‘अंकल ! मुझे हिंदी की गिनती नहीं आती’
अब हम मानें या ना मानें पर सच यही है कि हम संस्कृत से तो बहुत दूर कर ही दिए गए हैं अच्छी हिंदी से भी हम दूर कर दिए गए हैं। नई पीढ़ी हिंदी के अंकों को भी लिखना नहीं जानती, ना पढ़ना जानती। आप किसी नवयुवक को अपना मोबाइल नंबर लिखवाने लगें तो नई पीढ़ी के बच्चे कहते हैं कि अंकल! इंग्लिश में बोलो तब हम लिख पाएंगे। वह अक्सर कहते हैं कि ‘अंकल ! मेरे को ना हिंदी में गिनती नहीं आती।’
अब जिस देश की युवा पीढ़ी को अपने देश की भाषा में अंक लिखने नहीं आते उसे आप राष्ट्रभक्ति और स्वदेशी का समर्थक कैसे बना सकते हैं ?
फ्रेंच लेखक रिचर्ड का कहना था कि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है- आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़। समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।’
क्या स्वामी जी महाराज ने आर्यवर्त के उत्थान के लिए आर्य लोगों का इसलिए आवाहन किया था कि उनके बच्चे कुछ समय बाद ही यह कहने लगे कि ‘अंकल ! मेरे को ना हिंदी नहीं आती।’
इस स्थिति के लिए आज के अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। जिन्होंने ऋषि दयानंद जी के स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वदेश , स्वसंस्कृति और स्वराष्ट्र के मिशन को पीछे छोड़ दिया। हिंदी नहीं आने की शिकायत ने ही लोगों को हिंदी और संस्कृति से दूर कर दिया है। अब उन्हें भाषा का अर्थ केवल इतना ही दिखाई देता है कि जैसे भी हो अपनी बात को दूसरे के गले उतार दो। इसी प्रकार की अभिव्यक्ति का माध्यम लोगों ने भाषा को बना दिया है। यद्यपि हम ऐसे लोगों की इस बात से सहमत नहीं हैं। अपनी सहमति के उपरांत भी हम यह मानते हैं कि प्रत्येक वक्ता को अपनी भाषा को ऐसा फुट अवश्य देना चाहिए, जिससे वह जो कुछ कहना चाहता है उसे लोगों के गले से नीचे आराम से उतार सके।
ओशो जैसे तथाकथित भगवान ऋषि दयानंद जी के शिष्यों की भांति गूढ़ भाषा में अपनी बात को रखने का प्रयास नहीं करते वह प्रचलित भाषा का प्रयोग करते हैं।
बोलने की शैली सरल हो
हम स्वयं इस बात के समर्थक हैं कि हम अपनी हिंदी भाषा का और उसके शुद्ध शब्दों का प्रयोग अपने संवाद, भाषण, व्याख्यान या प्रवचन के दौरान करें। अपने अच्छे से अच्छे साहित्यिक शब्दों को लाने का भी प्रयास करें , परंतु भाषा इतनी गूढ़ ना हो जाए कि वह लोगों की समझ में ना आए। यदि शुद्ध साहित्यिक ,संस्कृतनिष्ठ शब्दों का कहीं प्रयोग किया जा रहा है तो बोलते समय वक्ताओं को उनका भी सरलीकरण करना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है कि आपके सामने बैठी आज की युवा पीढ़ी आपकी राष्ट्रभाषा में चाहे आपके भाषण को सुन रही हो, पर वह उसे उतना समझ नहीं पाती जितने की अपेक्षा आप उससे कर रहे हैं ।
हम खिचड़ी भाषा हिंदी के भी समर्थक नहीं हैं। जिसमें अनेक भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर हिंदी संस्कृत की व्याकरण का सर्वनाश किया जाता हो। इसके स्थान पर भी हम यही कहेंगे कि अधिक से अधिक साहित्यिक शब्दों का प्रयोग किया जाए। इसके उपरांत भी हमारी मान्यता है कि लोगों को समझाने के समय उनके बौद्धिक स्तर का ध्यान रखा जाए। आर्य समाज के प्रत्येक उपदेशक को इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए । उन्हें वेद की बात को भी लोगों की भाषा में कहने का अभ्यास करना चाहिए। स्वामी दयानंद जी महाराज संस्कृत के परम विद्वान होकर भी उस समय ही अधिक सफल हुए जब उन्होंने लोगों से लोगों की भाषा में संवाद करना आरंभ किया।
यह बात पूर्णतया गलत है कि आजकल के जितने भी नए-नए मत, पंथ या संप्रदायों के धर्मगुरु हैं वे सब पूर्व में वेद, उपनिषद, महाभारत या रामायण आदि में लिखित आत्मोत्थान की बातों को अपनी कहकर प्रस्तुत करते हैं , या ऐसा आभास देते हुए प्रस्तुत करते हैं कि वह जो बोल रहे हैं वह उनका अपना मौलिक चिंतन है। पर उनके ऐसा करने से उनके सामने बैठे श्रोता उनके साथ बंध जाते हैं और वह समझ लेते हैं कि इनसे बड़ा कोई भगवान नहीं है। इसके विपरीत आर्य समाज के विद्वान सही दृष्टिकोण अपनाते हुए वेद, उपनिषद् आदि की बातों को उन्हीं की बात कहकर लोगों में उनका प्रचार – प्रसार करते हैं। इसके उपरांत भी वे अपने साथ लोगों को जोड़ने में अर्थात उनका आर्यकरण करने में सफल नहीं हो पाते। भाषा की दुरुहता इसका एक कारण है। आवश्यकता मध्यम मार्ग अपनाने की है। समयानुसार निर्णय लेने की है।
मूर्ति पूजक और आर्य समाजी
दूसरी बात है कि हमारे धर्माचार्य प्रमुख, प्रवचनकार, उपदेशक कई बार अपने सामने बैठे श्रोताओं को भांप नहीं पाते। वे यह समझ लेते हैं कि पंडाल में बैठे सभी लोग आर्य समाज और महर्षि जी के भक्त हैं। जबकि उनमें कई लोग ऐसे भी बैठे होते हैं जो मूर्ति पूजक पौराणिक होते हैं। जब हमारा कोई भी वक्ता उपदेशक या प्रवचनकार उन पौराणिकों की मूर्ति पूजा पर प्रहार करता है और उनके देवी – देवताओं को उल्टा – सीधा बोलता है तो उन्हें वह पसंद नहीं आता। वह कई बार अपने साथी आर्य समाजियों से इस बात की शिकायत करते देखे जाते हैं कि आपके यहां तो जाते ही हमारे देवी – देवताओं को गाली दी जाती है । माना कि आर्य समाज के विद्वान से मूर्ति पूजा के खंडन की अपेक्षा की जा सकती है परंतु उसे वह संतुलित मर्यादित शब्दों में करे, उससे यह भी अपेक्षा की जाती है। साथ ही उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह लोगों को पहले मूर्ति पूजा की निस्सारता को समझाए। उनके मूर्ति पूजा के ढंग और ढोंग पर या उनके देवी – देवताओं पर किसी प्रकार का कटाक्ष ना करे बल्कि उन्हें उस दिशा से धीरे-धीरे मोड़ने का प्रयास करे और बताये कि सच्चा मार्ग क्या है ?
जब आप बाजार में घूम रहे होते हैं तो चलते-चलते यदि आपकी नजर किसी दुकानदार के यहां रखे चावलों की बोरी पर पड़ जाती है तो वह दुकानदार तुरंत समझ जाता है कि आपको चावलों की आवश्यकता है। आपके बिना बोले वह पहले ही आपसे कहने लगता है कि ‘आ जाओ ! चावल अच्छे हैं, ले लीजिए।’ वह चावल विक्रेता लाला कभी आपसे यह नहीं कहता कि ‘मेरे चावल अच्छे हैं और पड़ोसी के खराब हैं। आप आगे मत बढ़ो।’
अच्छा कहकर बेचिए, रोज ही अपना माल।
भूले से भी मत कहो, और का माल खराब।।
बस लाला वाला दृष्टिकोण ही हमको अपनाना चाहिए। हमको अपने उपदेश और प्रवचन में अपने माल को अर्थात वैदिक धर्म की मान्यताओं को अच्छा बताने का प्रयास करना चाहिए। दूसरे की मान्यताएं कैसी हैं ? यह बहुत दूर का और देर का विषय है। हम दूर के विषय पर पहले आ जाते हैं और आज जहां से हमको शुरुआत करनी है, उसको हम भूल जाते हैं। हमको ध्यान रखना चाहिए कि जब गर्मी की ऋतु आती है तो वह एकदम नहीं आ जाती है । परिवर्तन धीरे-धीरे आता है। धीरे-धीरे ही गर्मी के बाद सर्दी बढ़ती है। धीरे-धीरे ही दिन बढ़ते हैं धीरे-धीरे ही रातें बढ़ती हैं । धीरे-धीरे ही वृक्ष बढ़ता है। धीरे-धीरे ही समय आने पर उस पर फल लगते हैं। इसी प्रकार मरीज भी धीरे-धीरे ही निरोग होता है। बस, यही बात समाज की है। समाज की यदि दिशा गलत हो गई है तो उसे अचानक आप मोड़ने की गलती ना करें । उसकी दिशा को मोड़ने के लिए थोड़ा धैर्य रखना चाहिए । आपके तर्क बाण मजबूत होने चाहिए । सीधे निशाने पर लगने चाहिए। आपके पास अपने मनोबल, आत्म बल की शक्ति के साथ-साथ दल-बल की शक्ति भी होनी चाहिए। दल-बल की शक्ति का अभिप्राय किसी से जोर आजमाइश करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है कि परिवर्तन की दिशा को और भी अधिक प्रभावी बनाने के लिए आपके पास प्रचारकों की बड़ी संख्या हो।
आर्य समाज श्रीराम और कृष्ण जी को मानता है…
प्रतीक्षा करने की असीम शक्ति होना भी उपदेशक ,प्रचारक या प्रवचनकार की एक विशेषता होती है । स्वामी दयानंद जी ने अपने जीवन काल में वेद प्रचार की धूम मचाई, परंतु परिवर्तन के लिए उनके पास असीम धैर्य भी था। उन्होंने खंडनात्मक दृष्टिकोण से भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में बहुत कुछ लिखा । इसके
उपरान्त भी उन्होंने विपरीत संप्रदाय के किसी भी धर्माचार्य प्रमुख का कभी अपमान नहीं किया। ना ही उनके साथ शास्त्रार्थ करते समय उनके लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। उन्होंने अपनी बात को पूरी दृढ़ता के साथ रखा और उसे पूर्णतया शास्त्र संगत , तर्कसंगत एवं बुद्धि संगत सिद्ध करने का अनेक बार सफल प्रयास किया।
आज अनेक लोग हैं, जो यह मानते हैं कि आर्य समाज रामचंद्र जी को नहीं मानता । कृष्ण जी को नहीं मानता। शिवजी को नहीं मानता । गणेश जी को नहीं मानता। इन लोगों के भीतर इस भाव को किसने बैठा दिया? एक तो आर्य समाज के उपदेशकों की शैली ने ऐसी धारणा बनाने में सहायता की है, दूसरे उन लोगों के धर्माचार्य उनको आर्य समाज से इसी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का प्रचार कर के दूर करने का प्रयास करते हैं कि ये लोग आपके देवताओं को गाली देते हैं । आपके भगवान को भगवान नहीं मानते ,इसलिए ये नास्तिक लोग हैं। आर्य समाज के विद्वान जब इन मिथ्या आरोपों के बारे में सुनते हैं तो वह इनका खंडन पौराणिकों के बीच जाकर नहीं करते बल्कि आर्य समाज के मंचों पर करते हैं। जहां उनके सामने बैठे श्रोता आर्य समाज से जुड़े लोग ही होते हैं। होना यह चाहिए कि ऐसे आरोपों का खंडन आर्य समाज के लोग पौराणिकों के मंचों पर जाकर करें और वहां बैठे श्रोताओं को यह समझाएं कि हम वास्तव में श्री रामचंद्र जी के चरित्र की पूजा करते हैं, योगीराज श्री कृष्ण जी के चरित्र की पूजा कर उन्हें राष्ट्ररक्षक, धर्म रक्षक, संस्कृति रक्षक के रूप में पूजते और सम्मान देते हैं।
क्षेत्रीय यज्ञ समितियों के कार्यक्रम
आजकल हम यह भी देख रहे हैं कि जितने भी आर्य समाज के लोग हैं वह क्षेत्रीय यज्ञ समितियों के माध्यम से यज्ञों का संचालन करते हैं। जब 10-20 गांवों की इस प्रकार की कोई क्षेत्रीय यज्ञ समिति कार्य करती है तो प्रत्येक गांव में वही लोग उपस्थिति देते हैं जो पहले गांव में उपस्थित रहे थे । नए जुड़ने वाले लोग 10 या 5 ही होते हैं और वह भी किसी एक गांव विशेष में उस गांव के निवासी होने के कारण पहुंच जाते हैं। आर्य समाजी आर्य समाजी के ही यहां जाकर यज्ञ समिति का हवन करते हैं। चौपाल पर या सार्वजनिक स्थानों पर यज्ञ करने करने और सारे गांव को बुलाकर वेद प्रचार करने की परंपरा समाप्त हो गई है। यज्ञ समितियां केवल औपचारिकता निभाकर अपना कर्तव्य निर्वाह मात्र कर रही हैं । उनमें कोई क्रांति का भाव दिखाई नहीं देता।
ऐसा भी देखा जाता है कि एक गांव में जितने भर भी आर्य समाजी यज्ञ करने के लिए जाते हैं वे सारे के सारे ही पूरे दिन का बोरियत पैदा करने वाला लंबा कार्यक्रम करते हैं। कुछ घिसी पिटी बातों को ही लोग बार-बार दोहराते रहते हैं । जिससे अच्छा संकेत नहीं जाता। होना यह चाहिए कि किसी एक विद्वान वक्ता को घंटेभर बुलवाया जाए और आधा घंटे का यज्ञ रखकर अधिकतम दो घंटे में कार्यक्रम समाप्त किया जाए। आजकल की भाग दौड़ की जिंदगी में लोग सारा दिन आपके बोरियत पैदा करने वाले कार्यक्रम को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। वैसे भी परिवर्तन एक दिन में ही नहीं आता है। छोटी-छोटी बातों को महत्वपूर्ण संदेशों के माध्यम से छोड़ने का प्रयास करना चाहिए। लोग उन्हें ग्रहण करेंगे और उन्हें अच्छा समझेंगे तो वह स्थाई रूप से आपके साथ जुड़ने का प्रयास करेंगे। अतः एक आधिकारिक वक्ता को विषय देकर बोलने का अवसर दिया जाए। जिसको लोग तन्मयता के साथ सुनें। उस वक्ता से भी पहले यह कह दिया जाए कि आपको विषय को किस प्रकार प्रस्तुति देनी है ? ऐसा करने से अच्छे परिणाम आने की संभावना है।
कुल मिलाकर आर्य समाज को अपने प्रचार तंत्र को चुस्त दुरुस्त करते हुए प्रचार शैली पर भी विचार करना होगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक की “आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन” नामक पुस्तक से)
मुख्य संपादक, उगता भारत