद्याओं की कथाओं को करने, तर्क एवं वाक् शक्ति का विज्ञ, समस्त विद्याओं का शिरोमणि हो, ग्रन्थों का पाठक हो, और पढ़ाने वाला हो, वही पण्डित है। विदुर नीति महाभारत के अनुसार पण्डित शब्द की सुंदर व्याख्या की गई है यथा
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्री: स्तम्भों मान्यमानिता।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्चते।।
क्रोध, प्रसन्नता, अभिमान, लज्जा, धृष्टता और अपने को मान्य के योग्य समझना, ये दोष पुरुषार्थ से जिस व्यक्ति को नहीं हटाते, वही पण्डित कहलाता है अर्थात मान ,अपमान, क्रोध, हर्ष, सुख दुख में जो समभाव रहता है, वही पण्डित है। वाल्मीकि रामायण में श्री राम के बारे में लिखा है कि राज्याभिषेक और वन गमन पर राम के चेहरे पर समभाव थे।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति,शीतमुष्णं भयं रति:।
समृद्धिर समृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते।।
जिस व्यक्ति के कार्य को शीत और उष्ण, भय अथवा विष या सवित्त, सम्पत्ति का होना अथवा दरिद्रता का होना भी नष्ट नहीं करते वही पण्डित कहलाता है।
तत्वज्ञ: सर्वभूतानां योगज्ञ: सर्वकर्मणाम्।
उपायज्ञो मनुष्याणं नर: पण्डित उच्यते ।।
जो मनुष्य सब भूतों के तत्व को जानता है, जो योग के द्वारा सब कर्मों की कुशलता को जानता है और जो कर्म सिद्धि के उपायों को जानता है, वह नर पण्डित कहलाता है। जरा मृत्युं भयं व्याधिं यो जानाती सपण्डित:। भोज प्रबन्ध जरा, मृत्यु, भय और व्याधि को जानता है वही पण्डित है।
विप्रोऽपि भवनं मूर्खः मूर्खश्चेद् बहिरस्तु में।
कुम्भकारोऽपि विद्वान, सः तिष्ठतु पुरे मम।।
यदि विप्र होकर कोई मूर्ख है तो वह मेरे नगर (राज्य) से बाहर चला जावे, कुम्भकार होकर विद्वान है तो मेरी नगरी (राज्य) में निवास करे। विचार करने योग्य है कि भोज प्रबन्ध अर्थात राजा भोज के शासन में कितनी सुन्दर व्यवस्था, प्रबन्धन होगा।समाज को दिशा देने वाले का विद्या के अभाव में अवनयन (डिमोशन) और विद्या के धनी कुम्भकार आदि समस्त उद्यमियों का उन्नयन (प्रमोशन) की कैसी स्वस्थ परम्परा थी, अनुशासन था। स्यात् आज भी समाज एवं सरकार भोज प्रबन्धानुसार शासन सुराज्य करें तो वैदिक सनातन शिक्षा को बल मिलेगा।
विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।
विद्या विनय से संपन्न जो मनुष्य ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और चांडाल में एक जैसा देखता है वही पण्डित कहा जाता है – गीता
मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु, लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पण्डित।।
जो मनुष्य दूसरे की स्त्रियों को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान, सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान देखता है वही ज्ञानी है, वही पण्डित है।
विद्वानेव विजानाति विद्वज्जनपरिश्रमम्।
नहि वन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम्।।
विद्वान मनुष्य के परिश्रम को विद्वान लोग ही जान सकते हैं, मूर्ख नहीं जैसे वन्ध्या स्त्री प्रसव की कठोर पीड़ा को नहीं जानती।
स्वगृह पूज्यते मूर्ख: स्वग्रामे पूज्यते प्रभु:।
स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते।।
मूर्ख की पूजा अपने घर में होती है, धनवान (मालिक) दम्भी की पूजा ग्राम में होती है, राजा की पूजा अपने राष्ट्र (देश) में होती है परंतु विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है।
सततं मूर्तिमन्तश्च, वेदाश्चत्वार एव च।
सन्ति यस्याश्च जिव्हाग्रे, सा च वेदवती स्मृता।।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण १४।६४)
चारों वेदों के २०३८९ मंत्र विदुषि वेदवती के जिव्हाग्र व कण्ठस्थ थे इसी से वेदवती के नाम से पुकारा जाता था । वह तो पण्डितों की प्रमुख पण्डिता: थी। ऐसी एक नहीं, अनेक ब्रह्मवादिनी पण्डिता: थी जिन्होंने अपने कालखण्ड में विदेह राज महाराज जनक को सुलभा ने, महर्षि याज्ञवल्क्य को गार्गी ने, पं मण्डन मिश्र की पत्नी पं उभय भारती ने आद्य शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया था। ये सब ब्रह्मवादिनी वेदवती विदुषियां थी। आज भी उन्हीं के सुपथ पर चलकर आधुनिक युग की ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं महापण्डिता महिलाएं वैदिक धर्म का प्रचार करती हुई मिल जाएगीं। महापण्डिता प्रज्ञा देवी पौराणिक और आर्य जगत में कौन नहीं जानता, पाखण्ड पोप नगरी काशी में कोई भी संत, महन्त, पण्डा, पुजारी पौराणिक सन्यासी कभी शास्त्रार्थ हितार्थ साहस नहीं कर सका। ऐसी ही विदुषी आज की गार्गी और सुलभा की तरह हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। आज भी आचार्या सूर्या देवी, व्याकरण सूर्या नन्दिता शास्त्री, पं धारणा जी, पं प्रियंवदा, आचार्य सुकामा, आचार्य सुमेधा, आचार्य पवित्रा भी कन्या गुरुकुलों में पण्डिता बनाने में अनवरत साधनारत हैं। गुरुकुलीय शिक्षा ही मानव निर्माण की प्रयोगशालाएं हैं। इसी के साथ स्वामी रामदेव भी पतंजलि योगपीठ के माध्यम से विशेष प्रशिक्षण देकर पण्डित और पण्डिता: बनाने में योगदान दे रहे हैं।
महर्षि दयानंद सरस्वती के प्रादुर्भाव के कारण ही सनातन संस्कृति को सम्बल मिला है, उन्हीं के कारण नारी उत्थान में शिक्षा संस्कार में जो अतुलनीय परिवर्तन हुआ है। उन्हीं का उद्घोष ” नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” के कारण समाज और संस्कारों में आज जागरूकता आयी है। महिलाओं को पण्डिता: बनाने में विश्व पटल पर जो कार्य दयानन्द ने किया है कोई अन्य महापुरुष नहीं कर सका। वे नारी उत्थान के सबसे बड़े अधिवक्ता थे। आइये हम सब महर्षि दयानन्द के सुपथ पर चलकर अच्छे पण्डित पण्डिता: पुरोहित बनाने का संकल्प लें क्यों कि समाज की दिशा और दशा देने का कार्य पण्डित ही करता है।
संश्रुतेन् गमेमहि।
सादर शुभेच्छु
गजेन्द्र आर्य
राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता, पूर्व प्राचार्य
जलालपुर (अनूपशहर), बुलंदशहर -२०३३९०
उत्तर प्रदेश
चल दूरभाष – ९७८३८९७५११
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