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लेखक आर्य सागर खारी
भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति पर्व उत्सव प्रधान रही है,मनोयोग से इसे जाने समझे तो आज भी यहां हर एक दिन पर्व है। भारत की संस्कृति को यदि समझना है तो हमें भारतीय संस्कृति के नियामक ग्रंथों ग्रहृया सूत्रों का अवलोकन करना होगा। जिनमें प्राचीन भारतीय घरेलू पर्व, जीवन के दैनिक कर्तव्यों का भौतिक सुंदर दृश्य मिलता है। भारत को अतीत में जगतगुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करने में कल्प अर्थात सूत्र साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
भारतीय संस्कृति में मनमर्जी मनोविलास के लिए पर्व उत्सवों की रचना या कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है। प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का प्रत्येक पर्व अपने मूल स्वरूप में आध्यात्मिक व वैज्ञानिक महत्व रखता है। ऋतु चक्र के परिवर्तन पृथ्वी के जटिल एकल परास्थितिकी तंत्र के सहचर तारतम्यता के साथ-साथ यहां पर्वों का निर्माण हुआ है।
यज्ञ होम मंत्र पाठ के बगैर यहां किसी पर्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। लेख के आरंभ में जब हमने कहा यहां हर एक दिन पर्व है तो आज के दिन से ही गवेषणा करते हैं। आज अगहन मास की पूर्णिमा है। आज के दिन प्राचीन भारत में प्रत्येक घर में सूर्यास्त या संध्या की बेला में चुनिंदा ऋचाओं से स्थलीपाक से होम हवन किया जाता था पश्चात में 5 महीने से अधिक अवधि के लिए चारपाई या पलंग पर शयन को छोड़कर जमीन पर पलाश मुंज आदि के आसन पर शयन किया जाता था। इस कर्म को प्रत्यारोहण कर्म नाम दिया गया। विशेष पकवान बनाया जाता था वेदवेत्ता अतिथियों को भी भोजन कराया जाता था।
पूरी शीत ऋतु से लेकर बसंत के समापन ग्रीष्म ऋतु के आगमन तक जमीन पर शयन चलता था। पारस्कर ,आपस्तम्ब आश्वलायन आदि दर्जनों उपलब्ध ग्रह्मसूत्रों में इस कर्म का या पर्व का विस्तृत उल्लेख मिलता है विधि विधान के साथ। यहां तक की कमरे में मां-बाप उनकी संतानों के सोने का क्रम किस दिशा में सोना चाहिए इसका भी उलेख मिलता है । इन ग्रंथो के कतिपय स्थलों में यह निष्कर्ष निकलता है कि जैसा आज हम देखते हैं संतानों के लिए अलग शयन कक्ष बनाया जाता है मां-बाप अलग शयन करते हैं ऐसा प्राचीन घरेलू जीवन में ऋषियों द्वारा सूत्र ग्रंथो में कोई उल्लेख नहीं मिलता यहां बच्चों का मां-बाप के साथ शयन का ही विधान मिलता है। यह भारत की आचार चरित्र संयम प्रधान संस्कृति का सूचक बोधक है।
कुछ ग्रहृया सूत्रों में इस प्रत्यरोहण कर्म के करने का विधान चार पाई या पलंग को छोड़कर जमीन पर सोने का काल शरद ऋतु की समाप्ति हेमंत् ऋतु के आगमन के प्रथम दिन को भी बताया है।
अब यदि हम पारिस्थितिकी तंत्र से इस विधि विधान की विवेचना करें तो इस श्रावण मास पूर्णिमा से लेकर अगहन पूर्णिमा के बीच सांप आदि ठंडे रक्त के निशाचर या दिनचर जीवों कीटो के लिए सुबह शाम भोजन रखने का विधान मिलता है जिसमें जौ के सत्तु आटा चावल को किसी एकांत स्थल में गांव के बाहर प्रत्येक दिन प्रातः सायं दोनों समय बलिभाग के रूप में रखने का विधान मिलता है ।सांप सत्तु या चावल नहीं खाते लेकिन सांपों का भोजन चूहा आदि का यह प्रिय भोजन है वह इसे खाते हैं और यह शोधों से सिद्ध है जहां एक चुहा होता है उसके कुछ सैकड़ो मीटर की परिधि में में एक सांप आवश्यक होता है जंगल क्षेत्र के लिए ।ऐसे में सांपों को भी सहज भोजन मिल जाता है चूहे के रूप में । मानव पोषित आहार श्रृंखला का इससे सुंदर वैज्ञानिक उदाहरण आपको किसी संस्कृति में नहीं मिल सकता। जहां आप प्रत्यक्ष व परोक्ष तौर पर जीव हिंसा से बच जाते हैं। सांपों से टकराव भी नहीं होता ४ महीने इस सर्पबलि कृत्य का विधान सूत्र साहित्य में मिलता है। प्रत्यारोपण कर्म के दिन सांपों आदि जीवों के लिए रखे जाने वाले परोक्ष भोजन को बंद कर दिया जाता था क्योंकि सांप ठंडे रक्त के प्राणी है सर्दियां आते ही वह शीत निद्रा में चले जाते हैं। यही कारण रहा अगहन की पूर्णिमा से जमीन पर सोना आरंभ कर दिया जाता है क्योंकि सांपों की सक्रियता शून्य हो जाती है ऐसे में सर्प दंश का भी कोई भय नहीं रहता था।
भारतीय संस्कृति जियो और जीने दो की संस्कृति रही है। यहां प्राणी जन्य टकराव से बचने के लिए विविध उपायों को प्राथमिकता दी गई है। इस संस्कृति के मूल पर्वों की आत्माओं के साथ आज हमने छेड़छाड़ कर दी है मनमानी व्याख्या के कारण यह पर्व विकृत हो गए हैं तो अधिकांश प्राचीन पर्व लुप्त हो गए हैं जैसे की यह प्रत्यारोहन पर्व अब हम जमीन पर सोते ही नहीं है।
भारत का प्रत्येक मौलिक पर्व अपने विविध गहन गंभीर पक्षो को समाहित किए हुए हैं।