राजनीति के क्षेत्र में तो हमने मैदान पर उनका अधिकार स्वीकार किया ही जिनका अधिकार नहीं होना चाहिए था। हमने धर्म के क्षेत्र में भी उन पाखंडियों और अंधविश्वासियों को खुला मैदान सौंप दिया जिन्होंने सदियों से देश के समाज का पाखंडीकरण किया था। इन सब बातों को देखकर आज यह कहने में कष्ट होता है कि परिणाम आशानुकूल नहीं आए या कहिए कि वर्तमान समय में परिणाम की दिशा विपरीत हो गई लगती है। जिस प्रकार तेजी से देश में पाखंड फैल रहा है,अंधविश्वास में वृद्धि हो रही है ,सामाजिक मूल्यों का पतन हो रहा है, माता-पिता के लिए वृद्धाश्रम बनाए जा रहे हैं, उन सबके बीच कुछ ऐसा लगता है जैसे मानव का कोई बहुत मूल्यवान धन उससे कहीं खो गया है। बड़े यत्न से प्राप्त की गई कोई चीज जब खो जाती है तो जिस प्रकार उस चीज के खो जाने पर उसके स्वामी को दु:ख होता है वैसा ही दु:ख आज मां भारती को हो रहा है। मां भारती को अपेक्षा थी कि उसका जो कुछ भी अतीत में लूटा गया है, वह उसे ससम्मान लौटाया जाएगा, पर जिनसे ऐसी अपेक्षा की गई थी वह भी दूसरे वेश में लुटेरे ही निकले। यदि इन नए लुटेरों को सहज रूप में आर्य समाज ने काम करने दिया अर्थात लूट मचाने दी तो इस क्रांतिकारी संगठन के लिए भी कहना पड़ेगा कि इसने भी ऋषि दयानंद जी के उस साहस को कहीं पीछे छोड़ दिया, जिसने लॉर्ड नॉर्थ ब्रुक जैसे विदेशी अत्याचारी शासक का बहादुरी के साथ सामना कर उसके साम्राज्य के अंत होने की प्रार्थना करने संबंधी बात कही थी।परिवार ,समाज और राष्ट्र के संस्कारों को खोकर हमने जिस नई दुनिया को बसाया है वह दुनिया रसहीन और बेस्वाद सी लगती है।
सामाजिक परिवेश बहुत ही कष्टदायक है
इस सबके बीच निकट के संबंधों में हिंसा का प्रवेश होना अत्यधिक चिंताजनक है। खून ही खून को पी रहा है और खून ही खून का दुश्मन हो गया है। निकट के रिश्तों में बंधे जिन लोगों को देखकर कभी आत्मिक प्रसन्नता हुआ करती थी , आज लोग उनको देखकर ही नाक भौं सिकोड़ते दिखाई देते हैं। जिनसे उम्मीदें थीं उन्होंने ही उम्मीदों के पर कतर दिए हैं। यदि आर्य समाज पहली सरकार की शिक्षा नीति का विरोध करता, इतिहास के साथ उसके द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का विरोध करता, अपने स्वभाव के अनुसार जन जागरण करते हुए लोगों को गलत नीतियों के विरुद्ध उठ खड़ा होने की शिक्षा देता तो बहुत कुछ ऐसा था जिसे बचाया जा सकता था। इन कष्टदायक परिस्थितियों के लिए सरकारों का भारत विरोधी स्वभाव और आर्य समाज का उसके विरुद्ध क्रांतिकारी ढंग से सड़क पर न उतरना ही अधिक जिम्मेदार रहा है।
नैतिक पतन हुआ देश का, खड़े रहे हम मौन।
कौन – कौन दागी बने, उत्तर देगा कौन?
हमारे देश में माता के लिए कहा जाता है कि वह अपनी ममता के चलते कभी भी संतान के प्रति हिंसक नहीं हो सकती पर आज तनाव और कुंठा से ग्रसित आधुनिक कही जाने वाली नारी अपनी संतान के प्रति हिंसक घटनाएं करती हुई जब समाचार पत्रों में प्रकाशित होती है तो अपार कष्ट होता है। ध्यान रहे कि जब ममता अपनी धुरी से हिल जाती है या अपनी धुरी से इधर-उधर होकर गति करते हुए भटक जाती है तो उसके परिणाम बड़े खतरनाक होते हैं। इसी प्रकार पिता का पितृत्व भी कहीं ना कहीं अपनी धुरी से हिला हुआ दिखाई दे रहा है। जबकि संतान का माता-पिता के प्रति दृष्टिकोण तो बहुत ही कष्टदायक हो चुका है। बहन - भाई या पिता- पुत्री के बीच के रिश्तों की पवित्रता अभी छुटपुट रूप में भंग होती हुई दिखाई दे रही है पर भविष्य कैसा हो सकता है इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ।
अवैधानिक लोग कर रहे हैं विवाह संस्कार
देश का सर्वोच्च न्यायालय और पूरी न्यायिक व्यवस्था तथा राजनीति में बैठे लोग जो देश को दिशा देने की बात करते हैं, विधि की व्याख्या करते हैं ,विधि का निर्माण करते हैं , भी नौजवान लड़के लड़कियों के हिंदू / वैदिक समाज में पूर्णतया निषिद्ध संबंधों में होने वाले प्रेम विवाह को भी मान्यता देते जा रहे हैं, चाहे ऐसा प्रेम विवाह निकटतम संबंधों में ही क्यों ना हो गया हो। मानव की मनुजता को भुलाकर उसके भीतर पशुता को स्थापित किया जा रहा है और समाज के जिम्मेदार लोग कह रहे हैं कि आधुनिकता के नाम पर यह सब कुछ उचित है।
आर्य समाज मन्दिर में कभी विवाह संपन्न होते थे तो उनको पूर्णतया प्रामाणिक माना जाता था। आज आर्य समाज मंदिरों में अनेक स्थानों पर बड़ी संख्या में ऐसे लोग प्रवेश करने में सफल हो गए हैं जो अवैधानिक ढंग से विवाह कर रहे हैं। कहीं-कहीं ऐसे प्रकरण भी सामने आए हैं जहां मुस्लिम लड़के आर्य समाजों में प्रवेश पाकर इस प्रकार के संस्कार करवा रहे हैं। जिनका आर्य समाज से दूर-दूर का कोई संबंध नहीं है, वे आर्य समाज में प्रवेश पाने में कैसे सफल हो गए और कैसे उन्हें इस प्रकार के अवैधानिक कृत्य करने के अधिकार मिल गए ? इस ओर आर्य समाज के नेतृत्व का ध्यान जाना अपेक्षित है। आर्य समाज मंदिरों का पूर्णतया व्यवसायीकरण हो गया है वहां पर वैदिक समाज में निषिद्ध संबंधों में भी विवाह संस्कार कराये जा रहे हैं। टी0वी0 चैनलों पर आर्य समाज के द्वारा कराए जा रहे विवाहों की प्रामाणिकता पर जब संदेह करते हुए सवाल उठाए जाते हैं तो बड़ा कष्ट होता है।
जैसे पौराणिक मंदिरों में कुपात्र लोग अपनी तिकड़मबाजी के आधार पर पंडिताई का काम करने में सफल होते रहे हैं, वैसे ही कई स्थानों से ऐसे समाचार प्राप्त हो रहे हैं जहां पर कुपात्र लोग आर्य समाज मंदिरों में बैठकर अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को चला रहे हैं। कइयों ने इस कार्य को वैधानिकता का चोला पहनाने के उद्देश्य से प्रेरित होकर आर्य समाज मंदिर बना लिया है, या वेदशाला या ऐसा ही कोई भ्रमित करने वाला नाम अपनी संस्था को दे दिया है।
कुछ तो करना होगा ….
ऐसे में जरा सोचिए कि क्या हम फिर उस पशु जगत की ओर जा रहे हैं जिसमें रिश्तों की कोई कीमत नहीं होती या जिसको समय की रेत पर बहुत पीछे छोड़ते हुए एक सामाजिक आदर्श व्यवस्था हमारे पूर्वजों ने बनाई थी। क्या हम नैतिक मूल्यों को भूलकर अंधी वासना का शिकार होकर अंधकार में भटकते हुए अंधे समाज की स्थापना करने में लगे हैं? लगता है कि हम समाज बनाने के अपने पवित्र दायित्व को ही भूल गए हैं। कमाई – कमाई और पैसा ही पैसा की भूख हमसे हमारे भीतर के आदर्श मानव को छीन चुकी है।
हमारे पूर्वजों ने तो हमें अंधी वासना, अंधकार और अंधानुकरण सबसे रोककर आत्मावलंबी बनने, अपने आपसे ही अपना मार्ग बूझने और आत्मा के प्रकाश में बैठकर पवित्र चिंतन कर पवित्र निर्णय लेने का मार्ग बताया था । उस मार्ग को ही उन्होंने धर्म कहा था। स्वामी दयानंद जी महाराज ने काल के कपाल पर सवार होकर इस धर्म के मार्ग पर खड़े हो गए। उन्होंने बीहड़ जंगल को साफ करने का बहुत भारी परिश्रम किया था। बीहड़ जंगल के बीच एक नई राह बनाकर उन्होंने हमें सीधे वेदालोक से जोड़ दिया था। पर आज जब फिर धर्म के मार्ग में बीहड़ जंगल खड़ा होता जा रहा है तो लगता है कि ऋषि का पुरुषार्थ व्यर्थ ही गया ?
आर्य समाज इस दिशा में क्या कर रहा है? विशेष रूप से तब तो यह प्रश्न और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है जब हम देख रहे हैं कि जिन परिवारों में कभी आर्य समाज की दिव्य रोशनी हुआ करती थी, वहां आज घुप्प अंधेरा हो गया है। जिन परिवारों से आर्य महाशय जन समाज सुधार के अभियान के लिए निकला करते थे, वहां आज पाखंड पसर गया है । जिनके बाप दादा समाज में पाखंड, अंधविश्वास और मूर्ति पूजा के लिए दल बनाकर चला करते थे, उनके बच्चे, बेटे – पोते आज किसी त्यौहार विशेष के अवसर पर जब पाषाण पूजा के या किसी भी प्रकार के अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले स्टिकर लगाकर शुभकामना संदेश भेजते हैं तो आत्मा कराह उठती है। उनके घरों में चारों ओर अंधविश्वास पसर गया है, मूर्ति पूजा हो रही है और उनके बच्चे पाषाण पूजा में लगे हुए हैं। जो दूसरों की बुद्धि को सुधारने के लिए चला करते थे, उनके बच्चों की ही बुद्धि पर पत्थर पड़ गए हैं। पत्थर पूजते – पूजते जो लोग ‘पत्थर के हो गए’ बात उनकी नहीं हो रही जो पत्थर से दूर होकर फिर पत्थर के हो गए हैं बात उनकी हो रही है।
फिर से पत्थर के हो गए लोग
ऐसे अनेक आर्य परिवार हैं जिनके बुजुर्ग समाज में जाकर पाषाण – पूजा, अंधविश्वास के विरुद्ध भाषण झाड़ते हैं , लोगों से दान वसूलकर यज्ञ आदि के कार्यक्रम कराते हैं, पूरी निष्ठा से महर्षि के सपनों को साकार करने में लगे हुए हैं , पर उनके घर में ही मूर्ति पूजा के चित्र लगे होते हैं । किसी कोने में मूर्ति रखी होती है या कोई न कोई ऐसा पाखंड हो रहा होता है जो कि वेद विरुद्ध होता है। फिर से ‘पत्थर के हो गए’ इन लोगों को देखकर लगता है कि स्वामी दयानन्द जी महाराज और उनके बाद के आर्य विद्वानों का पुरुषार्थ व्यर्थ गया।
मैंने ऐसे भी लोगों को देखा है जो स्वयं दारू पीते हैं, मांस खाते हैं और दूसरे प्रकार के निरामिष भोजन का स्वाद लेते हैं और फिर वही आर्य समाज के सत्संगों में साफा बांधकर, कुर्ता धोती पहनकर जाकर आर्य समाजी बनकर बैठते हैं। कितने ही स्थानों पर आर्य समाज के पदाधिकारियों को भी इसी प्रकार का आचरण करते हुए देखा गया है। कितनी ही आर्य समाजें ऐसी हैं जहां पर पापपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं ,इतना ही नहीं ऐसी आर्य समाजों के प्रधान, कोषाध्यक्ष, मंत्री आदि उन पाप कार्यों में लगे हुए देखे जाते हैं।
स्वामी दयानंद जी के जाने के सवा सौ वर्ष पश्चात ही आर्य समाज की ऐसी दयनीय दशा हो जाएगी, यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। बच्चों पर बड़े लोगों के आचरण का प्रभाव पड़ा करता है। यदि बड़े लोगों का आचरण पाखंडी हो तो बच्चों का वैसा बनना भी निश्चित है। जब हमारे अपने लोगों में से अधिकांश ने वेदों का अध्ययन करना छोड़ दिया हो , जब वे अंग्रेजी के गीत गाकर हिंदी /आर्य भाषा की उपेक्षा कर रहे हों, संस्कृत और संस्कृति का अपमान कर रहे हैं तो बच्चों से अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह पवित्र संस्कार लेंगे ?
संतान सबसे बड़ा धन
हमारे ऋषि पूर्वजों ने धन कमाने को अच्छा माना है, पर भौतिक धन से बड़ा धन उन्होंने संतान को माना। इसलिए उनका ध्यान इस ओर जाता था कि धन कमाने से बेहतर उत्तम संतान का निर्माण करना होता है। जिसकी संतान अच्छी होती है, उसके पास दुनिया की सबसे बड़ी दौलत होती है। आज की संतान यदि हिंसक होकर नैतिक मूल्यों से पलायन कर रही है तो इसका एकमात्र कारण यह है कि हमने संतान रूपी धन को कमाने की ओर ध्यान देना बंद कर दिया है। अपनी संस्कृत, संस्कृति ,वेद और वैदिक ज्ञान से शून्य रखकर हम अपने बच्चों के हृदय में अंग्रेजी और अंग्रेजियत के संस्कार डालकर कभी किसी खास दिन होने वाली किसी पूजा पर आए पंडित जी के माध्यम से उन्हें संस्कृत का ज्ञान दिलाने की मूर्खता करते हैं और सोचते हैं कि अपने संस्कारों से हमारा बच्चा एक दिन में ही जुड़ जाएगा ? जबकि ऐसा कदापि संभव नहीं।
हमने विवाह जैसे पवित्र संस्कार को आविष्कृत किया और उसे पूरी निष्ठा के साथ लागू किया। इस संस्कार का उद्देश्य केवल संतान उत्पत्ति करना ही नहीं होता था बल्कि परमपिता परमेश्वर की सृष्टि की क्रमानुगत वृद्धि हो और पवित्र आत्माओं से युक्त समाज और राष्ट्र का निर्माण करना भी इसका उद्देश्य होता था। जिससे माता-पिता संयम का परिचय देते हुए दिव्य संतान की उत्पत्ति करने को अपना धर्म मानते थे। इस धर्म को और भी अधिक ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए वह पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ अपनी संतान के निर्माण में लगे रहते थे। संतान निर्माण की एक पूरी साधना की व्यवस्था समाज में की गई थी। उसमें तनिक सा भी प्रमाद समाज और राष्ट्र के साथ किए जाने वाले छल के समान माना जाता था। इसके लिए ही माता अनेक प्रकार के कष्ट सहन करती थी । नौ महीने गर्भ धारण कर उस समय अनेक प्रकार के संयम बरत कर समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करती थी और आज भी करती है।
माता द्वारा निभाए जाने वाले इस प्रकार के कर्तव्य धर्म की ऋणी होकर संतान उसके प्रति सदैव आदरभाव बनाए रखने वाली होती थी। इसमें कोई स्वार्थ नहीं होता था ना ही पवित्र कार्य का बदला लेने की कोई भावना होती थी। माता निष्काम भाव से संतान का निर्माण करती थी उसकी शिक्षा की समुचित व्यवस्था करती थी उसे पढाने – लिखाने संस्कार देने में अपना पूरा समय देती थी । आजकल की माता की भांति नौकरी को प्राथमिकता न देकर वह निर्माण पर ध्यान देती थी । मां संतान का निर्माण भी अपने लिए नहीं बल्कि समाज और संसार के लिए करती थी। फिर संतान निष्काम भाव से मां के ऋण को चुकता करने के लिए किसी प्रकार का एहसान भाव दिखाते हुए नहीं बल्कि अपना स्वाभाविक कर्तव्य मानते हुए माता के साथ-साथ पिता की भी सेवा करती थी।
स्वामी दयानंद जी महाराज का ऋण
स्वामी दयानंद जी महाराज ने हमें माता-पिता के हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान से अवगत कराया और बताया कि सत्य सनातन वैदिक धर्म में किस प्रकार की पवित्रता इन संबंधों के बीच में है ! बड़े पवित्र और निष्काम भाव से सब एक दूसरे के प्रति समर्पित हैं । कर्तव्य भाव से एक दूसरे के प्रति बंधे हैं और धर्म की पवित्र भावना का सम्मान करते हुए सब एक दूसरे के प्रति सम्मान सत्कार , लगाव और आत्मीयता का संबंध रखते हैं। उनका रिश्ता इतना पवित्र माना जाता था कि एक को सुई चुभती थी तो दूसरे को उसका दर्द होता था। इस दर्द को स्वामी जी महाराज ने धर्म के साथ नत्थी किया और लोगों को समझाया कि इस दर्द का मोल समझकर अपने धर्म के साथ जुड़िए।
जब देश आजाद हुआ तो इस दर्द को भूलकर लोगों ने दूसरी ओर ध्यान देना आरंभ कर दिया। जिस ओर से स्वामी दयानंद जी महाराज ने बड़े यत्न से लोगों को रोका था, लोगों की भीड़ बेतहाशा उसी ओर भागने लगी अर्थात धन कमाने की ओर। उसी का परिणाम है कि मात्र 75 वर्ष में ही बनी बनाई व्यवस्था फिर बिगड़ गई है।
हमने पश्चिम के संबंधों की फीकी कपास में मिठास ढूंढने का काम किया पर वहां कुछ नहीं मिला। अब अपने मूल की ओर जा नहीं सकते और भूल करते-करते जिधर पहुंच गए हैं वहां कुछ मिल नहीं रहा है । उसी का परिणाम है कि समाज किंकर्तव्यविमूढ़ की अवस्था में खड़ा है । रिश्तों में ठंडक आ चुकी है और लोग रिश्तों को बनाना तक भी अब अच्छा नहीं मान रहे हैं। नई पीढ़ी रिश्तों को ही भूलती जा रही है।
जब संतान का निर्माण उपेक्षा भाव से किया जाएगा और संतान का निर्माण अपने हाथों में न रखकर उसे सुशिक्षित और सुसंस्करित गुरुजनों की देखरेख में न देकर कुसंस्कारी टीचरों के हाथों में दे दिया जाएगा तो उसका परिणाम यही आएगा जो आज दीख रहा है।
बुढ़ापा उनको भी आएगा….
हमारे देश में जो सन्तानें वर्तमान समय में अपने माता- पिता की सेवा व सहायता न करके उनके साथ अपमानजनक व्यवहार कर रही हैं, उनकी उपेक्षा कर रही हैं ,उन्हें वृद्ध आश्रमों में भेजकर उनके बुढ़ापे में चार जूते मार रही हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि बुढ़ापा उनको भी आएगा और फिर यदि उनके साथ ऐसा व्यवहार हुआ तो उन्हें कैसा लगेगा ? यदि इस बात पर गहराई और गंभीरता से सोच विचार कर लिया जाए तो स्थिति में बहुत सुधार हो सकता है । माता-पिता के प्रति सम्मानजनक भाव उत्पन्न करके उनसे उत्पन्न होने वाले अपने बहन भाइयों के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण बदल जाएगा और हम सोचेंगे कि जिन माता-पिता के प्रति हम सेवा - भाव रखते हैं सत्कार और सम्मान का भाव रखते हैं उन्हीं से इनका भी निर्माण हुआ है इसलिए हम उनके प्रति भी सहज, सरस और सरल रहने का प्रयास करें। स्वामी दयानंद जी महाराज ऐसी पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर थे।
जो लोग स्वामी दयानंद जी के सपनों का भारत बनाना चाहते हैं आर्यावर्त की बात करते हैं ,आर्य और आर्यभाषा की बात करते हैं, उन्हें अपने परिवार में होने वाली इन छोटी-छोटी बातों की ओर ध्यान देना चाहिए और समझना चाहिए कि यदि वे स्वयं अपने माता-पिता के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार करते हैं, भाई-
बहनों ,चाचा – ताऊ, चाची ,ताई ,मौसी , नाना ,नानी, दादा, दादी, बुआ – फूफा आदि के प्रति उनके हृदय में कोई स्थान नहीं है तो उनका यज्ञ करना या जनेऊ धारण करना या और इसी प्रकार का कोई दिखावा करना केवल पाखंड है। ऐसे लोगों से कभी भी यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे किसी दयानंद के सपनों का भारत या आर्यावर्त बना सकेंगे।
अन्त में तनिक विचार कीजिए कि यदि स्वामी दयानंद जी आज होते तो वह क्या करते? निश्चित रूप से इस सारी उलट-पुलट हुई व्यवस्था को वह ठीक करने के लिए उठ खड़े होते। स्वामी जी भौतिक धन को कमाने की अपेक्षा वास्तविक धन को कमाने अर्थात सन्तान के निर्माण करने पर ध्यान देते और सारी शिक्षा व्यवस्था को सुधारकर माता-पिता और संतान को एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों के बंधन में बांधने का प्रयास करते। आर्य समाज के जो लोग अपने बच्चों के भीतर अंग्रेजों के संस्कार डाल रहे हैं, उन्हें लताड़कर वे ठीक रास्ते पर लाने का भी प्रयास करते ।
यज्ञ के ढोंग से स्वामी जी प्रभावित नहीं होते बल्कि लोगों को ढंग से यज्ञ करना और उसके संस्कारों को लेना सिखाते।
आर्य समाज के मंचों पर बैठकर जो लोग बीड़ी, सिगरेट, शराब, तम्बाकू, भांग, धतूरा पीते या खाते हैं , मांस का सेवन करते हैं – उन सबको वे पाखंडी घोषित कर एक ही दिन में सीधा कर देते।
(लेखक की पुस्तक “आर्य समाज एक क्रांतिकारी संगठन” से)
डॉ राकेश कुमार आर्य