नववर्ष के उपलक्ष्य में इतना आत्मचिन्तन अवश्य करें :-

काश! आदमी का आविर्भाव और अवसान सूर्य जैसा हो –

लाली के संग रवी उगै,
करे स्वर्णिम प्रभात।
अस्तांचल को जब चले,
तब भी लाली साथ ॥2806॥

तत्वार्थ :- भाव यह है कि कितना अच्छा हो मनुष्य का जीवन भी सूर्य जैसा हो समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र बिन्दु ब्रह्म हैं ठीक इसी प्रकार सौरमण्डल का केंद्र बिंदु सूर्य है जो समस्त ग्रह और उपग्रह इत्यादि को
गति देता है और सृष्टि में नवजीन का संचार करता है ठीक इसी प्रकार मानवीय जीवन का केंद्र बिन्दु मनुष्य है जो समाजिक संबंधों को नूतन गति और नूतन दिशा देता है।

सृष्टि में परिवर्तन और विवर्तन का क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है लेकिन कुछ क्षण ऐसे आते है जब समय करवट बदलता है और मूक रूप से प्रेरणा देता है के हे! मनुष्य अपने अतीत के जीवन से गंभीर दृष्टिपात करो अर्थात् जीवन में क्या खोया है, क्या पाया,क्या कर रहे हो क्या करना चाहिए ऐसे क्षड़ नववर्ष के शुभ अवसर पर मनुष्य की सोई हुई आत्मा को जगाते हैं।
और उसे मूक भाषा में प्रेरित करते है कि हे! मनुष्य जिस प्रकार सूर्य उदित होता है तो उसके चेहरे पर स्वर्णिम रश्मियों की लाली होती है और जब सूर्यास्त होने लगता है तो तब भी ‘उसकी लाली उसके साथ होती है।

अर्थात् सूर्य अपनी आभा को अंतिम दम तक मनुष्य को साथ रखता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य भी अपनी आभा को अर्थात् यश रूपी आभा को अंतिम दम तक अक्षुण रखना चाहिए तभी जीवन सार्थक और प्रेरणादायक बनता है।

  • लेखक, चिंतक और विचारक प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य ( मुख्य संरक्षक ‘उगता भारत’ समाचार पत्र )

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