इस प्रकार की पदों की राजनीति में कुत्तों की भाति लड़ते हुए ऐसे लोग भी देखे जाते हैं जिनके माता या पिता में से कोई कभी उक्त आर्य समाज का प्रधान रहा था। वह केवल इस बात के दृष्टिगत लड़ाई कर रहे होते हैं कि कभी मेरे पिता ने इस आर्य समाज के अमुक पद पर काम किया था तो मैं क्यों नहीं कर सकता ? पर ऐसा सोचते समय वे यह भूल जाते हैं उसके पिता के संस्कार कुछ और थे और उनके पश्चात इंग्लिश मीडियम में पढ़कर व जवानी भर नौकरी करने के पश्चात तेरे वे संस्कार तो बन ही नहीं पाये, जो तेरे पिता के भीतर थे। इसके उपरांत भी अब तू किस आधार पर अपने आपको इस आर्य समाज के अमुक पद का दावेदार घोषित करता है ? सच्चाई यह है कि आर्य समाज मंदिरों का कोई भी पद अनुवांशिक नहीं है। यह किसी व्यक्ति की योग्यता पर निर्भर करता है कि कौन व्यक्ति किस पद के लिए अपनी पात्रता सिद्ध कर चुका है ? स्पष्ट है कि यह पात्रता प्रत्येक व्यक्ति अपनी कार्यशैली, कार्यनीति और कार्य व्यवहार को दिखाकर ही सिद्ध कर पाता है।
इस सारी स्थिति के लिए बाहरी असामाजिक तत्व ही जिम्मेदार नहीं हैं । जिम्मेदार वे लोग भी हैं जो अपने आपको विद्वान मानते हैं। इन विद्वानों की एक सबसे बड़ी कमजोरी होती है कि यह पलायनवादी होते हैं। विद्वान होने का अहंकार पालकर इनके दिमाग में यह बात बैठ जाती है कि उन्हें संसार के किसी भी प्रकार के पद आदि से कोई लेना-देना नहीं है और उन्हें इस प्रकार का दिखावा करना चाहिए कि जैसे वे इन सबसे ऊपर उठ गए हैं। वास्तव में जो लोग इस प्रकार की मानसिकता से ग्रस्त हो जाते हैं उनकी विद्वत्ता अधकचरी होती है । या तो वे परिस्थिति का सही ढंग से सामना करने में अपने आपको अनुपयुक्त मानते हैं या फिर वह यह भूल जाते हैं कि संसार के प्रति तेरा कर्तव्य क्या है ? व्यवस्था को व्यवस्थित बनाए रखने में तेरी उपयोगिता क्या है ! और यदि तू पलायन कर गया तो इसका परिणाम क्या होगा ? वे यह भी भूल जाते हैं कि यदि तू ऐसा करेगा तो निश्चित रूप से तेरे स्थान पर कोई छोटी सोच का व्यक्ति आएगा जो संगठन का, समाज का और राष्ट्र का अहित करेगा।
महर्षि मनु का आदर्श उदाहरण
जब प्राचीन काल में धर्म के शासन में या धर्म की व्यवस्था में कुछ असामाजिक तत्वों ने व्यवधान डालना आरंभ किया तो ऋषियों ने महर्षि मनु से निवेदन किया कि वह इस समय राजा पद को स्वीकार करें। उस समय महर्षि मनु ने भी इस बात का विरोध किया और कहा कि मेरा राजा पद से कोई मोह नहीं है। तब उपस्थित महात्माओं के उस विद्वतमंडल ने महर्षि मनु को समझाया कि प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर किसी विशिष्ट कार्य के संपादन के लिए ही संसार में भेजता है। जीवन की उपयोगिता अपना कल्याण करने में नहीं है बल्कि संसार का कल्याण करने के लिए मानव जन्म मिलता है। यदि आप सक्षम और समर्थ होकर संसार का कल्याण करते हुए आत्म कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ोगे तो निश्चय ही आप निष्काम कर्म योगी होकर मोक्ष पद के अधिकारी होओगे। आपको आर्य संस्कृति और वेदनिंदक लोगों का संहार कर इस समय वैदिक धर्म की रक्षा करते हुए सज्जन समाज के कल्याण के लिए आगे आना चाहिए। इस प्रकार के आप्त वचनों को सुनने के पश्चात महर्षि मनु ने राजा पद को स्वीकार किया।
अब आप तनिक कल्पना कीजिए कि यदि महर्षि मनु ऐसा नहीं करते तो क्या होता ? क्या तब आर्य संस्कृति की रक्षा हो पाती? कदापि नहीं। इसी प्रकार यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सही समय पर अपने शत्रु संहार करने या राक्षसों का वध करने के धर्म को विस्मृत कर गए होते तो भी क्या होता ? क्या तब वैदिक संस्कृति बच पाती? मैं फिर कहूंगा कि कदापि नहीं। यदि श्री कृष्ण जी भी ऐसा ही करते कि वह भी आत्मकल्याण के लिए कहीं वनों में चले गए होते तो भी क्या आर्य संस्कृति की उस समय रक्षा हो पाती ? हम फिर कहेंगे कि कदापि नहीं।
विद्वानों को संसार से पलायन नहीं करना चाहिए । उन्हें महर्षि मनु, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, योगीराज श्री कृष्ण जी और स्वयं स्वामी दयानन्द जी महाराज जैसे महापुरुषों के जीवन का और उनके आदर्शों का अनुकरण करना चाहिए। भारतवर्ष में राजा जनक जैसे अनेक ऐसे राजा हुए हैं जिन्होंने राजकाज करते हुए भी अपने आपको विदेह बनाकर रखा। निष्काम कर्मयोग में विश्वास रखने वाले भारतवर्ष में विद्वान वही होता है जो कीचड़ में रहकर भी अपने आपको निष्कलंक और निष्पाप बनाये रखने में सफल होता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है…
कई बार ऐसा भी होता है कि विद्वान लोग किसी आर्य समाज में बैठी चांडाल चौकड़ी का सम्यक रूप से सामना करने में अपने आपको कमजोर या असमर्थ पाते हैं। तब वह उस चांडाल चौकड़ी के लिए या तो रास्ता छोड़ देते हैं या फिर उनसे संघर्ष करने के लिए उनसे बड़े किसी बदमाश या असामाजिक तत्व को आर्य समाज में प्रवेश दिला देते हैं। सचमुच में वे दोनों प्रकार से ही गलती कर रहे होते हैं। इसके अतिरिक्त कई बार ऐसा भी होता देखा गया है कि किसी विद्वान को कोई कंस या दुर्योधन प्रवृत्ति का व्यक्ति समाज में घुसकर जबरन असहाय, असमर्थ और बेसहारा कर देता है।
इन सबको देखने के लिए इस समय आर्य समाज में किसी के पास फुर्सत नहीं है । दुनियादारी की भागदौड़ में आर्य समाज के लोग सम्मिलित हो चुके हैं। जो आर्य समाज श्रीरामजी और श्रीकृष्ण जी की क्षत्रिय परंपरा को लेकर आगे बढ़ा था, जिसने यह संकल्प लिया था कि कहीं पर भी अन्याय या अत्याचार नहीं होने देंगे , उसी की नाक नीचे अन्याय और अत्याचार आर्य समाज मंदिरों जैसी पवित्र संस्थाओं में बैठकर खुलेआम हो रहा है। यदि एक प्रक्रिया के अंतर्गत किसी उच्च पदाधिकारी से अर्थात प्रदेश स्तर के किसी नेता से शिकायत की जाती है तो पता चलता है कि वहां नीचे से भी बुरा हाल है।
आर्य समाज में ऐसे लोगों का प्रवेश या वर्चस्व स्थापित होना जो एक दूसरे के अधिकारों का हनन करते हैं ,एक दूसरे के प्रति घृणा का परिवेश सृजित करते हैं , एक दूसरे को नीचा दिखाने की हरकतों में चौबीसों घंटे लगे रहते हैं, एक दूसरे को अपमानित करने का कोई अवसर न चूकते हैं , सचमुच चिंता का विषय है। ऐसे लोगों को भी आर्य समाज के किसी प्रतिष्ठित पद पर बैठे हुए मैंने देखा है जो आचमन तक करना भी नहीं जानते, या फिर जो सभा में बैठे-बैठे सोते रहते हैं। इन्हीं की निष्क्रियता अकर्मण्यता और ऋषि सिद्धांतों के विरुद्ध काम करने की प्रवृत्ति ने अनेक आर्य समाजों का बेड़ा गर्क कर दिया है।
आर्य समाज का सफाई अभियान
स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपने समय में जिस मठाधीश प्रवृत्ति या मानसिकता का विरोध किया था, यदि आज आर्य समाज के भीतर भी उसी प्रवृत्ति का विकास हो रहा है और धीरे-धीरे वह लोगों के लिए जी का जंजाल बनती जा रही है तो यह ऋषि के मिशन को मार देने की दिशा में किया जा रहा घोर पाप है। जिसका समय रहते उपचार किया जाना आवश्यक है। कभी मंदिरों के मठाधीश जिस प्रकार पापपूर्ण आचरण मंदिर जैसी पवित्र संस्थाओं में बैठकर किया करते थे, वही आचरण आर्य समाज के कई पदाधिकारी करते देखे जाते हैं।
दयानंद जी महाराज ने आर्यसमाज की स्थापना इस प्रकार की लड़ाई की मानसिकता या मठाधीश प्रवृत्ति को बनाए रखने के लिए नहीं की थी, बल्कि इस प्रकार की हरकतों और पापपूर्ण मानसिकता को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रेरित होकर की थी। पर व्यवहार में स्वामी जी का ही नाम लेकर काम करने वाले लोगों ने मटियामेट कर दिया है। नाम ऋषि का लेते हैं और काम ‘किसी’ के लिए करते हैं। ऋषि का नाम लेकर ‘किसी’ के लिए काम करना यदि यह आर्य समाज का स्थायी संस्कार बन गया तो घोर अनर्थ हो जाएगा। उस समय मत कहना कि ऋषि को किसी व्यक्ति विशेष ने या किसी व्यवस्था ने मार दिया था बल्कि समझना कि ऋषि के सिद्धांतों की हत्या करके उनकी वास्तविक हत्या हमने की है।
स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना एक ‘सफाई अभियान’ के रूप में की थी। उनका यह ‘सफाई अभियान’ देश , समाज और राष्ट्र की मशीनरी के प्रत्येक पुर्जा में आई निष्क्रियता के विरुद्ध छेड़ा गया अभियान था। व्यक्ति की मानसिक कुंठा को खोल कर इस प्रकार साफ करने का अभियान था जैसे मोटरसाइकिल के पुर्जों को खोल – खोलकर उसका मालिक साफ करता है। यदि ऋषि का मिशन अपने इस सफाई अभियान की गंभीरता से दूर चला गया है तो इसके लिए जिम्मेदार लोगों को अपने आप अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए।
आर्य समाज और ऋषि दयानंद का उद्देश्य
स्वामी जी ने आर्यसमाज की स्थापना की तो इसका अभिप्राय यह नहीं था कि वह मंदिरों के विरोधी थे । उन्हें यह भली प्रकार ज्ञात था कि मंदिरों की स्थापना भी जब कभी की गई थी तो उस समय मंदिरों में राष्ट्रचिंतन, धर्म चिंतन और आत्मचिंतन बड़ी ऊंचाई के साथ निकलता था। उनकी सोच थी कि मंदिर संस्कृति के इसी वास्तविक स्वरूप को पुनः स्थापित किया जाए। उन्होंने मंदिरों का वास्तविक स्वरूप मंदिरों को लौटाया। इसलिए आर्य समाज की स्थापना कर उनमें यज्ञ की परंपरा को पुनर्जीवित कर उस पर धर्मचिंतन ,राष्ट्रचिंतन और आत्मचिंतन को आवश्यक रूप से लागू कराया।
यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि आज की अधिकांश आर्य समाजों में इसका उल्टा हो रहा है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि साप्ताहिक सत्संगों में भी लोगों की उपस्थिति कम होती जा रही है। इसके लिए मंदिरों की राजनीति भी जिम्मेदार है। इस प्रकार भारत की मंदिर संस्कृति को स्वामी जी ने उसकी मौलिकता प्रदान की तो उनके कई मानने वाले लोगों ने उनकी मान्यता को विकृति प्रदान की। यदि आर्य समाज के पदाधिकारी आज के परिवेश में अपनी स्वार्थ पूर्ण राजनीति के फेर में पड़कर ऋषि के मिशन की धत्ता बता रहे हैं तो उनसे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे देश की राजनीति का सफाई अभियान चलाकर स्वामी दयानन्द जी के सपनों का भारत बना सकेंगे ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक की आर्य “समाज एक क्रांतिकारी संगठन” नामक पुस्तक से)