Categories
हमारे क्रांतिकारी / महापुरुष

जयंती पर विशेष: राष्ट्रभक्ति की अनुपम मिसाल थे सरदार उधम सिंह

सरदार उधम सिंह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की विचारधारा के एक महत्वपूर्ण किरदार हैं। उनके बारे में कई प्रकार की भ्रांत धारणाएं समाज में प्रचलित रही हैं। हमने भी बचपन में उनके बारे में एक कविता सुनी थी। जिसका भावार्थ था कि उधम सिंह नाम का एक होनहार देशभक्त  बच्चा 7 वर्ष की अवस्था में अपनी माता से यह पूछता है कि उसके पिता कहां चले गए ? बच्चे को अपने पिता से मिलने की तीव्र इच्छा उस कविता में दिखाई गई है। यह कविता कवि प्रहलाद बेकल की बनाई हुई थी। उस समय हम ऐसा ही विश्वास कर रहे थे कि शायद 7 वर्ष के बच्चे ने अपनी मां से ऐसा प्रश्न पूछ लिया होगा के पिता कहां हैं या कहां चले गए ? परंतु वास्तविकता इसके कुछ विपरीत है। वास्तव में जलियांवाला बाग हत्याकांड के समय उधम सिंह की अवस्था 7 वर्ष की न होकर 20 वर्ष की थी और उस समय तक उसके माता-पिता इस संसार में नहीं थे।

इसकी जानकारी हमको सही रूप में उस समय मिली जब हम वर्ष 1992 में सपरिवार जलियांवाला बाग एवं उसके पास स्थित स्वर्ण मंदिर परिसर को भ्रमणार्थ गए थे। उस समय हमारे अग्रज भ्राता श्री वीर सिंह जी आर्य की सशस्त्र सेनाओं में उपस्थिति अमृतसर में थी।
उन्हीं के साथ हमने जलियांवाला बाग और स्वर्ण मंदिर परिसर को देखा।स्वर्ण मंदिर परिसर में अमृत छका। वास्तव में सरदार उधम सिंह का अवतरण वर्ष 1899 में 26 दिसम्बर को सुनाम, पंजाब में हुआ था। वर्ष 1901 में अर्थात 2 वर्ष पश्चात ही उनकी माता जी का देहांत हो गया और वर्ष 1907 में उनके पिता का भी देहांत हो गया। इस प्रकार वे अनाथ हो गए। वह अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर में अनाथालय पुतलीघर में आकर के रहने लगे। अपनी उस यात्रा के समय हमने वह अनाथालय भी हमने देखा।
13 अप्रैल को 1919 को रोलेट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में लगभग 20000 लोग अंग्रेजों का विरोध करने के लिए एकत्र हुए। डॉ सतपाल किचलू जैसे स्थानीय नेता उस कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे थे। देशभक्त लोगों की इतनी बड़ी उपस्थिति को देखकर अंग्रेज अधिकारी दंग रह गए थे। उनके पैरों तले की धरती निकल गई थी और उन्हें लगने लगा था कि यदि इसी प्रकार के आयोजन देश में होने लगे तो 1857 की क्रांति भयंकर रूप में सामने आ जाएगी। जिसे संभालना उनके लिए कठिन हो जाएगा। सुनियोजित ढंग से उस भीड़ को नियंत्रित करना और हो सके तो उसे ऐसा पाठ पढ़ा देना कि आगे कभी इस प्रकार एकत्र होने का लोग साहस न कर सकें, ऐसी योजना अंग्रेजों की ओर से बना ली गई थी।
लोगों को एकत्र ने होने की चेतावनी दी गई, परंतु देशभक्ति की भावना से प्रेरित लोग किसी भी प्रकार की चेतावनी को सुनने को तैयार नहीं थे। अनाथालय पुतलीघर से उधम सिंह व अन्य अनाथ बच्चों की ड्यूटी ऐसे अवसर पर पानी पिलाने एवं अन्य सेवाएं प्रदान करने के लिए लगाई गई थी।
जब धरना प्रदर्शन शांतिपूर्वक चल रहा था उसी समय जनरल डायर एवं लेफ्टिनेंट जनरल माइकल ओ डवायर वहां फौजी टुकड़ी को लेकर पहुंचते हैं । उन्होंने जलियांवाला बाग के प्रवेश द्वार पर फौजी टुकड़ी को पोजीशन देकर बैठा दिया और निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। जिसके कारण सैकड़ो लोग मारे गए और सैकड़ो लोग अपनी जान बचाने के लिए जो कुआं में गिर रहे थे वे भी मारे गए। अंग्रेजी सरकार के आंकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 379 थी। जबकि गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार यह संख्या 2500 या उससे भी अधिक थी।
चारों तरफ हाहाकार मच गया। लोग चीख पुकार कर रहे थे। चीत्कार मची हुई थी। जलियांवाला बाग की धरती खून से लाल हो गई थी । उधम सिंह ने मृतकों के बीच लेट कर, छिपकर अपनी जान बचाई थी। उसी दिन उन्होंने एक ऐसी महिला की भी सहायता की थी जिसका पति उन देशभक्तों भीड़ में बलिदान हो गया था। उसके शव को भगत सिंह ने रात्रि के अंधकार में अपने कंधों पर उठाकर पुलिस से छुपकर उसे दूर नदी के किनारे ले जाकर उसका अंतिम संस्कार करवाया था।
वर्ष 1919 में जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था तो उधम सिंह की आयु 20 वर्ष की थी। उन्होंने बड़ी निकटता से करुण चीत्कार करते हुए लोगों को देखा था। बहनों की चीख निकलती हुई देखी थी और उनके सुहाग उजड़ने पर उन्हें किस प्रकार कष्ट होता है , यह भी अपनी आंखों से देखा था। उन्होंने भारत माता की अस्मिता को तार तार करने वाले अंग्रेज अधिकारियों को मारने का प्रण उसी समय ले लिया था।
उधम सिंह ने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु गदर पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। जिसे उस समय विदेश में लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा जैसे अनेक क्रांतिकारी चला रहे थे। 1934 में वह ब्रिटेन चले गए। 1940 में एक सभा को संबोधित करने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल ‌ ओ डवायर को आना था। उधम सिंह ने एक योजना के अनुसार सुंयोजित तरीके से एक पुस्तक के अंदर पेज काटकर उसी आकार में रिवाल्वर रख ली और उसे रिवाल्वर को लेकर सभा के बीच चले गए ।वहां पर उन्होंने अपनी सहायता के लिए एक अंग्रेज महिला मित्र से मित्रता भी की थी। लेकिन अपनी योजना की भनक अपनी महिला मित्र को नहीं लगने दी।
जिस समय माइकल ओ डवायर अपना संबोधन करने के लिए खड़े हुए तभी उधम सिंह ने ताबड़तोड़ अपनी पिस्तौल से उस पर गोलियां चला दी और वह वहीं पर ढेर हो गया । इस प्रकार उधम सिंह ने भारत माता की इज्जत को तार-तार करने वाले शत्रु से 21 वर्ष बाद बदला लिया। बदल लेते समय उधम सिंह की अवस्था 41 वर्ष थी।
अपने क्रांतिकारियों के इस प्रकार के साहस को देखकर उनके सामने अनायास ही मस्तक झुक जाता है। हृदय में उनके प्रति असीम श्रद्धा का भाव पैदा होता है । लगता है कि हम सचमुच क्रांतिकारियों के देश में रहते हैं। जिन्होंने देश धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए अपना बड़े से बड़ा बलिदान देने में भी संकोच नहीं किया। यदि उनके भीतर देश के लिए मर मिटने का यह जज्बा नहीं होता तो निश्चित रूप से हम आज भी गुलाम होते और इस बात को भी खाने में हमें कोई संकोच नहीं कि हम तब शायद अपना अस्तित्व भी मिटा चुके होते। इन वीर बलिदानियों के ऋण से हम सचमुच जब तक सूरज और चांद सितारे हैं ,तब तक भी उऋण नहीं हो पाएंगे । आज उनकी पवित्र भावना को समझ कर उनके ऋण से उऋण होने के लिए इतिहास के क्षेत्र में विशेष कार्य करने की आवश्यकता है। उनके बलिदानों का मोल समझते हुए आने वाली पीढ़ी को यह बताना आवश्यक है कि किन-किन बलिदानियों के कारण संसार में हमारा अस्तित्व कायम रह पाया है?
21 वर्ष तक बलिदानी वीर सपूत उधम सिंह के हृदय में वह बदले की आग ध़धकती रही और भारत माता की इज्जत को तार तार करने वाले शत्रु को मारने की योजना में एक लंबे अंतराल के पश्चात भी कोई कमी नहीं आने दी।
एक समरी ट्रायल में उनको फांसी की सजा हुई और 31 जुलाई 1941 को उनको फांसी दे दी गई। वर्ष 1976 में उनकी अस्थियां भारतवर्ष में लाई गई। वर्ष 2001 -2002 में हमने वास्तविक इतिहास की जानकारी जब कवि प्रहलाद बेकल हमारे आवास पर दादरी आए थे,उनको बताई तो उन्होंने अपनी गलती को सहर्ष स्वीकार करते हुए खेद व्यक्त किया।
इसी प्रकार हमारे देश में अनेक शहीद हुए हैं, वीर वीरांगनाएं हुई हैं जिनके इतिहास को तत्कालीन कारण धारों ने लुप्त किया। इतिहास के ऐसे विलोपीकरण एवं विद्रूपिकरण को दूर करने का प्रयास वर्तमान में किया जा रहा है। इसी प्रयास के पूरे करने में डॉक्टर राकेश कुमार आर्य प्रख्यात इतिहासकार को ऐसी जिम्मेदारी सौंपी गई है।
इतिहास में हमको ऐसा पढ़ाया गया है कि मानो चरखे चलाने और सूत कातने से भारतवर्ष को आजादी मिल गई थी। कितनी चालाकी भरे अंदाज से बलिदानियों के बलिदान को भुलाने का कुत्सित प्रयास किया गया है ?
हम अपने उस अमर बलिदानी को उसके अवतरण दिवस पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, स्मरण एवं नमन करते हैं।

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
अध्यक्ष उगता भारत समाचार पत्र

Comment:Cancel reply

Exit mobile version