वैदिक सम्पत्ति – 299 , वेदमंत्रों के उपदेश

[यह लेखमाला हम पंडित रघुनंदन शर्मा जी की वैदिक सम्पत्ति नामक पुस्तक के आधार पर सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।]
प्रस्तुति:-देवेंद्र सिंह आर्य
(अध्यक्ष ‘उगता भारत’)

गतांक से आगे…

-इसके आगे वाजीकरण औषधियों का वर्णन इस प्रकार है-
यथा नकुलो विच्छिद्य संदधात्यहि पुनः ।
एवा कामस्य विच्छिन्नं सं धेहि वीर्यावति ॥ ( अथर्व० ६।१३१।५ )

अर्थात् जैसे नेवला साँप को चीथकर फिर जख्मों को भर देता है, वैसे ही मैं गुप्तेन्द्रिय की क्षीणता को ठीक करता हूँ ।

येन कृशं वाजयन्ति येन हिन्वन्त्यातुरम् ।
तेनास्य ब्रह्मणस्पते धनुरिवा तानया पसः॥ (अथर्व० ६।१०१।२)
यथा पसस्तायादरं वातेन स्थूलभं कृतम् ।
यावत् परस्वतः पसस्तावत् ते बधं तां पसः॥२॥
यावदङ्गीनं पारस्वतं हास्तिनं गार्दभं च यत् ।
याववश्वस्य वाजिनस्तावत् ते वर्षतां पसः ॥ अथर्व० (६७२/२-३)

अर्थात् जिससे कृश रहता है और जलदी पात हो जाता है, उस कारण को दूर करके तेरे उपस्थ को धनुष की तरह फैलाता हूँ। जिस तरह से वह स्थूल हो जाय और जितना आवश्यक है, उतना बढ़ जाय, वह उपाय करता हूँ । जितना समर्थ पुरुषों का होना चाहिये, उतना (गार्दभ) बड़ा, (हास्तिन) स्थूल और (वाजिन) तेज हो जाय, वह उपाय करता हूँ ।

यां त्वा गन्धर्वो अखनद् वरुणाय मृतभ्रजे ।
तां त्वा वयं खनामस्योषधि शेपहर्षणीम् ।। (अथर्व० ४/४/१)

अर्थात् जिस औषधि को मृत वरुण के लिए गन्धवं ने खोदा था, उसी वाजीकरण औषधि को मैं खोदता हूँ । इस प्रकार से इन वाजीकरण उपचारों के द्वारा नपुंसकत्वादि दोषों को दूरकर पुरुषों को अच्छी सन्तान उत्पन्न करने के योग्य बनाना वेद का तात्पर्य है । इसीलिए यह चिकित्सा सब चिकित्साओं से अधिक मूल्यवान् है । क्योंकि इसी के द्वारा भविष्य प्रजानिर्माण का कार्य सम्पादन होता है। इस प्रकार से हमने यहाँ तक वेदों से आयुर्वेदसम्बन्धी आवश्यक उपदेशों को इकट्ठा कर दिया है। इतने आयुर्वेदिक ज्ञान से मनुष्य आरोग्यता के नियम समझ सकता है और रोगों से आरोग्यता प्राप्त कर सकता है। यह व्यक्तिचिकित्सा का उपदेश हुआ। अब समाजचिकित्सा का वर्णन करते हैं। व्यक्तिव्याधियों की आयुर्वेदिक चिकित्सा के बाद वेद में सामाजिक व्याधियों की निवृत्ति का भी उपदेश किया गया है । प्रायः देखा जाता है कि बहुत सी चेपी व्याधियाँ उठ खड़ी होती हैं, जो आयुर्वेदिक चिकित्सा से दूर नहीं होतीं और सर्वत्र फैलकर असंख्य मनुष्यों का संहार कर देती हैं। उनके दूर करने का उपाय केवल यज्ञ ही हैं । हम यज्ञों का विस्तृत वर्णन प्रथम खण्ड में कर आये हैं और बतला आाये हैं कि यज्ञों का सिद्धांत शिल्प और विज्ञान की नींव पर स्थिर है । वाल्मिकि रामायण बालकाण्ड में यज्ञों के लिए नाना प्रकार के शिल्पो और विज्ञानों की आवश्यकता बतलाई गई है + । शतपथ ब्राह्मण में बतलाया गया है कि ऋतुसम्बन्धिनी सार्वजनीन बोमारियां यज्ञों से ही दूर होती हैं X। वेद स्वयं उपदेश करते हैं कि अज्ञात और सर्वत्र फैली हुई चेपी और मारक बीमारियाँ यज्ञों से दूर हो जाती हैं। अथर्ववेद में आया है कि-

मुश्वामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मात राजयक्ष्मात् ।
ग्राहिग्राह यद्येतदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुत्कमेतम् ।। ( अथवे० ३।११।१ )
सहस्राक्षेण शतवीर्येण शतायुषा हविषाहार्थमेनम् ॥
इन्द्रो यथैनं शरदो नयात्यति विश्वय दुरितस्य पारम् । (अथर्व० ३।११।३ )

अर्थात् हे मनुष्य ! तुझें मैं हवन के द्वारा अज्ञात महामारी रोग से और क्षयरोग से सुखमय जीवन के लिए छुड़ाता है । इस रोगी को असाध्य रोगो ने पकड़ रक्खा है, इसलिए हे इन्द्र और अग्नि ! आप इसे आरोग्य करें।
क्रमशः

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