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भारतीय संस्कृति

श्रीराम का कर्तव्य पथ

त्रेता में स्वर्गिक वातावरण व्याप्त था। हर वृद्ध को पूजा व सत्कार के योग्य समझा जाता था और हर नारी को देवी मानकर पूजा जाता.राम केवल वाल्मीकि रामायण के ही नायक नहीं अपितु आदि आर्यावर्त को एक सूत्र में जोड़ने वाली आल्हादक शक्ति हैं। उनका प्रेरणादायक और विलक्षण व्यक्तित्व आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि आज भी भारतीय जनमानस की आस्था व ब्रद्धा के केंद्र मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम वैदिक संस्कृति के ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं। जिनके आलोक से समस्त भूमंडल प्रकाशित हो रहा है। इक्ष्वाकु कुलभूषण, दशरथ नंदन, प्रजावत्सल श्रीराम का जीवन हम भरतवंशियों के लिए आदर्श व प्रेरणास्पद है।

परमात्मा ने वेद वाणी द्वारा मानव को जिन व्रतों व नियमों का पालन करते हुए मयादित जीवन जीने का आदेश दिया है और राम ने उन सभी का पूर्णतया पालन किया था। संध्या, उपासना, अग्निहोत्र उनको दिनचर्या में सम्मिलित था। उनके मयार्दा पुरुषोत्तम स्वरूप के कारण ही उनको यशोगाथा निर्मल गंगा को भाति युगों-युगों से भारतीय समाज में प्रवाहित होती चली आ रही है। उन्होंने उत्तर से लेकर दक्षिण समुद्र तक ऐसे आर्य साम्राज्य की स्थापना की थी जहां ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की गयी थी कि सभी सुखी रहते थे, निरोग रहते थे, न कोई चोर था न दस्यु था। न कोई भ्रष्टाचारी था न व्यभिचारी था।उस काल में ऐसा निर्मल व प्रदूषण रहित वातावरण था कि न तो किसी को व्याधियां सताती थी और न ही किसी की अकाल मृत्यु होती थी, न ही किसी को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ता था। उस राज्य में भाई-भाई में प्रीति होती थी, पति-पत्नी में प्रेम रहता था। संतान माता-पिता व गुरुजनों की आज्ञापालक थी। घर-घर में यज्ञ की धूम उठती थी और वेद मंत्रों की गूंज सुनाई पड़ती थी। वहां कभी किसी में न तो कलह होती थी,न ही स्वार्थ अथवा लोभ पनपता था हर परिवार व समाज खुशहाल था। श्रीराम प्राणियों के अंतःकरण में प्रतिपल अमृत का संचार करने वाले दिव्य मंत्र हैं। वह पापियों को पाप से मुक्ति दिलाने वाले निर्मल स्रोत हैं। श्रीराम भारतीय संस्कृति का आदि स्रोत हैं। सनातन धर्म के संस्थापक तथा मयार्दाओं के सूत्रधार है। वे त्याग, तपस्या, दया, सहिष्णुता को साकार मूर्ति हैं। श्रीराम मानवीय संबंधों के नियामक हैं। प्राणियों में कर्तव्यबोध जाग्रत करने वाले प्रथम नियोक्ता हैं। तथा सांसारिक एष्णाओं से मुक्त रहने वाले निर्विकारी, निर्लिप्त आप्त पुरुष हैं।

श्रीराम पतित पावन हैं परम आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भ्राता और एक पत्नी व्रतधारी पति तथा लोकरंजक राजा हैं। मयार्दा पालक, राष्ट्र और संस्कृति के उद्धारक क्षात्र धर्म की तेजोमय मूर्ति, राष्ट्र का गौरव, सत्यप्रतिज्ञ व जितेंद्रिय है, क्रोधञ्जयों हैं। अपने इन्हों उदात्त गुणों व उत्कृष्ट जीवन दर्शन के कारण वे आज भी जनमानस के मध्य जीवन्त है, विख्यात हैं।

संगत और संतुलित जीवन व्यतीत करते हुए निजी सुखों को त्यागकर न्याय और सत्य का निर्वाह करने वाले मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम की सहनशीलता और धैर्य अनुकरणीय है। राज्य त्यागकर दुर्गम वनों में सन्यासी जीवन बिताना कितना कठिन होता है फिर भी राम ने इसे सरल और सहज रूप में स्वीकार किया। उनका राजसी वेश त्यागकर तापसी वेश धारण किया जाना मात्रा वस्त्रों का परिवर्तन भर नहीं अपितु उसका संबंध चेतनागत परिवर्तन से भी है। राम को उसमें अपनी चेतना को परिष्कृत करने की अनंत संभावनाएं दिखी थीं।

राम राग और द्वेष से भी मुक्त हैं। वन गमन के समय उनके मन में न तो किसी के प्रति आसक्ति थी और नही किसी प्रकार के रोष का भाव था। उन्हें न तो अपने राजकुमार होने पर गर्व था और न ही शक्ति का अभिमान। केवट, शबरी और निषाद से उनका कोमल व्यवहार तथा सरल आचरण इसका प्रमाण है। बिखरे व असंगठित वानरों को सेना को संगठित करना तथा उनसे दशानन जैसी महाशक्ति से युद्ध करवाना उनकी संगठनात्मक क्षमता का प्रतीक है। उन्होंने सभी के गुणों व क्षमता को समान महत्व दिया। और अहं भाव तथा स्वार्थ लोलुपता तो उन में लेशमात्र भी नहीं थी। तभी तो उन्होंने न केवल अयोध्या के राज्य का परित्याग किया अपितु बाली की किष्किंधा तथा रावण को स्वर्णमई लंका के आधिपत्य को भी स्वीकार नहीं किया। सत्ता हस्तांतरण का विषय आया तो लंका का राज्य तो सुग्रोव को सौंप दिया तथा विभीषण को लंका का राज्य सौंप दिया।

ओर राम एक आदर्श प्रजापालक, जितेंद्रिय, तेजस्वी, बुद्धिमान, धैर्यवान, पराक्रमी, विद्वान, कर्तव्य पारायण व नीति निपुण हैं। भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं। स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुख देना राम का स्वरूप है तिनका संपूर्ण जीवन त्याग, धर्म व मानवता की प्रतिमूर्ति है। अपने सच्चरित्र द्वारा उन्होंने माता-पिता, गुरु, भाई, पली, सेवक हनुमान, मित्र सुग्रीव तथा समस्त प्रजा के लिए कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया है। श्रीराम का जीवन चरित्र मानव जीवन हेतु प्रकाश स्तंभ, कर्तव्य निष्ठा के प्रति आस्थावान होने का जीवंत प्रमाण है। श्रीराम की महागाथा में युग परिवर्तन के पुरातन मूल्यों का कथानक होते हुए भी नवीन मूल्यों की रचना की आवश्यकता का संदेश सन्निहित है जिसमें समन्वय स्थापित कर राष्ट्र को उन्नति के शिखर की ओर ले जाना हम सभी का कर्तव्य है। श्रीराम किसी धर्म जाति विशेष की धरोहर नहीं हैं अपितु समस्त भारतीयों के प्रेरणास्रोत और आराध्य हैं। उनके गुणों का स्मरण समाज व मानवता को सुख पहुंचाता है। आज हमारा समाज विभिन्न समस्याओं से ग्रस्त है
और यह ज्वलंत समस्याएं परिवारों की व सामाजिक संबंधों की विकृतियां हैं। राष्ट्रीय पटल पर कर्तव्य विहीनता व स्वार्थ लोलुपता को परिणति हैं। 22 जनवरी 2024 को हमारे राष्ट्र में श्रीराम की जन्मभूमि पावन, पुनीत व दिव्य अयोध्या नगरी में श्रीराम के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है तो इस अवसर पर हमें यह संकल्प लेने की आवश्यकता है कि हम श्रीराम के गुणों को धारण करें। उनका जीवन दर्शन अपनाने का प्रयास करें !उनके जीवन चरित्र से प्रेरणा ग्रहण करें! दुर्व्यसन व सामाजिक कुरीतियों का बहिष्कार करें! पुरुषार्थ करें। समाज में अपनी पहचान बनाएं। समाज को संगठित करें। बच्चों को अपनी गौरवमई संस्कृति व इतिहास से अवगत कराएं! उनमें श्रीराम जैसा कर्तव्यबोध जाग्रत करें। उनमें श्रीराम जैसे संस्कार रोपित करें जो राष्ट्र में यत्र-तत्र निर्भीक निश्शंक विचरण कर रहे किसी भी दशानन का शीश कुचलने हेतु सदैव तत्पर और सजग रहें। आज आवश्यकता है अपने समाज में ऐसा निर्मल व स्वर्गिक वातावरण बनाने की जहां भाई- भाई में प्रेम हो, पति-पत्नी में समर्पण भाव व कर्तव्यपरायणता हो, वृद्धजनों व वरिष्ठजनों, साधु संतो व विद्वानों के प्रति श्रद्धा भाव व सत्कार भावना हो, धर्म में हर किसी की आस्था हो, अपने- अपने कर्तव्यों के प्रति सभी सजग रहते हों सभी के चरित्र निर्मल हो, आचरण श्रेड हों, सभी एक दूसरे के धर्म का सम्मान करने वाले हो, भ्रष्टाचार कहीं न हो, न कहीं व्यभिचार के कृमि सिर उठाते हों। उनके सिर उठाने से पूर्व ही उन्हें कुचल देना आज की महती आवश्यकता है।

डॉ० अशोक रस्तोगी अग्रवाल

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