प्राचीनकाल से ही भारत में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को प्रधानता प्रदान की गई है । भारत की यह शिक्षा प्रणाली आचार्य केंद्रित हुआ करती थी। जिसमें आचार्य को इस बात की खुली छूट दी जाती थी कि वह जिस प्रकार चाहे बच्चों की प्रतिभा को निखारते हुए उनका निर्माण कर सकता है। इसके लिए उसे यथापेक्षित बच्चों को दंड देने का अधिकार भी होता था। जैसे एक कुंभकार किसी घट का निर्माण करते समय भीतर हाथ का सहारा देता है और बाहर से थपकी मारता है, इसी प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा आचार्य से की जाती थी कि वह बाहर से कठोरता दिखाते हुए भी भीतर से कोमल स्वभाव वाला होना चाहिए। आचार्य से अपेक्षा की जाती है कि वह जितेंद्रिय होना चाहिए। उसके भीतर ईर्ष्या लेशमात्र के लिए भी नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त काम ,क्रोध ,मद, मोह , लोभ, ईर्ष्या आदि जैसी मानवीय दुर्बलताओं का भी उसमें तनिक सा भी समावेश ना हो।
बहुत संभव है कि आचार्य जिस कक्षा को पढ़ा रहे हों उसी में उनका अपना पुत्र भी पढ़ता हो। ऐसा भी संभव है कि उनका अपना पुत्र तो मंदबुद्धि हो, जबकि दूसरे विद्यार्थी उससे अधिक तीव्र बुद्धि वाले हों। आचार्य को इतना सहृदय होना चाहिए कि वह अपने मंदबुद्धि पुत्र के रहते हुए अन्य विद्यार्थियों की उपेक्षा ना करे। ना ही उनके प्रति रूखा व्यवहार करे। इसके स्थान पर उन विद्यार्थियों के प्रति अपनी सहृदयता और उदारता को यथावत बनाए रखे।
श्री रामचंद्र जी का उदाहरण
एक उदाहरण रामचंद्र जी के जीवन का है। उनको अपने वनवास की सूचना अपनी माता कैकेई से उन्हीं के कक्ष में मिली।
जब वह माता कैकई के कक्ष से बाहर निकले तो उनके युवराज घोषित होने के कारण शिष्टाचार के अंतर्गत उनके अनुज लक्ष्मण उनके लिए छाता लिए खड़े थे। रामचंद्र जी ने अब अपने युवराज न होने की सूचना का संकेत देते हुए लक्ष्मण से कहा कि ‘प्रिय अनुज ! अब मुझे इस छाते की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके पश्चात श्री राम अपने राजा बनने की तैयारी में हुई साज सजावट को देखने लगते हैं। साथ ही साथ वह इस बात के लिए भी भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उनके भाई भरत का राज्याभिषेक शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो। उन्हें अपने भाई भरत से इस बात के लिए तनिक सी भी ईर्ष्या नहीं हुई कि अब मेरे स्थान पर उसका राज्याभिषेक होगा। बस, यही भाव आचार्य को भी अपनाना चाहिए।
आचार्य के आचार व्यवहार का शिष्य पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है। उसकी सौम्यता, शालीनता, बुद्धिमत्ता , चलना – फिरना, उठना – बैठना, खाना – पीना, बोलना – चालना आदि सभी की नकल उसका शिष्य करता है। यदि आचार्य श्रेष्ठ गुणों से संपन्न है तो उसी प्रकार उसके शिष्य का निर्माण होना भी स्वाभाविक है।
गुरु उसी को जानिए , जो करे शिष्य निर्माण।
सब का हित चिंतन करे, और करे कल्याण।।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को भी नजदीक से देखा था। उसमें जिस प्रकार के अध्यापकों का निर्माण किया जा रहा था, वे सब के सब प्राचीन कालीन भारतीय आचार्यों की अपेक्षा गुणों में बहुत ही निम्न स्तर पर खड़े दिखाई देते थे। स्कूली शिक्षा की सारी दुर्बलताओं को स्वामी दयानंद जी महाराज ने गहराई से देखा, समझा और लोगों को सचेत किया कि यदि इस प्रकार की गुणहीन शिक्षा प्रणाली को हमारे देश में लागू किया गया तो गुणहीन नागरिकों का निर्माण होने से संपूर्ण देश गुणहीन लोगों का बन जाएगा।
गुरुकुलों का महत्व
भारत की शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, धार्मिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में गुरुकुलों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। भारत में प्राचीन काल में धौम्य, च्यवन ऋषि, द्रोणाचार्य, सांदीपनी, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि, गौतम, भारद्वाज आदि ऋषियों के आश्रम प्रसिद्ध रहे हैं। जिन्होंने मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण तक में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्धकाल में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य की परंपरा से जुड़े गुरुकुल जगप्रसिद्ध थे, जहां विश्वभर से मुमुक्षुजन आत्म कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु आते थे। इन सभी गुरुकुलों में गणित, ज्योतिष, खगोल, विज्ञान, भौतिक आदि सभी तरह की शिक्षा दी जाती थी।
गुरुकुल से ही राष्ट्र का, निखरे तेज स्वरूप।
गुरुकुल ही दें राष्ट्र को, दिव्यता का रूप।।
महर्षि दयानन्द जी महाराज वेदों के परम भक्त थे। उन्होंने वेद को सभी सत्य विद्याओं का पुस्तक कहकर उसका महिमामंडन किया। उन्होंने वेद के मर्म को जाना और बड़े गर्व के साथ यह उद्घोष किया कि संपूर्ण मानव समाज को वेदों की ओर लौटना चाहिए। वेदों में परम शांति है और उस शांति को प्राप्त करके ही मानव मोक्षपद को प्राप्त कर सकता है। स्वामी जी ने ईसाई मत की शिक्षा नीति का विरोध किया। उसकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विचारधारा का भी कभी समर्थन नहीं किया। उनकी दृष्टि में ईसाई मत का खोखलापन उसकी धर्म पुस्तक बाइबल से हो जाता है। यही कारण था कि स्वामी जी महाराज लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति को भारत के लिए अनुपयुक्त मानते थे। उन्होंने इस शिक्षा नीति का विरोध केवल विरोध के लिए नहीं किया । इसके विपरीत वह जानते थे कि यदि पश्चिमी जगत की सांप्रदायिक शिक्षा नीति को भारत में लागू किया गया तो देर सवेर भारत के वैदिक सत्य सनातन धर्म का तो विनाश होगा ही साथ ही समाज भी नैतिक रूप से भ्रष्ट हो जाएगा। वे जानते थे कि पश्चिमी जगत की शिक्षा नीति भारत के वेदों का, उपनिषद, रामायण , महाभारत आदि सभी का विनाश पर डालें।
स्वामी दयानंद जी महाराज और वैदिक समाज
स्वामी जी महाराज ने वेद के प्रचार - प्रसार के लिए ही आर्य समाज की स्थापना की थी। उनका यह मानना था कि मानव निर्माण के लिए यदि वेद की शिक्षा की आवश्यकता है तो उसके लिए पूर्णरूपेण समर्पित एक समाज होना चाहिए। जिसे उन्होंने आर्य समाज का नाम दिया।
ऋषि दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज में तन - मन - धन से समर्पित होकर वेद - प्रचार के लिए कार्य भी किया। आर्य समाज की पहली, दूसरी और तीसरी पीढ़ी के समर्पित कार्यकर्ता और नेता, संन्यासी मुनि और त्यागी तपस्वी लोग धूम मचाते हुए वेद प्रचार के लिए जीवन खपा गए।
अपने आर्य समाज के सदस्यों के लिए स्वामी जी ने संदेश दिया कि “वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना – पढ़ना और सुनना सुनाना सभी आर्यों का परम धर्म है।” स्वामी जी महाराज ने सभी आर्यजनों के लिए यह अनिवार्य किया कि वह वेद के साथ जुड़ें । वेद को पढ़ें भी और पढावें भी। सुनें , सुनावें और उसके प्रचार – प्रसार में अपना समय लगावें। इस काम के लिए स्वाभाविक रूप से शिक्षा के केंद्रों की स्थापना करना आवश्यक था।
भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली अर्थात गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की ओर स्वामी जी और उनके बाद उनके शिष्यों का ध्यान गया। फलस्वरूप देश में अनेक गुरुकुलों की स्थापना की गई । पहली व दूसरी पीढी के समर्पित शिक्षा महारथियों ने शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा अनुकरणीय कार्य किया कि लेखनी से भी उनका वर्णन नहीं हो सकता। अनेक आर्य युवाओं ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर देश के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया। स्वामी जी महाराज ने वेदों का हिंदी भाष्य करने की परम्परा का भी श्रीगणेश किया । उसके बाद इस दिशा में भी बहुत ही उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कार्य किया गया।
डॉ राकेश कुमार आर्य