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डॉ. सुधाकर आशावादी – विभूति फीचर्स
नए साल में सूर्योदय नई बात नहीं है, जैसे रोज सूर्य निकलता है, वैसे ही निकलेगा, प्रकृति में कुछ खास बदलाव खास दिन नहीं आएगा, मगर एक बदलाव जो देखने को मिलेगा, वह है देश की युवा पीढ़ी की उम्मीदों में बदलाव, उसके चिन्तन में प्रफुल्लता, नए साल का उत्सव मनाने की नई उमंग, धमा चौकड़ी। कुछ तो बदलना ही है, समय के साथ। खास दिन कुछ नया चिन्तन होना ही चाहिए, लगना चाहिए कि कुछ बदल रहा है। यदि ऐसा नहीं लगा तो नया साल मनाने के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग सकता है।
नए साल में नई सोच क्रान्तिकारी होनी चाहिए, हर कोई ऐसा मानता है। किन्तु इस मानने की प्रक्रिया में वह स्वयं के यथार्थ को याद नहीं रख पाता कि वह कहां है किस मुकाम पर खड़ा है, उसका सफर कहां से शुरू हुआ है और उसे कहां तक जाना है। उसकी मंजिल क्या है, उसकी तैयारी कितनी है, सफर को सुगम बनाने के लिए उसने कौन-कौन से उपाय कर लिए है।
कौन नहीं जानता कि नव वर्ष अतीत वर्तमान और भविष्य के मध्य चिन्तन बिन्दु है। सिर्फ चिन्तन बिन्दु नहीं, बल्कि वह परिवर्तन बिन्दु है जहां खड़े होकर यह विचारना अनिवार्य प्रतीत होता है कि हम विचारें कि हम क्या थे क्या है और क्या होंगे अभी। यानी अतीत में अपने अस्तित्व का बोध हमें रहना चाहिए कि अतीत में किस प्रकार के कार्य हमारे द्वारा किए गए। अतीत के आधार पर ही वर्तमान की पहचान होती है और वर्तमान की बुनियाद पर ही हमारा भविष्य निर्भर रहता है। वर्तमान की समस्याओं का समाधान करते हुए ही हमें भविष्य का ताना-बाना बुनना चाहिए।
हमारे एक मित्र है। परदे के पीछे रहकर ही कार्य करने में भलाई समझते हैं। चिन्तन की दिशा स्पष्ट है, वह सकारात्मक रहते हैं, नकारात्मक प्रवृत्तियां उनसे कोसों दूर हैं। फिर भी वह किसी न किसी अज्ञात आशंका से त्रस्त रहते है, स्वयं में ही सिमटते हैं, कभी डरते हैं। मैंने पूछा- मित्र ऐसा क्यों है, खुलकर बोलिए, खुलकर रहिए, आखिर डर क्यों रहे है जनाब, कोई तो दीजिए जवाब? मित्र कुछ सकुचाए, फिर बोले- ‘तुम नहीं समझोगे, समाज में जीवन यापन इतना सरल नहीं। तुम फक्कड़ बनकर घूमते हो, तो कोई तुमसे पंगा क्यों ले। मैं डिपार्टमेन्ट की शिकायत संस्कृति का शिकार हूं, तनिक सा उछलकर चला नहीं कि शिकायत हो जाएगी। मैं जहां हूं, वहां मुझे नहीं टिकने दिया जाएगा। सो मेरी यही मजबूरी संकोची स्वभाव में रहना। छिप-छिप कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना मेरी मजबूरी है। उनका दर्शन मुझे कुछ समझ आया, कुछ ही नहीं। मुझे समझते देर न लगी कि लोग अपने दुख से दुखी नहीं है, बल्कि औरों के सुख से दुखी हैं। जिसका पूर्ण आभास मित्र महोदय को है, सो वे संभल कर चलने में ही भलाई समझते हैं।
एक राजनेता मित्र से हमने पूछ लिया- भई नए साल में क्या कार्यक्रम है। वह तपाक से बोले, हमारे लिए हर दिन नया दिन है और हर रात नई रात है। मैं सकपका गया, बोला- दिन तो नया समझा जा सकता है, पर रात की बात कहां से आ गई, तुम अपनी रात वाली आयु तो गंवा चुके हो। गृहस्थाश्रम की अवस्था पूर्ण करके वानप्रस्थ आश्रम की शरण में जा चुके हो, फिर नई रात कैसी? वह खिलखिलाए ठठाकर हंसे और बोले- ‘तुम भी नासमझ हो, कुछ नहीं समझते, जमाना बदल गया है, डबल शिफ्ट में काम चलता है, कौन से ऐसे काले काम हैं, जो दिन के उजाले में नहीं होते, क्यों? वह बोले- ‘हमारा यही तो रोजगार है, राजनीति इसीलिए तो बैठे बिठाए बिना धन लगाए किया जाने वाला व्यापार है, हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा। बस इतना ख्याल रखना पड़ता है कि गिरगिट के आचरण का अनुकरण करते रहो, जिधर सत्ता घूमती रहे, उसी के रंग में रंगते रहो। सो मैं सत्ता का सियासती आदमी हूं जिधर भी सत्ता हुई, उधर ही मुंह कर लिया, मौज ही मौज है। कभी सुप्रीमो के जन्मदिन के नाम पर उगाही करता हूं, कभी तबादला कराने के नाम पर। कभी व्यापारियों को कोर्ट परमिट के नाम पर। मेरे कुरते की झकाझक सफेदी नहीं देखते क्या, मेरे कुरते का कलफ कितना अकडऩ दिखाता है, मुझे बिना किसी पद पर रहते हुए भी कितना असरदार दिखाता है। अरे मेरा खर्चा तो यही कलफ लगा कुरता चलवाता है।
मैं मित्र महोदय की ओर घूरता ही रह गया, उनका गणित मुझे बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर गया। नौकरी, मास्टरी, व्यापार सभी बौने नजर आने लगे, मैं बोला- ‘धन्य हो मित्र, तुमने मुझे भी नए साल के लिए नई सोच प्रदान कर दी। (विभूति फीचर्स)

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