वैराग्य―साधना
यह वैराग्य क्या है? महर्षि पतञ्जलि महाराज ने वैराग्य की परिभाषा करते हुए योगशास्त्र में लिखा है―
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।
―(योग० १/१५)
अर्थात्― देखे और सुने हुए विषयों की तृष्णा का भी मन में न रहना वैराग्य कहलाता है।
जब सांसारिक विषयों की मन में इच्छा भी नहीं रहती तो मनुष्य का ध्यान परमात्मा की ओर चलता है। यही वैराग्य मनुष्य के लिए निर्भयता का कारण बन जाता है। यह बहुत ऊँची अवस्था है। इस तक सभी व्यक्ति नहीं पहुंच सकते। हाँ, यह सोचकर कि संसार के सभी पदार्थ नाशवान् हैं और हमसे एक-न-एक दिन छूटने वाले हैं, यदि व्यक्ति कुछ वैराग्य-भाव मन में धारण करते हुए प्रात:-सायं ईश्वर का चिन्तन करता रहे तो वह निर्भयता की ओर अग्रसर होता रहता है।
अध्यात्मवाद पर चलने वाला व्यक्ति ही वैराग्य धारण कर सकता है। जबकि भौतिकवाद के मार्ग पर चलने वाले लोगों ने केवल प्रकृति और उसके परिणाम को ही स्वीकार किया। आंखें जिसे देखती हैं, कान जिसे सुनते हैं, जिह्वा जिसका रस लेती है, त्वचा जिसका स्पर्श करती है, भौतिकवादी के लिए यही सत्य है। इसके विपरित जो कुछ आँखों से दिखाई नहीं देता, जो नासिका से सूंघा नहीं जाता, जिसका जिह्वा से रस नहीं लिया जाता―यह सब असत्य है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
इसी आधार पर इन्होंने आत्मतत्त्व को ठुकरा दिया। उनकी परिभाषा केवल सांसारिक पदार्थों पर ही ठीक उतरती है। वे संसार और सांसारिक पदार्थों को ही सत्य मानते हैं। भूमि, सम्पत्ति, धन, स्त्री, और सन्तान तक ही इनकी दृष्टि रहती है। केवल शरीर, केवल दृश्यमान जगत् और केवल वर्तमान जीवन ही उनके निकट परम सत्य होते हैं।
प्रश्न यह है कि मनुष्य भौतिकवादी दृष्टिकोण अपनाता क्यों है? कठोपनिषद् के ऋषि ने इसका विवेचन करते हुए लिखा है―
पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद् धीर: प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।।
―(कठो० ४/१)
भावार्थ― अपनी ही सत्ता में स्थित रहने वाले परमात्मा ने इन्द्रियों को वाह्य विषयों पर गिरने वाला बनाया है, इसलिए मनुष्य वाह्य विषयों को देखता है, अन्तरात्मा को नहीं। कोई ध्यानशील और विवेकी पुरुष ही मोक्ष की इच्छा करता हुआ ह्रदयाकाशस्थ आत्मा को देखता है।
वाह्य विषयों के पीछे दौड़ने वाले व्यक्तियों के लिए उपनिषत्कार ने कहा है―
पराच: कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा अमृतत्त्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते ।।
―(कठो० ४/२)
भावार्थ― जो अज्ञानी पुरुष वाह्य विषयों के पीछे दौड़ते हैं वे मृत्यु के फैले हुए जाल में फँसते हैं और ज्ञानी पुरुष निश्चय ही मोक्ष को जानकर संसार के अनित्य पदार्थों में सुख को नहीं चाहते।
साभार―
[“वेद सन्देश” पुस्तक से,लेखक-प्रा. रामविचार एम.ए.]