मकर संक्रांति*
Dr DK Garg
मकर संक्रांति भारत का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रांति (संक्रान्ति) पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है।तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। किन्तु मकर संक्रान्ति उत्तरायण से भिन्न है। यह पर्व बहुत चिरकाल से चला आ रहा है। यह भारत के सब प्रांतों में प्रचलित है अतः इसको एकदेशी न कहकर सर्वदेशी कहना चाहिए। सब प्रांतों में इसके मनाने की परिपाटी में भी समानता पाई जाती है।
प्रचलित पौराणिक कथा:
इस पर्व की एक कथा भी प्रचलित है कि भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं और शनि मकर राशि के स्वामी है। इसलिए इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। पवित्र गंगा नदी का भी इसी दिन धरती पर अवतरण हुआ था, इसलिए भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार मकर संक्रांति के दिन की गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होते है सागर में जा मिली थीं। इसीलिए आज के दिन गंगा स्नान का महत्व भी है।
प्रचलित कथानक का विश्लेषण:
इस कथा में अलंकार की भाषा का प्रयोग हुआ है। जिसके मुख्य शब्दो पर विचार करना चाहियेे।
पौष मासः भरी सर्दियों के अंतिम माह को पौष मास कहते हैं।
1.भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने गएः इसका तात्पर्य ये है की लंबी चलने वाली सर्दियों में इस माह से धरती पर पड़ने वाली शनैः शनैः सूर्य की किरणें पिछले माह से ज्यादा तीव्र और मोहक और लाभदायक होती है।
स्वामी दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में ईश्वर के सौ से ज्यादा नामो की व्याख्या की है जिनमे ईश्वर का गुणों पर आधारित एक नाम शनि भी और सूर्य भी है और हम सभी ईश्वर के पुत्र है। इस कथा में उपमा देकर कहा है की सूर्य भगवान (ईश्वर) अपने पुत्र शनि (प्राणी) से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं‘‘।
2.शनि मकर राशि के स्वामीः इस वाक्य में भी अलंकार की भाषा का प्रयोग हुआ है। मकर में कुछ विशेष गुण होते है,और मकर सूर्य की मीठी धूप से ऊर्जा ग्रहण करता है, इसी प्रकार छोटा सा दिखने वाला मानव भी मकर की भाति सूर्य की ऊर्जा पाकर तेजस्वी बनता है।
3. मकर संक्रांति के दिन गंगा जी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होते है हुए सागर में जा मिली थीं इस वाक्य का भावार्थ है कि पहाड़ो पर सर्दी के कारण जमी हुई बर्फ पिघलने लगती है और नीचे की तरफ नदियों द्वारा प्रवाहित होती हुई गांव और शहरों से निकलती हुई सागर में जा मिलती है।
4. आज के दिन गंगा स्नान- पौराणिक कथानक में अलंकार की भाषा के प्रयोग के कारण अज्ञानतावश इस दिन गंगा स्नान का प्रचलन शुरु हुआ। लेकिन ये हमारी अज्ञानता का सूचक है।भरी सर्दी में गंगा स्नान से कोई मुक्ति नहीं मिलने वाली है उल्टे बीमारी का खतरा ही है।
कबीर दास सदियों पहले कह गये थे:-
नहाए धोए क्या भया, जो मन मैल न जाय।
मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जय।।‘‘
अर्थात् मछली हमेशा जल में रहती है, लेकिन इतना धुलकर भी उसकी दुर्गंंध समाप्त नहीं होती। उसी तरह, अगर मन ही मैला है तो शरीर को नहलाने और स्वच्छ करने से क्या हासिल होगा ? आवश्यक है कि अंदर के विकार और कलुष को मिटाया जाये।
सर्दियाँ समाप्त होने के समय शरीर से चर्म रोग होने की सम्भावना अत्यधिक होती है, और इस समय पहाड़ो से रिसने वाला शीतल जल औषधि युक्त होता है जिसमे नहाने से चर्म रोगो में लाभ मिलता है इसलिए आज से निरंतर स्नान की सलाह दी जाती है।
मकर संक्रान्ति पर्व मनाने का वैज्ञानिक कारण:
पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करने की दिशा बदलता है, थोड़ा उत्तर की ओर ढलता जाता है। इसलिए इस काल को उत्तरायण भी कहते हैं।
प्रभु के नियम से हमारी पृथ्वी सूर्य को केन्द्र बनाकर उसकी निरन्तर परिक्रमा कर रही है। यह पृथ्वी जितने समय में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है उतने समय को एक सौर वर्ष कहा जाता है। सूर्य की जिस वर्तुलाकार परिधि पर पृथ्वी परिभ्रमण करती है। इस परिक्रमा के घेरे के १२ भाग में बाटकर कल्पित कर लिये गये हैं। उन १२ भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन व कर्क आदि रखे गये हैं। ये नाम घेरे रूप क्रान्तिवृत्त के १२ चित्रों पर आकाशस्थ नक्षत्रपुञ्जों से मिलकर बनी हुई, उनसे कुछ मिलती जुलती आकृति वाले पदार्थों के नाम पर रख लिये गये हैं।जैसे कि नक्षत्रपुञ्जों से बनी हुई कोई आकृति यदि मकर से मिल रही है तो उस भाग को मकर कहते हैं। इन आकृतियों वाले १२ भागों को राशि कहते हैं। जब पृथ्वी इस क्रान्तिवृत्त पर एक राशि से दूसरी राशि में गति करती है तब उसे संक्रान्ति कहते हैं। इसमें मकर राशि की संक्रान्ति होने से यह पर्व मकर संक्रान्ति कहलाता है। मकर संक्रान्ति होते ही पृथ्वी वासियों को सूर्य ६ मास तक उत्तर की ओर उदय होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगता है। ६ मास के इस काल को उत्तरायण काल बोलते हैं। इसी प्रकार कर्क राशि की संक्रान्ति से दक्षिणायन आरम्भ हो जाता है। सूर्य के प्रकाशाधिक्य के कारण उत्तरायण को महत्त्व प्राप्त है।उत्तरायण काल के छः मास में सूर्य का राज्य विशेष होता है, इसलिये उत्तरायण प्रकाश है, ज्ञान है।
ज्योतिष के आचार्य बतातें हैं कि उत्तरायण का आरम्भ मकर संकान्ति के दिन से पहले हो जाता है परन्तु मकर संक्रान्ति पर्व पर ही दोनों पर्व एक साथ मनाये जाने की परम्परा चली आ रही है। भविष्य में इन्हें अलग अलग तिथियों पर मनायें जाने पर विचार भी किया जा सकता है। जो भी हो इस पर्व को मनायें जाने का मुख्य उद्देश्य मकर संक्रान्ति का ज्ञान कराने सहित 6 माह की अवधि वाले उत्तरायण के आरम्भ से है जिससे लोग हमारे पूर्वजों के गणित ज्योतिष विषयक ज्ञान व रुचि से परिचित हो सकें।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। जनावास, जंगल, वन, पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा रहा है, चराचर जगत शीतराज का लोहा मान रहा है, हाथ पैर से सिकुड़ जाते है, “रातों जानु दिवा भानुः” रात्रि में जंघा और दिन में सूर्य,किसी कवि की यह उक्ति दोनों पर आजकल ही पूर्णरूप से चरितार्थ होती है। दिन की अब तक यह अवस्था है कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्ताचल के गमन की तैयारियाँ आरम्भ कर देते है। मानो दिन रात्रि में लीन हुआ जाता है। रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपनी देह बढ़ाती ही चली जाती थी। अन्त में उसका भी अन्त आया। आज मकर संक्रान्ति के मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया। आज सूर्यदेव ने उत्तरायण में प्रवेश किया। इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रंथ सर्वशेष वर्णन किया गया है। वैदिक ग्रंथों में उसको ‘देवयान’ कहा गया है।
आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन पर शर-शैय्या पर शयन करते हुए प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी। ऐसा प्रशस्तियाँ किसी पर्वता (पर्व बनने) से कैसे वंचित रह सकता था।
संक्षेप मे जीवन को उत्तरायण की ओर ले चलने जाने का प्रेरक पर्व मकर संक्रान्ति को माना गया है। अतः सृष्टि की मकर संक्रान्ति रूप घटना से प्रेरित होकर जीवन के उत्तरायण की ओर हम भी संक्रान्ति करें। यह संकल्प ग्रहण करना ही पर्व की पर्वता है।
मकर संक्रान्ति पर्व पर पतंग उड़ाने का वास्तविक अर्थ:
यहाँ भी एक भ्रम है कि पतंग का मतलब क्या है ? जो पतंग धागे से बंधकर आकाश कि तरफ उडा़ते है यह या कुछ और ?
यजुर्वेद मे पतंग शब्द के साथ एक मन्त्र आता हैः-
त्रि शद्धाम विराजति वाक् पतङ्गाय धीयते प्रति वस्तोरह द्युभिः ।।
(यजुर्वेद का तृतीय अध्याय मन्त्र संख्या 8)
कहते हैं कि इस मन्त्र के जाप पाठ से सिद्धि मिलती है और इसीलिये मकर संक्रान्ति के दिन पतंग उड़ाई जाए, यानी कि इस मन्त्र का जाप करें।
वेद मन्त्र में आये पतंग पद का वास्तविक भावार्थ:
उत्तरः-महर्षि दयानन्द जी ने इस पतङ्गाय पद का अर्थ किया है ‘‘पतति गच्छतीति पतङ्गस्तस्मा अग्नये (धीयते) धार्यताम्‘‘ अर्थात् चलने चलाने आदि गुणों से प्रकाशयुक्त अग्नि के लिए, पतन-पातन आदि गुणों से प्रकाशित एवं गतिशील अग्नि के लिए।
मनुस्मृति के श्लोक (1/21) के अनुसार “संसार की सारी वस्तुओं के नाम, कर्मों के नाम का मूल-आदि-स्रोत वेद है” ।
वेद में से शब्द लेकर सारे पदाथोर्,ं वस्तुओं, स्थानों का नामकरण हुआ क्योंकि उसमें वह समान गुण था अथवा है।वर्त्मान में जो पतंग दिखती या उड़ती हैं उनका नाम इसलिए है क्योकी उसमें निम्न गुण हैंः-
१)चलने चलाने का गुण एवं पतन-पातन आदि गुण
२)गतिशील
आज के दिन पतंग उड़ाने का वास्तविक भाव यह है कि मकर संक्रान्ति के दिन जब नई फसल के बीज प्रस्फुटित होते ही, धरती पर उत्तरायण का खुशनुमा मौसम आने वाला हो तो हम अपनी भावी कार्यों की योजना बनाये और उसको गतिशीलता प्रदान करने का संकल्प लें। हमारी योजनाये और विचारों का प्रवाह भी ऐसा हो जो आकाश की ऊंचाइयों को छुए। मनुष्य के ऊंचा उठने की सीमा आकाश जैसी उचाॅई तक होनी चाहिए। दृढ़ संकल्प ही उन्नति का आधार है। नए और रचनात्मक कार्यों का संकल्प लेकर उन पर क्रियाशील होने का संकेत है यह एक। यह अच्छा और महत्वपूर्ण संदेश है।
पतंग उड़ाते रहो ! ईश्वर साथ है, हर पल मदद करने हेतु। वर्तमान में इसका अर्थ कागज की पतंग से कर दिया है। ‘‘पतंग‘‘ आप उड़ा रहे हैं तो इसका वास्तविक अर्थ समझें कि यह पतंग शब्द वैदिक है।
प्रश्नः जब ‘‘दक्षिणायन‘‘ लगता है तब उत्तरायण की तरह उसे क्यों नहीं मनाया जाता?
इसका उत्तर है जैसे कि रात की अपेक्षा दिन कार्य करने के लिए उत्तम है वैसे ही शास्त्र कारों और उपनिषद कारों ने भी दक्षिणायन की अपेक्षा उत्तरायण को विभिन्न प्रकार के संस्कारों को संपन्न कराने के लिए उपयुक्त माना है।
मकर संक्रान्ति पर्व की वास्तविक तिथि का विश्लेषण-
ये पर्व हर वर्ष १४ जनवरी को मनाते है जबकि उत्तरायण तो १ पौष को प्रारंभ हो जाता है। यंत्र महल (जन्तर मंतर) उज्जैन के भूतपूर्व अधीक्षक सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पुरुषोत्तम शास्त्री के अनुसार मकर संक्रान्ति १ पौष को ही मनानी चाहिए जब हेमन्त ऋतु का अंत और शिशिर का प्रारंभ होता है। आयुर्वेद की मान्यता के अनुसार भी शिशिर ऋतु से उत्तरायण का आरंभ बताया है।विधि की क्या विडम्बना है जिस देश ने समस्त विश्व को ज्योतिष् का ज्ञान दिया , वह स्वयं ज्योतिष् वेदाङ्ग की अवहेलना कर रहा है।
पर्व विधि:
भारत के सभी प्रान्तों में अपने अपने तरीके से इस पर्व पर शीत के प्रभाव को दूर करने के उपाय किये जाते दिखाई देते हैं। वैद्यक शास्त्र ने शीत के प्रतीकार के लिए तिल, गुड़, तेल, तूल (रूई) का प्रयोग बताया है। तिल इन तीनों में मुख्य हैं। पुराणों में तिल के महत्व के कारण कुछ अतिश्योक्ति कर इसे पापनाशक तक कह दिया गया।
किसी पुराण का प्रसिद्ध श्लोक है ‘तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमो तिलोदकी। तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला पापनाशनाः।।
अर्थात् तिल-मिश्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन औरतिल का दान ये छः तिल के प्रयोग पापनाशक हैं। मकर संक्रान्ति के दिन अक्सर तिल और गुड़ के लड्डू बनाकर दान किये जाते हैं और ईष्ट मित्रों में बांटे जाते हैं। तिल को कूट कर उसमें खांड मिलाकर भी खाते हैं। यह एक प्रकार से मिष्ठान्न की भांति रुचिकर होता है।
महाराष्ट्र में इस दिन तिलों का ‘तिलगुल’ नामक हलवा बांटने की प्रथा है और सौभाग्यवती स्त्रियां तथा कन्याएं अपनी सखी-सहेलियों से मिलकर उन को हल्दी, रोली, तिल और गुड़ भेंट करती हैं। यह पर्व प्राचीन भारत की संस्कृति का दिग्दर्शन कराता है जिसका प्रचलन स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर भी किया गया है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने ईष्ट मित्रों को भेंट देने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वत्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।
इस दिन खिचड़ी का सेवन करने का भी वैज्ञानिक कारण है। खिचड़ी पाचन को दुरुस्त रखती है। अदरक और मटर मिलाकर खिचड़ी बनाने पर यह शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है और बैक्टीरिया से लड़ने में मदद करती है।
इस दिन यज्ञ करने का भी विधान किया गया है।यज्ञ करने से वातावरण दुर्गन्धमुक्त होकर सर्वत्र सुगन्ध का प्रसार करने वाला होता है।यज्ञ के गोघृत व अन्न-वनस्पतियों की आहुतियों का सूक्ष्म भाग वायुमण्डल को हमारे व दूसरे सभी के लिए सुख प्रदान करने में सहायक होता है। आर्यपर्व पद्धति में यज्ञ करते हुए हेमन्त और शिशिर ऋतुओं की वर्णनपरक ऋचाओं से विशेष आहुतियों का विधान किया गया है जिससे यज्ञकर्ता व गृहस्थी उनसे परिचित हो सकें।
• सामूहिक यज्ञ -सुबह और सायकाल को करें।
• यज्ञ सामग्री में तिल और गुड़ जरूर मिलाये।
• खिचड़ी का सेवन करें और खिचड़ी बनाने का सामान जरूरतमंदों में वितरित करे।
• जो लोग सर्दी के कारण व्यायाम और स्नान आदि नहीं कर रहे है वे अब स्नान और व्यायाम शुरु कर दे।