हमारा भारत देश कभी आर्यावर्त या ब्रह्मावर्त के नाम से भी प्रसिद्ध था। यह ऋषियों, मुनियों और ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले योगियों की पवित्र धर्म धरा रही है। इस पवित्र धर्म-धरा पर गौतम , कणाद , कपिल ,पतंजलि ,वाल्मीकि , व्यास सदृश महर्षियों ने ज्ञानामृत और योगामृत की गंगा प्रवाहित कर भारत की वास्तविक गंगा यमुनी संस्कृति का निर्माण करने में अपना अप्रतिम योगदान दिया था। वास्तव में भारत का ज्ञान और योग ही शेष संसार के लिए वह संजीवनी बूटी था, जिसने समस्त भूमंडल के सभी निवासियों को संस्कार और संस्कृति प्रदान किये। संसार का जो भी व्यक्ति इस सत्य को जानता है वह भारत के प्रति हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करेगा ही। ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यंत इन ऋषियों की परंपरा को हम अपने लिए सबसे बड़ी धरोहर के रूप में मान्यता दे सकते हैं।
हमारे ऋषि महर्षियों ने जहां मनुष्य मात्र को अपनी आत्मिक उन्नति का मार्ग ज्ञान और योग के माध्यम से बताया, वहीं उनसे राजनीति का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा। उन्होंने राजनीति को भी धर्म से जोड़ दिया था। उन्होंने धर्म को एक पावर हाउस के रूप में समझा । जिससे प्रकाश की विभिन्न धाराएं निकलती या प्रवाहित होती हैं । यदि पावर हाउस से बिजली गुल हो जाए तो जैसे सर्वत्र अंधेरा व्याप्त हो जाता है, वैसे ही यदि धर्म का स्रोत सूख जाए अर्थात ज्ञान और योग की परंपरा लुप्त हो जाए तो सर्वत्र अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देगा। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि धर्म का अभिप्राय ज्ञान और योग से ही है।
भारत के सेकुलर और संसार के वे लोग जो राजनीति में सेकुलरिज्म की मान्यता पर बल देते हैं , धर्म के अर्थ को कभी नहीं समझ पाए हैं और ना समझ पाएंगे । इन लोगों ने सेकुलरिज्म पर ग्रंथ के ग्रंथ लिख लिखकर इस अवैज्ञानिक और अवांछित विचारधारा को संसार के लिए जबरदस्ती थोपने का प्रयास किया है। इसके वैज्ञानिक पक्ष पर कभी चिंतन नहीं किया गया। यदि किसी ने चिंतन करने का प्रयास भी किया तो उसे सेकुलरिस्ट्स की ओर से रूढ़िवादी या कंजरवेटिव आदि कहकर तिरस्कृत करने का प्रयास किया गया। ऐसी परिस्थितियों में विचार प्रवाह बाधित हुआ और जो विषय हमारे लिए विमर्श का आधार बनने चाहिए थे, वह बन नहीं पाए।
यही कारण है कि आज हमारे देश की राजनीति हृदयहीन, संवेदनाशून्य, स्वार्थी, पदलोलुप और भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं की क्रीदस्थली बनकर रह गई है। राजनीति अपने आप में कोढ़ नहीं है ,पर राजनीति को चलाने वाले अवश्य ही कोढ़ बन चुके हैं । जिसको भी ये रोग है, वही इस रोग को दूसरे को संक्रमित कर फैलाने का काम कर रहा है। यद्यपि कुछ लोग अपवाद अभी भी बने हुए हैं। स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि संभावनाओं की मां कभी बांझ नहीं होती और आशाओं का कभी कुल नाश नहीं होता। संभावनाएं सदा जीवित रहती हैं और आशाएं सदा हमें सकारात्मकता से भरती रहती हैं।
इसके उपरांत भी बहुत कुछ ऐसे गंभीर प्रश्न और संकेत हैं जिन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता। जब राजनीति में पप्पू दिखने वाले ही नहीं बल्कि पप्पू जैसा आचरण करने वाले लोग सक्रिय हो जाते हैं और कई लोग उन्हें भविष्य के बड़े दायित्व का दावेदार मानने लगते हैं और ऐसे पप्पू राष्ट्रद्रोही लोगों के साथ खड़े हुए दिखाई देते हैं, गंभीरता का आचरण न करके लड़कपन का आचरण करते दिखाई देते हैं तो संभावनाओं पर भी तुषारापात हो जाता है। राजनीति में उम्मीदवारियां संभावनाओं का केंद्र बनती हैं। इसलिए यह अपेक्षित है कि उम्मीदवारियां ठोस होनी चाहिए। उनका परिपक्व राजनीतिक चिंतन होना चाहिए और उनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए। छोटी हरकत ,छोटी सोच और राजनीतिक उच्छृंखलता भविष्य की उम्मीदवारियों को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देती हैं। लोकतंत्र में विपक्ष का नेता मानो युवराज होता है। जिसे लोग भविष्य का राजा समझते हैं। ऐसे युवराज को अपने व्यवहार को निष्कलंक और निष्पाप बनाने के प्रति सदैव सावधान रहना चाहिए। राजनीति में निष्पाप और निष्कलंक उसी को माना जाता है जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर अपने आप को एक राजनेता के रूप में प्रस्तुत करता है।
राजनीति को पवित्र बनाए रखने के लिए इसे धर्म के स्रोत से जोड़कर चलना पड़ेगा। ज्ञान और योग के साथ इसका मिलन करना पड़ेगा। इस मिलन से ही राष्ट्र की संतति का निर्माण होगा। इस प्रकार राष्ट्र की सुयोग्य और संस्कारी संतति के निर्माण के प्रति राजनीति सहज और सरल बनकर अपने कर्तव्य का संपादन कर पाएगी। जब देश के राजनीतिज्ञ राजनीति के इस स्वाभाविक लक्ष्य और गमन मार्ग को पहचान लेंगे, तब यह कहा जा सकेगा कि भारत की राजनीति वास्तव में पंथनिरपेक्ष हो गई है। अब उसके लिए छोटा बड़ा, ऊंचा नीचा, गरीब अमीर में कोई अंतर नहीं है। अब वह अपने लक्ष्य को पहचान कर चल रही है और अंत्योदयवाद उसके चिंतन का केंद्र बन चुका है। भारत की राजनीति स्वाधीनता प्राप्ति से अब तक भटकाव की स्थिति में रही है। लक्ष्यहीन साधना कभी भी ठोस परिणाम नहीं दिला पाती है, अब हमें इस सत्य को पहचानना ही होगा। राजनीति की भावना रखने मात्र से काम नहीं चलेगा बल्कि राजनीति की साधना करनी होगी। राजनीति की भावना में जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, प्रांतवाद, भाषावाद आदि ऐसे निहित स्वार्थ होते हैं जिनसे राजनीति चमकाई जा सकती है या राजनीति चलती रहती है। इससे राजनीति को केवल चलते रहने लायक श्वासें मिलती रहती हैं । वास्तव में राजनीति के लिए प्राण वायु का काम राजनीति की साधना ही करती है। जैसे कोई निकम्मा व्यक्ति साधना से बचता है और आलस्य एवं प्रमाद में फंसकर काम करते रहने का प्रयास करता दिखाई देता है, वैसे ही राजनीति में लोग साधना से बचकर भावना के वशीभूत होकर अपना उल्लू सीधा करते दिखाई देते हैं। इस स्थिति को ऐसे लोगों के आने से और अधिक बल मिला है जो चेतनाशून्य, बुद्धिहीन और मूर्ख प्रजाति के होते हैं। ये लोगों को डरा धमका कर या झूठ आदि का सहारा लेकर एमपी या एमएलए बनने में सफल हो जाते हैं।
राजनीति की साधना राजनीति को राष्ट्रनीति में परिवर्तित कर देती है। व्यक्ति को राजनीतिज्ञ से राजनेता बना देती है। हर एक ऐसा साधक राष्ट्रभक्त होता है और उसके लिए राष्ट्र सर्वोपरि हो जाता है। राजनीति में जो लोग कट्टर ईमानदार बनकर आए थे यदि वह कट्टर बेईमान निकले तो समझना पड़ेगा कि वह राष्ट्र नीति के उपासक या साधक नहीं थे बल्कि वह भी देशवासियों की आंखों में धूल झोंकने की प्रवृत्ति से ग्रसित होकर राजनीति में आए और अपनी पैठ लगाकर बैठ गए। जो लोग राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए लोगों को बहकाने का कार्य करते हुए सत्ता में आने का प्रयास करते हैं या आ चुके हैं वे भी राष्ट्र के आराधक ,साधक या उपासक नहीं हो सकते।
अब जबकि देश 2024 के लोकसभा चुनावों की दस्तक को अनुभव कर रहा है और साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम जी का मंदिर भी इन दिनों अपने निर्माण के अंतिम चरण में है तब हमें राजनीति की निर्मलता के प्रति एक विमर्श को जन्म देना चाहिए। हम इस विषय पर गंभीर चिंतन करें कि क्या राम की मर्यादा राजनीति के लिए आज भी प्रासंगिक है ? आगामी लोकसभा चुनाव के लिए यदि हम इसे एक विमर्श बना सके तो निश्चित रूप से उसके अच्छे परिणाम मिलेंगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत