हमारे देश में इस समय लोगों का मूर्ख बनाने वाले अनेक गुरु और स्वयंभू भगवान घूम रहे हैं। यह बड़े ही आश्चर्य की बात है कि केवल पाखंड और अंधविश्वासों में फंसाने वाले इन गुरुघंटाल भगवानों की सभाओं में बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति होती है। जबकि वेद धर्म का सीधा सरल और सच्चा रास्ता बताने वाले आर्य समाज के किसी महासम्मेलन में भी इतनी अधिक उपस्थिति नहीं होती । सत्य कड़वा होता है या नहीं यह तो हमें नहीं पता, पर इतना अवश्य है कि सत्य उपेक्षित बहुत होता है। भीतर से सत्य की इच्छा होने के उपरांत भी लोग उस पर ही अधिक पर्दा डालते हैं। जहां रहस्य सुलझ जाना चाहिए लोग उसे वहां और अधिक गहरा कर देते हैं।
जो सही है , मार्केट में वह नहीं बिकता, बल्कि जो दोगला है और जो भ्रामक स्वरूप लिए खड़ा है या छद्म रूप में हमें बार-बार ठगता है , वह अधिक बिकता है। संसार की नदिया में असत्य या मिथ्यावाद ऊपरी सतह पर तैरता रहता है और सत्य कहीं नीचे पेंदी में छुपा बैठा रहता है । लोग ऊपरी सतह पर तैरने वाली वस्तु की ओर ध्यान देते हैं और उसके नीचे पैठ बनाए हुए सत्य से मुंह फेर लेते हैं। संसार के बड़े-बड़े महापुरुष सत्य का मार्ग बताते – बताते चले गए , पर जो मिथ्या और भ्रामक है – लोग भेड़चाल से उसी पर चलने के अभ्यासी बने रहते हैं। बात भी ठीक है, जो चीज वजन में भारी होती है वह नीचे ही बैठ जाती है। और जो थोथी है वह ऊपर बहती हुई दिखाई देने लगती है। लोगों को बहती हुई चीज के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि जो ‘बह गया’, उसमें क्या रह गया ? सार तत्व तो उसी में है जो जमाने के दौर में बहा नहीं। बह जाना हल्केपन का प्रतीक है और जमकर बैठ जाना भारीपन का प्रतीक है । सत्य कभी बहता नहीं और मिथ्यावाद कभी एक स्थान पर रहता नहीं।
बड़े-बड़े संत चले गए, राह बताते लोगों को।
हमसे कहते रहे हमेशा मत गले लगाओ भोगों को।।
क्या कभी आपने इस प्रकार की स्थिति के कारण पर विचार किया? यदि नहीं तो आपको करना चाहिए।
ओशो भगवान का उदाहरण
अपनी बात को आगे बढाने से पहले मैं आपको बताना चाहूंगा कि एक बार मैं अमर स्वामी प्रकाशन विभाग गाजियाबाद में बैठा हुआ कुछ पुस्तकों को देख रहा था । तभी प्रकाशन के प्रतिष्ठाता मेरे बड़े भाई सम आदरणीय लाजपत राय अग्रवाल जी ने मुझे आचार्य रजनीश अर्थात ओशो का साहित्य पढ़ने के लिए कहा। मैंने ओशो के बारे में पहले ही सुन रखा था कि वह क्या लिखते हैं और क्या बोलते रहे हैं ? तब मैंने बड़े आश्चर्य से श्री अग्रवाल जी से कहा कि मैं उनका साहित्य क्यों पढूं? इस पर उन्होंने कहा कि आप एक बार पढ़ें तो सही और थोड़ा देखिए कि वह लिखते किस शैली में हैं ?
यह कहकर उन्होंने मुझे 'संभोग से समाधि' नामक ओशो की प्रसिद्ध पुस्तक हाथों में थमा दी और कहा कि कहीं से भी एक दो पेज पढ़ने का प्रयास कीजिए। मैं बड़ी ईमानदारी से यह कह सकता हूं कि मैंने उस पुस्तक को पढ़ना आरंभ किया तो लगा कि सचमुच ही उस व्यक्ति की लेखन शैली कमाल की थी। यह एक अलग बात है कि वह पुस्तक हमारे आप सबके लिए पूर्णतया अनुपयोगी थी। परंतु उस पुस्तक के लेखक ओशो भगवान की लेखन शैली में ऐसा जादू था कि वह अपने साथ अपने पाठक को बांधे रखने में माहिर था। तब मैं समझा कि उस व्यक्ति को सुनने के लिए लोग इतनी बड़ी संख्या में क्यों पहुंचते थे? ओशो ने लोगों को लोगों की भाषा में अपनी बात को समझाने का प्रयास किया। मैं मानता हूं कि उनकी बातों में अधिकांश बकवास भरी पड़ी है , पर ऐसा भी नहीं है कि सारी बातों को बकवास कह दिया जाए।
मिथ्या मिथ्या चुन रहे, सच को रहे हैं भूल।
लोग बावरे हो गए, चुनते जा रहे शूल।।
यही मिथ्यावाद है। जो संसार सरणी की सतह पर प्रवाहित हो रहा है। वेद का निर्मल पवित्र ज्ञान वही ज्ञान है जो अच्छे-अच्छे गोताखोरों की नजरों से कहीं छुपा है । बड़े यत्न से कोई सच्चा गोताखोर अर्थात् परमयोगी उस सत्य को खोजकर और बाहर लाकर लोगों को दिखाने में सफल होता है। स्वामी दयानन्द जी महाराज एक ऐसे ही गोताखोर महान योगी थे। जिन्होंने ज्ञान की निर्मल धारा को अर्थात सत्य को संसार की बहती हुई नदिया की पेंदी से बाहर लाकर लोगों को दिखाने का सफल प्रयास किया था।
पुराने समय के आर्य समाजी भजनोपदेशक
हमारे देश में आर्य समाज की स्थापना के पश्चात आर्य समाज के भजनोपदेशकों ने वैचारिक क्रांति पैदा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उसका भी एकमात्र कारण यही था कि वे लोग भी जनभाषा में लोगों से संवाद स्थापित करते थे। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि हमारे आर्य विद्वान वेदों की जिस भाषा में लोगों से संवाद स्थापित करने का प्रयास करते हैं , उनका वह प्रयास निष्फल जाता है। इसका कारण यह है कि उनके लिए रोता के रूप में मंच के आगे बैठने वाले अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो वेदों की क्लिष्ट संस्कृत को या संस्कृत निष्ठ हिंदी को समझ नहीं पाते। लोग आपकी बात को किस्से कहानियों के माध्यम से सरलता के साथ समझते हैं। वह अपनी भाषा में आपकी बात को सुनना चाहते हैं। ओशो जैसे लोग अपनी बात को कहने और लोगों को समझाने में इसलिए सफल हो जाते हैं कि वह छोटी-छोटी कहानियों के रूप में अपनी बात को कहते चले जाते हैं। आर्य समाज के विद्वान इस ओर कम ध्यान देते हैं । उनके भाषण विद्वानों के लिए होते हैं और विद्वान सभाओं में आकर किसी की बात को सुनते नहीं ।अब समस्या यह हो जाती है कि विद्वान मंच पर बैठा रह जाता है और सुनने वाले श्रोता मंच के आगे बैठे रह जाते हैं, ना तो सुनाने वाला सफल होता और ना सुनने वाले सफल होते । परिणाम यह आता है कि लोग आर्य समाज से दूरी बनाने लगते हैं।
सहज सरल आनंद की, कर लो सीधी बात।
दिन बीते आनंद में , चैन में बीते रात।।
कुछ समय पहले यह समस्या आर्य परिवारों के साथ नहीं थी। गुरुकुलों के पढ़े हुए स्नातक आर्य परिवारों में हुआ करते थे। कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि हिंदी की प्राइमरी पाठशालाओं से निकले हुए बच्चे भी उस समय हिंदी और संस्कृत को सुन व समझ लिया करते थे । पर अब वह बात नहीं है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक की “आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन” नामक पुस्तक से)