माता सावित्रीबाई फुले
तमन्ना मतलानी – विभूति फीचर्स
क्रांतिज्योति माता सावित्रीबाई का जन्म नायगांव तालुका खंडाला जिला सातारा (महाराष्ट्र) में हुआ। उनके पिता का नाम खंडोजी नेवसे पाटिल था।
महात्मा ज्योतिराव फुले का धर्म के ठेकेदारों ने बहुत अपमान किया। महात्मा फुले ने इन सभी की परवाह न करते हुए 1 जनवरी 1948 को पूना में लड़कियों के लिये देश का प्रथम विद्यालय आरंभ किया जिसमें पढऩे के लिये बड़ी मुश्किल से उन्हें केवल छ: लड़कियां ही मिली थी। लड़कियों के विद्यालय में पढ़ाने के लिए कोई महिला शिक्षिका नहीं मिली तब उन्होंने पत्नी सावित्रीबाई को लड़कियों को पढ़ाने का कार्य सौंपा। इस प्रकार सावित्रीबाई फुले इतिहास में प्रथम महिला शिक्षिका के रूप में अमर हो गई। तत्कालीन समय के अनुसार फुले दम्पत्ति का यह प्रयास धर्मविरोधी आचरण था। जब सावित्रीबाई, घर से स्कूल जाने के लिए निकलती थी, तब लोग उन पर गोबर-पत्थर मारते थे। उस समय सावित्रीबाई कहती थी, ‘मेरे भाईयों, मुझे प्रोत्साहन देने के लिये आप मुझ पर पत्थर नहीं, फूलों की वर्षा कर रहे हैं। तुम्हारी इस करनी से मुझे यही सबक मिलता है कि मैं निरंतर अपनी बहनों की सेवा करती रहूं, ईश्वर तुम्हें सुखी रखे।Ó
लड़कियों को पढ़ाने का तोहफा उन्हें अपना घर-परिवार को छोडऩे के रूप में मिला। लड़कियों की पढ़ाई का उच्चवर्णियों ने जमकर विरोध किया। उन्होंने ज्योतिराव फुले के पिता को धमकी दी। इस धमकी से डरकर ज्योतिराव फुले के पिता ने ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई को घर से निकाल दिया। इतना सब कुछ होने के बाद भी पति-पत्नी दोनों ने लड़कियों की शिक्षा का कार्य बंद नहीं किया एवं विधवा आश्रम तथा अनाथ आश्रम भी प्रारंभ किये। विधवा आश्रम में करीब 100 महिलाएं रहती थी। विधवाओं तथा अनाथ बच्चों की सेवा में माता सावित्रीबाई को बहुत आनंद मिलता था। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने एक अनाथ बच्चे को गोद लेकर उसका नाम यशवंत रखा। आगे चलकर यशवंत डॉक्टर बना और उसने भी निर्धनों की सेवा की। ज्योतिनराव फुले का 28 नवंबर 1890 को अकस्मात निधन हो गया। सावित्रीबाई ने समाज के ठेकेदारों की परवाह न करते हुए ज्योतिराव के पार्थिव शरीर को स्वयं अपने हाथों से मुखाग्नि दी। हजारों वर्षों के इतिहास में सावित्रीबाई ऐसी पहली महिला थी जिन्होंने अपने पति के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी। पति की मृत्यु के पश्चात भी माता सावित्री बाई ने धर्म सुधार का कार्य सतत प्रारंभ रखा। सत्यशोधक समाज एवं अन्य संगठनों का कार्यभार अपने कंधों पर लेकर गरीब एवं समाज से उपेक्षित लोगों की हमेशा मदद की।
सन् 1897 को पुणे में प्लेग की महामारी फैली। इस महामारी का मुकाबला करने के लिए सावित्रीबाई ने अपने डॉक्टर पुत्र यशवंत को सरकारी अस्पताल से छुट्टी लेकर पूना बुलाया। अपने पुत्र के साथ मिलकर उन्होंने प्लेग की बीमारी से पीडि़त लोगों की सेवा का कार्य आरंभ किया। सावित्रीबाई को मालूम था प्लेग छूत की बीमारी है। मरीजों के साथ रहते हुए, उन्हें भी बीमारी हो सकती थी परन्तु धन्य थी माता सावित्रीबाई जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए मरीजों की सेवा चालू रखी। अंत में जिस बात का डर था वही हुआ। मरीजों की सेवा करते माता सावित्रीबाई भी प्लेग बीमारी से पीडि़त हो गयी और इसी बीमारी के चलते 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया। सावित्रीबाई फुले के द्वारा किये गए सामाजिक कार्यों का आज की पढ़ी-लिखी सभी महिलाओं को अनुकरण करना चाहिए तथा उन्हीं की तरह अडिग, अविचल होकर समाज के ठेकेदारों के तानों की परवाह न करते हुए जीवन के जटिल रास्तों पर सतत आगे बढऩा चाहिए। (विभूति फीचर्स)