✍️ आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी
रामचरितमानस एहि नामा।
सुनत श्रवण पिया बिश्रमा
मन करि बिषय अनल बन जरै।
होइ सुखी जौं एहिं सर पराई॥
(इसका नाम रामचरितमानस है, जिसका अर्थ है जप को शांति मिलती है। मनरूपी हाथी विषयरूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरितमानस रूपी झील में आ पड़े तो सुखी हो जाए।)
त्रेतायुग में आदि कवि महर्षि ‘वाल्मीकि’ द्वारा ‘रामायण’ महाकाव्य की रचना की गई थी। संस्कृत भाषा में होने के कारण वह महाकाव्य जन-जन तक नहीं पहुंच पाया । तो भगवत्कृपा से कलियुग में आदि कवि वाल्मीकि जी ही गोस्वामी तुलसीदास जी के रूप में प्रकट हुए जिन्होंने सरस हिन्दी-अवधी भाषा में ‘श्रीरामचरित मानस’ की रचना किया है ।
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लिए।
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयो।।
श्रीरामचरितमानस के नायक श्रीराम हैं जिनको मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान के रूप में दर्शाया गया है जो हिंदू धर्म ग्रंथो के अनुसार अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हरि नारायण भगवान के अवतार है , जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में भगवान श्रीराम को एक आदर्श चरित्र मानव के रूप में दिखाया गया है, जो सम्पूर्ण मानव समाज को ये सिखाता है जीवन को किस प्रकार जिया जाय भले ही उसमे कितने भी विघ्न हों। प्रभु श्रीराम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। गोस्वामी जी ने श्रीरामचरित का अनुपम शैली में दोहों, चौपाइयों, सोरठों तथा छंद का आश्रय लेकर वर्णन किया है। इसका प्रत्येक दोहा, प्रत्येक सोरठा, प्रत्येक श्लोक, प्रत्येक छन्द और प्रत्येक शब्द साक्षात् वेद के समान आदरणीय और पूज्य है । श्रीरामचरित मानस परात्पर ब्रह्म भगवान श्रीराम का ही वांग्मय स्वरूप है । यह दिव्य ग्रन्थ समस्त वेद, शास्त्र, पुराण और उपनिषदों का सार है ।
ईश्वर के आदेश से लेखन:-
गोस्वामी तुलसीदास जी को भगवान शंकर, मारुतिनंदन हनुमान, पराम्बा पार्वती जी, परब्रह्म भगवान श्रीराम और शेषावतार लक्ष्मण जी ने समय-समय पर अपना दर्शन और आशीर्वाद देकर श्रीरामचरितमानस उनसे लिखवाया और भगवान श्रीराम ने ‘शब्दावतार’ के रूप में श्रीरामचरित मानस में प्रवेश किया है । इसीलिए यह मनुष्य को सच्ची चेतना देने वाला और पग-पग पर पथ-प्रदर्शन करने वाला लोक मंगलकारी ग्रन्थ माना गया है ।
संक्षिप्त मानस कथा:-
जब मनु और सतरूपा परमब्रह्म की तपस्या कर रहे थे। कई वर्ष तपस्या करने के बाद शंकरजी ने स्वयं पार्वती से कहा कि ब्रह्मा, विष्णु और मैं कई बार मनु सतरूपा के पास वर देने के लिये आये ।
“बिधि हरि हर तप देखि अपारा,
मनु समीप आये बहु बारा।”
त्रिदेवों ने बार बार कहा कि जो वर तुम माँगना चाहते हो माँग लो। मनु सतरूपा को तो पुत्र रूप में स्वयं परमब्रह्म को ही माँगना था। फिर ये कैसे उनसे यानी शंकर, ब्रह्मा और विष्णु से वर माँगते? हमारे प्रभु राम तो सर्वज्ञ हैं। वे भक्त के ह्रदय की अभिलाषा को स्वत: ही जान लेते हैं। जब 23 हजार वर्ष और बीत गये तो प्रभु राम के द्वारा आकाशवाणी होती है-
प्रभु सर्वग्य दास निज जानी,
गति अनन्य तापस नृप रानी।
माँगु माँगु बरु भइ नभ बानी,
परम गँभीर कृपामृत सानी॥
इस आकाशवाणी को जब मनु सतरूपा सुनते हैं तो उनका ह्रदय प्रफुल्लित हो उठता है और जब स्वयं परमब्रह्म राम प्रकट होते हैं तो उनकी स्तुति करते हुए मनु और सतरूपा कहते हैं-
“सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू,
बिधि हरि हर बंदित पद रेनू।
सेवत सुलभ सकल सुखदायक,
प्रणतपाल सचराचर नायक॥”
अर्थात् जिनके चरणों की वन्दना विधि, हरि और हर यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही करते है, तथा जिनके स्वरूप की प्रशंसा सगुण और निर्गुण दोनों करते हैं: उनसे वे क्या वर माँगें? इस बात का उल्लेख करके तुलसीदास ने उन लोगों को भी राम की ही आराधना करने की सलाह दी है जो केवल निराकार को ही परमब्रह्म मानते हैं।
भगवान शंकर व श्रीराम की कृपा से लिखा गया ग्रंथ :-
हनुमानजी की कृपा से तुलसीदास जी को श्रीराम जी के दर्शन हुए थे। भगवान राम-लक्ष्मण उन्हें दर्शन देने के लिए घोड़ों पर सवार होकर राजकुमार के वेश में आए थे , परन्तु तुलसीदास जी उन्हें पहचान नहीं पाए । दूसरी बार संवत् 1607, मौनी अमावस्या, बुधवार के दिन प्रात:काल गोस्वामी तुलसीदास जी चित्रकूट के रामघाट पर पूजा के लिए चंदन घिस रहे थे। तब भगवान राम और लक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने के लिए कहा । हनुमानजी ने सोचा कि ये शायद प्रभु श्रीराम-लक्ष्मण को न पहचान पाएं इसलिए तोते का रूप धर चेतावनी का दोहा पड़ने लगे —
चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर ।
तुलसी दास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर ।।
भगवान श्रीराम की अद्भुत छवि देखकर तुलसीदास जी अपनी सुध-बुध भूल गए । तब भगवान श्रीराम ने अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने व तुलसीदास जी के तिलक किया और अन्तर्ध्यान हो गए । तुलसीदास जी सारा दिन बेसुध पड़े रहे। तब रात्रि में आकर हनुमानजी ने उन्हें जगाया और उनकी दशा सामान्य की ।
संवत् 1616 में कामदगिरि में सूरदास जी तुलसीदास जी से मिलने आए और अपना ग्रन्थ ‘सूरसागर’ उन्हें दिखाया और दो पद गाकर सुनाए । तुलसीदास जी ने सूरसागर को हृदय से लगा लिया । ‘कामदगिरी’ का अर्थ ऐसा पर्वत है, जो सभी इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करता है। माना जाता है कि यह स्थान अपने वनवास काल के दौरान भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण जी का निवास स्थल रहा है। उनके नामों में से एक भगवान कामतानाथ, न केवल कामदगिरी पर्वत के बल्कि पूरे चित्रकूट के प्रमुख देवता हैं।
इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास काशी में प्रह्लाद-घाट पर एक ब्राह्मण के घर पर रहने लगे । वहां उनकी कवित्व- शक्ति जाग्रत हुई और वह संस्कृत में रचना करने लगे । आश्चर्य यह था कि दिन में वे जितनी रचना करते रात में सब-की-सब गायब हो जातीं । यह घटना रोज होती, तुलसीदास जी को समझ नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या करना चाहिए ?
आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न में भगवान शंकर ने कहा कि तुम अपनी भाषा में काव्य की रचना करो । तुलसीदास जी उठकर बैठ गए । उनके हृदय में स्वप्न की आवाज गूंजने लगी । उसी समय भगवान शंकर और माता पार्वती दोनों ही उनके सामने प्रकट हुए और बोले –
‘तुम जाकर अयोध्या में रहो और वहीं अपनी मातृभाषा में काव्य-रचना करो। संस्कृत के पचड़े में मत पड़ो । जिससे सबका कल्याण हो वही करना चाहिए । मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान सफल होगी ।’ यह कहकर भगवान शंकर और पार्वती जी अन्तर्ध्यान हो गए ।
तुलसीदास जी अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए अयोध्या में आकर रहने लगे । वे केवल एक बार दूध पीकर रहते थे । संवत् 1631 चैत्र शुक्ल रामनवमी के दिन वही योग बना जो त्रेतायुग में रामजन्म के दिन था ।
सम्बत सोरह सै इकतीसा।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा।
नवमी भौमवार मधुमासा।
अवध पुरी यह चरित प्रकासा।।
मानस की रचना अयोध्या, वाराणसी और चित्रकूट में हुई थी। भारत इस अवधि के दौरान मुगल सम्राट अकबर (1556-1605 ई.) के शासनकाल में था। यह तुलसीदास को विलियम शेक्सपियर का समकालीन भी बनाता है। उस समय उनकी आयु 77 साल होती है ।
प्रात:काल हनुमानजी ने प्रकट होकर तुलसीदास जी का अभिषेक किया । भगवान शंकर, पार्वती, गणेशजी, सरस्वती जी, नारदजी और शेषनाग जी ने तुलसीदास जी को आशीर्वाद दिया । सबकी कृपा और आज्ञा प्राप्त करके तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना शुरु की ।तुलसीदास जी ने श्री राम चरित मानस को दो वर्ष सात मास और छब्बीस दिन में संवत 1633 में लिखकर पूर्ण किया। मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में श्रीराम विवाह के दिन श्रीरामचरितमानस की रचना पूरी हुई । तुलसीदास जी की अयोध्या तुलसीदास जी ने भी अपनी रामचरितमानस में अयोध्या का बड़ी ही भव्यता के साथ वर्णन किया है। तुलसीदास जी ने जिस प्रकार की अयोध्या का वर्णन अपने ग्रंथ में किया है, वह भक्ति भावना से भरी हुई है —
राम धामदा पुरी सुहावनि।
लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा।
अवध तजें तनु नहिं संसारा॥
बालकांड में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि राम की अयोध्या परमधाम देने वाली और मोक्षदायिनी है। जो जीव अयोध्या में अपना शरीर छोड़ते हैं, उन्हें फिर से इस संसार में आने की जरूरत नहीं पड़ती। साथ ही तुलसीदास सरयू नदी के बारे में लिखते हैं कि सरयू में केवल स्नान से ही नहीं बल्कि इसके स्पर्श और दर्शनमात्र से भी व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं–
जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥
उत्तरकांड में राम जी के वनवास के वापिस लौटने के बाद भी अयोध्या का वर्णन किया है। तुलसीदास जी लिखते हैं कि अयोध्यावासियों को घर स्वर्ण और रत्नों से जड़े हुए हैं। घरों की अटारी से लेकर खंबे और फर्श तक अनेक रंग-बिरंगी मणियों से ढले हुए हैं। सरयू नदी के किनारे-किनारे ऋषि-मुनियों ने तुलसी के साथ-साथ बहुत-से पेड़ लगा रखे हैं। अयोध्या, जहां के राजा स्वयं प्रभु राम हैं, वहां की जनता समस्त सुखों से परिपूर्ण है। यह कथा पाखंडियो छल-प्रपञ्च को मिटाने वाली है। पवित्र सात्त्विकधर्म का प्रचार करने वाली है। कलिकाल के पाप-कलापका नाश करने वाली है। भगवत् प्रेम की छटा छिटकाने वाली है। संतो के चित्त में भगवत्प्रेम की लहर पैदा करनेवाली है। भगवत् प्रेम श्री शिवजी की कृपा के अधीन है, यह रहस्य बताने वाली है। इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति हुई, उसी दिन इसपर लिखा गया–
शूभमिति हरि: ओम् तत्सत्।
देवताओंने जय जयकार की ध्वनि की और फूल बरसाये। श्री तुलसीदास जी को वरदान दिये, रामायण की प्रशंसा की।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब देवभाषा संस्कृत छोड़कर लोकभाषा अवधि में राम चरित मानस ( रामायण ) की रचना की तो उन्हें अपने स्वजातीय और स्वधर्मीय बंधुओं के कोप का भाजन होना पड़ा। कट्टरपंथियों ने उनके कुल गौत्र ,जाति और धर्म को लेकर अनेर्कों भ्रांतियां फैलाई . उनका जीवन दूभर कर दिया उनकी रचना प्रक्रिया को बाधित किया .अंततः उन्होंने अयोध्या की एक मस्जिद में रहकर मांग कर खाते हुए अपनी कृति का लेखन पूर्ण किया। वे कहते हैं कि …..
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ।।
बादशाह अकबर के नवरत्न अब्दुल रहीम खान-ए- खाना ने हिंदुओं व मुसलमानों को तुलसीराम कृत रामचरितमानस का महत्व बताते हुए उसे वेद और कुरान के समतुल्य बताया । उन्होंने कहा कि ‘रामचरित मानस हिन्दुओं के लिए ही नहीं मुसलमानों के लिए भी आदर्श है।’
उनका यह दोहा देखिए
रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण,
हिन्दुअन को वेद सम यवनहिं प्रगट कुरान’
यह ध्यान देने की बात है कि रामचरित मानस को वेद और कुरान के समकक्ष बताने वाला कोई और नहीं मुगल बादशाह अकबर के अत्यंत करीबी रहीम थे जो गोस्वामी तुलसीदास जी के मित्र थे । जब सब कट्टरपंथी हिन्दू तुलसीदास जी को प्रताड़ित कर रहे थे तब वे मजबूती से तुलसीदास जी के साथ खड़े थे।
तुलसी दास ने लगभग 12 ग्रंथ लिखे हैं जिसमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए हैं ‘रामचरितमानस’ और हनुमान चालीसा.(भगवान हनुमान की स्तुति में 40 श्लोक). आज हनुमान की जो इतना पूजा जाता है उसके पीछे भी तुलसीदास ही हैं। यहां तक कि कवि तुलसीदास ने कई हनुमान मंदिर का निर्माण कराया। उन्होंने कई ‘अखाड़े’ का निर्माण भी कराया। अखाड़ा में हनुमान की मूर्ति की स्थापना कराने का श्रेय भी तुलसीदास को ही जाता है। यह परंपरा उत्तर और मध्य भारत के अखाड़ों में आज भी देखी जा सकती है।
तुलसी के प्रभाव से राम लीला:-
यह बहुत लोग नहीं जानते की देशभर में जो रामलीला होती है उसके पीछे भी कवि तुलसीदास ही हैं. विजयादश्मी (दशहरे) के समय नौ दिनों तक चलने वाली रामलीला का मंचन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि साउथ- ईस्ट एशिया के कई देशों भी किया जाता है।
श्री गणेश जी द्वारा मानस की प्रतियां अपने लोक को ले जाना:-
श्री रामचरितमानस की रचना के बाद श्री गणेश जी वहाँ आ गए और अपनी दिव्या दिव्य लेखनी से मानस जी की कुछ प्रतियां क्षण भर में लिख ली। उन प्रतियोगिता को लिखकर गोस्वामी जी से कहा कि इस सुंदर मधुर काव्य का रसपान हम अपने लोक में करेंगे और अन्य गणो को भी कराएँगे। ऐसा कहकर गणेश जी अपने लोक को चले गए। श्री रामचरितमानस क्या है, इस बात को सभी अपने-अपने भाव के अनुसार समझते एवं ग्रहण करते हैं। परंतु अब भी उसकी वास्तविक महिमा का स्पर्श विरले ही पुरुष का सके होंगे।
दुर्लभ हस्तलिखित श्री रामचरित मानस ग्रन्थ में बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड के रूप में सात काण्ड हैं । इन सातों काण्डों में श्रीराम के चरित्र का वर्णन है । इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति मंगलवार के दिन हुई । तब हनुमानजी पुन: प्रकट हुए और पूरी रामायण सुनी और गोस्वामीजी को आशीर्वाद दिया कि यह कृति तुम्हारी कीर्ति को अमर कर देगी ।
मानस की मूल प्रतियां:-
गोस्वामीजी की हस्तलिखित पूर्ण प्रतिलिपि कही भी उपलब्ध नहीं हैं ।बालकांड की प्रति सबसे पुरानी श्री अयोध्याजी के श्रावण कुंज की हैं जो संवत 1661की लिखी हैं।गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित प्रति में बालकाण्ड की मूल प्रति अयोध्या के श्रावण कुंज में बताई गई है।इस आलेख का लेखक इसे नृत्य राघव कुंज बासुदेव घाट में स्वयं देखा है। जब वह छात्र जीवन में नृत्य राघव कुंज बासुदेव घाट में निवास कर रहा था। दोनों मंदिर एक ही पंथ और महंथ की संपत्ति रही है।
चित्रकूट भगवान श्री राम की तपोस्थली के राजापुर में आज भी गोस्वामी तुलसीदास की हस्त लिखितअयोध्या कांड की प्रति राजापुर की हैं जो गोस्वामी जी के हाथ की लिखी बताई जाती हैं। रामचरितमानस कई साल बाद भी सहेज कर रखी गई है। श्रद्धालु यहां गोस्वामी तुलसीदास की हस्तलिखित रामचरित मानस को देखते और पढ़ते भी हैं।मंदिर के संत शरद कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि इस महाकाव्य का निर्माण 76 साल की उम्र में तुलसीदासजी ने किया था। 150 पेज की हर पांडुलिपि पर 7 लाइन लिखी है। रामचरित मानस अवधि भाषा में है, जो हिंदी भाषा की एक बोली है। यहां अब केवल अयोध्या कांड बचा है। बाकी सब विलुप्त हो गया है। उन्होंने बताया कि बस अयोध्या कांड बचा है जिसको यहा आकर देखा जा सकता है।
जापानी टिशु पेपर और केमिकल से संरक्षित :-
खुद को मंदिर का उत्तराधिकारी बताने वाले रामाश्रय त्रिपाठी बताते हैं, “2004 में भारत सरकार के पुरातत्व विभाग, दिल्ली द्वारा पांडुलिपि सुरक्षित करने के लिए प्रयास किया गया। पुरातत्व विभाग ने जापान में बने पारदर्शी टिशु पेपर को इस पर लगाया है। साथ ही कागज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने वाले कैमिकल्स का भी इस्तेमाल किया है।” राजापुर में राम चरित मानस की अयोध्या काण्ड की पांडुलिपि सुरक्षित है। 11×5 के आकार के 170 पन्ने सुरक्षित हैं। अयोध्या काण्ड की इन पांडुलिपियों में हर हस्तलिखित प्रति में ‘श्री गणेशाय नमः और श्री जानकी वल्लभो विजयते’ लिखा हुआ है। तुलसीदास के पहले शिष्य गणपतराम के वंशज आज भी इस तुलसी और मानस मंदिर में पुजारी बनते चले आ रहे हैं।
सुंदरकांड की एक प्रति अवध प्रांत के दुल्ही नमक स्थान की मिली हैं जो संवत 1672की लिखी।यह तीनों कांड गोस्वामीजी के समय के लिखे हैं इनके सिवा शेष कांड उनके समय के नही मिल सके।शेष प्रतियों में श्री भागवत दास जी की प्रति सबसे अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक मानी जाती हैं। गोरखपुर की रामचरित मानस में भूमिका में आरंभ में ही दिया हुआ।
भगवान विश्वनाथ ने दी श्रीरामचरितमानस को मान्यता:-
इसके बाद तुलसीदास जी भगवान की आज्ञा से काशी चले आए और वहां भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को उन्होंने श्रीरामचरितमानस सुनाया । रात को पुस्तक श्रीविश्वनाथ जी के मन्दिर में रख दी गयी । सवेरे जब मन्दिर के पट खोले गए तो उस पर लिखा पाया गया—‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ और नीचे भगवान के हस्ताक्षर थे। मन्दिर में उपस्थित लोगों ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की आवाज भी सुनी थी । देवताओं ने जय-जयकार करते हुए फूल बरसाए थे और तुलसीदास जी को वरदान दिए थे ।
श्रीरामचरितमानस के प्रथम श्रोता:-
गोस्वामीजी ने श्रीरामचरितमानस को सबसे पहले संत श्रीरूपारण स्वामीजी को सुनाया जो मिथिला में रहते थे और भगवान श्रीराम को अपना जामाता मानकर प्रेम करते थे । इसके बाद भगवान ने तुलसीदास जी को काशी में रहने की आज्ञा दी ।
राम लक्ष्मण ने पहरेदारी की :-
श्रीरामचरितमानस की प्रसिद्धि से काशी के संस्कृत विद्वानों को बड़ी ईर्ष्या व चिन्ता होने लगी । वे दल बनाकर गोस्वामीजी की पुस्तक को ही नष्ट करने की कोशिश करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिए दो चोर भेजे । चोरों ने देखा कि गोस्वामीजी की कुटी के बाहर श्याम और गौर वर्ण के दो वीर बालक पहरा दे रहे हैं । रात भर बड़ी सावधानी से उन्हें पहरा देते देखकर चोर बहुत प्रभावित हुए और श्रीराम व लक्ष्मण के दर्शन से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने तुलसीदासजी के पास जाकर पूछा कि तुम्हारे ये पहरेदार कौन हैं? तुलसीदासजी ने गद्गद् कण्ठ से कहा कि तुम लोग धन्य हो जो तुम्हें भगवान के दर्शन प्राप्त हुए । गोस्वामीजी समझ गए कि मेरे कारण प्रभु को कष्ट उठाना पड़ता है इसलिए उनके पास जो कुछ भी था, वह सब लुटा दिया ।
हनुमान जी ने मारण तंत्र से रक्षा की थी:-
तुलसीदासजी ने पुस्तक की मूल प्रति अपने मित्र टोडरमल के घर रख दी और दूसरी प्रति लिखी । अब तो पुस्तक का दिन-दूना प्रचार होने लगा । ईर्ष्यालु पण्डितों ने वटेश्वर मिश्र नामक तान्त्रिक को तुलसीदासजी का अनिष्ट करने के लिए कहा । तान्त्रिक ने मारण-मोहन प्रयोग के लिए भैरव को भेजा । हनुमानजी को तुलसीदासजी की रक्षा करते देखकर भैरव भयभीत होकर लौट आया और मारण प्रयोग तान्त्रिक पर ही उलटा पड़ गया ।
पंडितों ने भी सराहा:-
आखिर में पण्डितों ने मधुसूदन सरस्वतीजी की शरण ली और कहा कि भगवान शिव ने तुलसीदास की पुस्तक सही तो कर दी परन्तु यह किस श्रेणी की पुस्तक है, यह बात नहीं बतलायी है । मधुसूदन सरस्वतीजी ने जब पुस्तक पढ़ी को उस पर अपनी राय लिख दी—
आनन्दकानने ह्यस्मिन् जंगमस्तुलसीतरु: ।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता ।।
श्रीरामचरितमानस मन्त्रमय है :-
एक बार सूरदासजी से किसी ने पूछा कि कविता सबसे उत्तम किसकी है ? इस पर उन्होंने कहा—‘मेरी ।’ फिर उसने पूछा गया कि गोस्वामी तुलसीदासजी की कविता को आप कैसी समझते हैं ? इस पर सूरदासजी ने कहा—‘वह कविता नही है, मन्त्र हैं ।’ श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां और दोहे आदि मन्त्र की तरह जपने पर महान फल देते हैं, बस मनुष्य को श्रद्धा-विश्वास से श्रीरामचरितमानस का पाठ करना चाहिए ।
श्रीरामचरितमानस है तरन-तारन ग्रन्थ है:-
श्रीरामचरितमानस भारत के हर घर में बड़े आदर के साथ पढ़ी व पूजी जाती है । इसने कितने बिगड़ों को सुधारा है, कितने मोक्ष के अभिलाषियों को मोक्ष की प्राप्ति करायी है । श्रीरामचरितमानस अपनी शरण में आने वाले प्राणी को श्रीरामप्रेम की मस्ती में सराबोर कर श्रीराम से मिलाती है और जीवन को सार्थक कर देती है ।
लोक व्यवहार की सभी बातों का समावेश :-
रामचरितमानस से बढ़कर मानव के लिए कोई नीति-ग्रन्थ नहीं हो सकता । इसमें गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्वामी- सेवक, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र-मित्र के आदर्शों के साथ धर्मनीति, राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति, सत्य, त्याग, सेवा, प्रेम, क्षमा, परोपकार, शौर्य, दान आदि मूल्यों का सुन्दर विवेचन है । लोक-व्यवहार की सारी बातें हमें इसमें मिल जाती हैं । इसलिए भगवान शंकर द्वारा इस पर लिखे गये ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की कसौटी पर यह खरा उतरता है ।
विदेशों में भी पूज्य है ये ग्रंथ:-
रामचरितमानस की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब प्रवासी मजदूरों को ब्रिटिश शासन के दौरान भारत से मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम और कई अन्य देशों में ले जाया गया, तो वे कविता पाठ करने और रामलीला करने की समृद्ध परंपरा को अपने साथ ले गए, समय के साथ यह परंपरा वहां भी पनप गई।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुआ है। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करता रहता है।)
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