"संसार के लोग जितनी मात्रा में सुख चाहते हैं, उतना वह मिलता नहीं। बहुत थोड़ा मिलता है, और शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।" "दुख भोगना बिल्कुल नहीं चाहते, फिर भी बहुत सारा दुख भोगना पड़ता है।" संसार के लोगों को इसका कारण समझ में नहीं आ रहा।
इसका कारण है, कि "मनुष्य कहीं न कहीं कुछ भूल कर रहा है।" क्या भूल कर रहा है? "सुखी होने के लिए वेदों के अनुसार उसे चार वस्तुओं की आवश्यकता है, धर्म अर्थ काम और मोक्ष। जिसको ये चारों वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं, वह सुखी हो जाता है। और जिसको ये चारों वस्तुएं प्राप्त नहीं हो पाती, वह दुखी रहता है।"
आइए, इन चारों वस्तुओं को समझने का प्रयास करें। 'धर्म' का तात्पर्य है, "ईश्वर के आदेश का पालन करना। ईश्वर का आदेश वेदों में लिखा है।" सृष्टि के आरंभ में 4 वेद रूपी संदेश ईश्वर ने स्वयं ही मनुष्यों को दिया था। "अब जो व्यक्ति वेदों को किसी योग्य विद्वान गुरु जी से पढ़ेगा, उनको समझेगा, वेदों के अनुसार आचरण करेगा, वह सुखी क्यों न होगा? अवश्य सुखी होगा।" "क्योंकि वह व्यक्ति, संसार के राजा ईश्वर के आदेश का पालन कर रहा है। इसलिए ईश्वर उसको अवश्य ही सुख देगा।" जैसे कि ईश्वर का आदेश है, "रात को जल्दी सोना। सुबह जल्दी उठना। व्यायाम करना। ईश्वर का ध्यान करना। यज्ञ हवन करना। शाकाहारी भोजन खाना। दूसरों की सहायता करना, इत्यादि।" ये सब कार्य ईश्वरोक्त या वेदोक्त होने से "धर्म" कहलाते हैं। "इस धर्म के आचरण से ही अर्थ काम और मोक्ष, इन तीनों की प्राप्ति होती है, ऐसा ऋषियों ने बताया है।"
अब धर्म का पालन करते हुए जो धन कमाया जाता है, उसको "अर्थ" कहते हैं। अर्थात ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से वेदोक्त व्यवसाय करके धन कमाना, यह "अर्थ" है। "जैसे विद्या पढ़ाना, अच्छी वस्तुओं का व्यापार करना, इंजीनियरिंग करना चिकित्सा करना देश की रक्षा के लिए सैनिक बनना इत्यादि वेदानुकूल कर्म होने से धर्म कहलाता है।" और इस धर्म से जो धन मिलता है, उसका नाम "अर्थ" है। चोरी डकैती लूटमार स्मगलिंग काला बाजारी आदि वेद विरुद्ध आचरण करना अधर्म है। इस अधर्म से तो "अनर्थ" की ही प्राप्ति मानी जाती है, अर्थ की नहीं।
वेदानुकूल व्यवसाय से कमाए हुए अर्थ से जो वेदोक्त वस्तुओं का सेवन करना है, वह "काम" कहलाता है। "जैसे ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से वेदोक्त व्यवसाय से कमाए हुए धन से भोजन वस्त्र मकान मोटर गाड़ी आदि वस्तुएं खरीदना और अपने जीवन की रक्षा करना, यह "काम" शब्द का अर्थ है।" यह भी तभी 'काम' कहलाएगा, जब धर्म के अनुकूल हो। "अंडे मांस खाना शराब पीना व्यभिचार करना जुआ खेलना आदि वेद विरुद्ध कार्यों में पैसे खर्च करना, यह काम नहीं कहलाता, बल्कि अकाम है। क्योंकि यह सब करना वेद विरुद्ध होने से अधर्म है। जो अधर्म से भौतिक वस्तुओं का सेवन करना है, वही "अकाम" है।
इसी प्रकार से धर्म से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। "अर्थात वेदों को पढ़कर उस ज्ञान को अपने जीवन में धारण करना, निष्काम कर्म करना सेवा परोपकार दान दया आदि कर्म करना, वेदोक्त सर्वव्यापक निराकार सर्वशक्तिमान आनन्दस्वरूप ईश्वर की उपासना करना, यह धर्म का आचरण कहलाता है। इस आचरण से "मोक्ष" प्राप्त होता है। अर्थात आत्मा जन्म एवं मृत्यु के चक्कर से छूट जाता है। इससे वह सब दुखों से छूटकर ईश्वर के बहुत लंबे समय तक आनंद को भोगता है, इसको "मोक्ष" कहते हैं। अतः ये चार वस्तुएं हमें और आप सबको प्राप्त करनी चाहिएं।"
"जो व्यक्ति इन चारों वस्तुओं को प्राप्त करेगा, वह इस वर्तमान जीवन में भी सुखी रहेगा और उसका मोक्ष भी हो जाएगा। मोक्ष में 31 नील 10 खरब और 40 अरब वर्षों तक सारे दुखों से छूटकर, ईश्वर के उत्तम आनन्द का भोग करेगा। ऐसा ऋषियों ने वेदों के आधार पर बताया है।"
"आजकल संसार के लोगों ने धर्म को भी छोड़ दिया है, और मोक्ष प्राप्त करने का लक्ष्य भी छोड़ दिया। केवल पैसे और भौतिक भोगों के पीछे पड़े हैं। इन भौतिक भोगों को भोगने में ही अपना अमूल्य मानव जीवन नष्ट कर रहे हैं। यही सबसे बड़ी भूल हो रही है, जिसके कारण संसार के लोग दुखी हैं। ऐसा करने से तो उन्हें सुख नहीं मिलेगा।" "क्योंकि ऐसा करना ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध होने से "अधर्म" है। अधर्म से सुख नहीं मिलता। और अधर्म से अर्थात चोरी छल कपट धोखा बेईमानी आदि अधर्म करके जो धन कमाया जा रहा है, वह भी तो "अनर्थ" है। अनर्थ से भी सुख नहीं मिलता।"
इसी प्रकार से "अंडे मांस आदि खाकर शराब आदि पीकर इस अधर्म से जो अपने जीवन की आवश्यकताएं पूरी की जा रही हैं, वह "अकाम" है। उससे भी सुख नहीं मिलता। सारी बात का सार यह हुआ कि "अनर्थ और अकाम" के कारण से सारी दुनियां आज दुख सागर में डूबी हुई है।"
"यदि आप सुखी होना चाहते हों, तो वर्तमान में चल रही "अनर्थ और अकाम" की इस अंध परंपरा को छोड़कर, ऊपर बताई धर्म अर्थ काम और मोक्ष, ये चारों वस्तुएं आपको धारण करनी पड़ेंगी, तभी आप सुखी हो पाएंगे। इसके अतिरिक्त सुख प्राप्ति का कोई उपाय नहीं है।"
—– “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।”