कवि हृदय शान्ति पुरूष अटलजी
डा. बद्रीनारायण तिवारी- विनायक फीचर्स
”भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्र पुरुष है, हिमालय इसका मस्तक है, गौरी शंकर शिखा है। किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे है। विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट, दो विशाल जंघाएं हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं। चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है। यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए।
ये शब्द अटल बिहारी वाजपेयी के देश को राष्ट्र पुरुष की स्पष्ट मान्यता प्रदान करने वाले आन्तरिक भाव हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी की तीन दिवसीय जापान यात्रा में वहां के प्रधान मंत्री जापानी भाषा में तथा भारत के प्रधान मंत्री श्री वाजपेयी राष्ट्रभाषा हिन्दी में सार्वजनिक रूप से एक साथ बोल रहे थे तो उस समय देश के स्वाभिमान का जागृत होना स्वाभाविक है। प्रत्येक देश की पहचान उसका राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्र भाषा ही हैं। हृदय स्पर्शी भावनाओं के संवाहक कवि हृदय अटल जी के जन्म दिवस पर उनके कार्यकलापों की साहित्यिक, शिक्षक एवं शैक्षिक जीवन की रोचक झलकियां प्रस्तुत हैं-
आजकल जब दूरदर्शनी संस्कृति से लोगों में परस्पर स्नेह, प्रेम का लोप होकर दिखावे का बनावटी व्यवहार समाज में व्याप्त हो रहा है तब ऐसे नीरस वातावरण में कुछ स्मरणीय क्षणों को मन संजोकर रखता है। कानपुर में ऐतिहासिक 1857 के बलिदानी स्थल – नानाराव पार्क के ‘शहीद उपवन’ में ‘स्वाधीनता मेरा जन्मसिद्घ अधिकार है, उसे हम लेकर रहेंगे’ के उद्घोषक एवं लेखनी के कारण कारागार भुगतने वाले लोकमान्य तिलक की प्रतिमा के अनावरण हेतु कवि हृदय श्री अटल बिहारी वाजपेयी आये थे। उक्त अवसर पर मुझे वाजपेयी जी ने अपनी काव्यकृति – ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ भेंट की थी। उनको क्या मालूम था कि उनकी प्रस्तुत रचना को युवा गीतकार श्री प्रवीण वर्मा से संगीत में स्वरबद्घ कराया गया था। अटल जी की ये पंक्तियां अनेक वर्षो पूर्व लिखी गयीं, किन्तु वर्तमान संदर्भों में आज भी कितनी सटीक हैं। जनता जनार्दन के साथ ही कविवर अटल जी भी सभा स्थल में उसकी ओजस्वी संगीत लहरी में भाव विभोर हो सुन रहे थे:-
दांव पर सब कुछ लगा है; रूक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम, झुक नहीं सकते
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
दीप निष्ठा का लिये निष्कम्प
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्घ
हम निहत्थे, शत्रु हैं सन्नद्घ,
हर तरह के शस्त्र से हैं सज्ज
और पशु बल हो उठा….निर्लज्ज।
किंतु फिर भी जूझने का प्रण
पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-प्रण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की मांग अस्वीकार
इसी क्रम में अटल जी की दूसरी रचना अमर शहीदों की स्मृति में प्रस्तुत की गयी:
-जो बरसों तक रहे जेल में, उनकी याद करें
जो फांसी पर चढ़े खेल में, उनकी है :
याद करें काला पानी को
अंगरेजों की मनमानी को
याद करें बहरे शासन को
बम से थर्राते आसन को
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू
के आत्मोसर्ग पावन को
अन्यायी से लड़ो दया की
मत फरियाद करो।
वस्तुत: अटल जी के प्रारंभिक जीवन की रचनाओं में वर्तमान समस्याओं का स्पष्ट चित्रण देखा जा सकता है। देश के प्रथम स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त, 1947 को निम्न पंक्तियां, उन्होंने कानपुर प्रवास में लिखी थीं। जिनमें देश की आजादी तथा विभाजन की दर्दनाक टीस, हर्ष-विषाद की प्रतिछाया की हृदयस्पर्शी झलक मिलती है।
पंद्रह अगस्त का दिन कहता-आजादी अभी अधूरी है
सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है
जिनकी लाशों पर पग धरकर आजादी भारत में आयी
वे अब तक है खानाबदोश गम की काली बदली छायी
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं
हिन्दू के नाते उनका दु:ख सुनते यदि तुम्हें लाज आती
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहां कुचली जाती
इन्सान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है
इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर मन में मुसकाता है
भूखों की गोली, नंगों को हथियार पिन्हाये जाते हैं
सूखे कंठों से जेहादी नारे लगवाये जाते हैं
लाहौर, कराची ढाका पर मातम की है काली छाया
पख्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया
बस इसीलिए तो कहता हूं आजादी अभी अधूरी है
कैसे उल्लास मनाऊं मैं ? थोड़े दिन की मजबूरी है
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुन: अखंड बनाएंगे
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें
जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें।
उपर्युक्त मर्मस्पर्शी रचना को भावपूर्ण ढंग से कानपुर की प्रथम स्वाधीनता सभा में उन्होंने सुनाया था। अटल जी ने कानपुर प्रवास के दो वर्ष की खट्टे-मीठे स्मृतियों का अपनी लेखनी में वर्णन किया है। उस रचना को सुनकर तत्कालीन आगरा विश्वविद्यालय के उप कुलपति लाला दीवान चंद्र ने, जो सभाध्यक्ष भी थे, प्रभावित होकर अटलजी को दस रूपये का पुरस्कार दिया था। अटलजी को बड़े-बड़े सम्मान पुरस्कार मिले, किन्तु उस दस रूपये के पुरस्कार को उन्होंने रचना-धर्मिता के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान की मान्यता अपनी कलम से दी।
ग्वालियर से कानपुर डी.ए.वी. कालेज में अटलजी द्वारा अपने पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के साथ-साथ शिक्षण प्राप्ति का, अपने ढंग का रोचक वर्णन, स्वयं अटल जी ने लिखा है। उन्हें क्या मालूम था कि कानपुर में प्रथम स्वाधीनता दिवस में काव्य पाठ करने वाला विद्यार्थी कभी दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में प्रधानमंत्री होकर राष्ट्रीय ध्वज फहराएगा।
संभवत: यह बात कम लोग जानते होगें कि कानपुर में उनके छात्र जीवन में विधि कक्षाएं सायंकाल लगती थीं और दिन में पिता-पुत्र मनीराम बगिया मुहल्ले (हटिया के सन्निकट) में शिक्षाविद् हीरालाल खन्ना द्वारा स्थापित सी.ए.वी. स्कूल में शिक्षक रूप में कार्य करते थे। अटलजी तथा उनके पिता जी के पढ़ाये विद्यार्थी अपने संस्मरण बड़े रोचक ढंग से बताते नहीं अघाते।
अटलजी की रचनाओं से उनकी जीवनधारा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। ईरान की संसद में, संयुक्त राष्ट्रसंघ के बाद, राष्ट्र भाषा हिन्दी में भाषण देकर अटल जी का करतल ध्वनि से स्वागत किया गया – वहीं वे अपने देश में कहीं-कहीं विवशतावश किन कारणों से राष्ट्र भाषा सम्यक् भाषाओं तथा स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिन्दी में बोलने में अपनों से असमर्थता व्यक्त करते हैं। अटलजी ने अपने जन्म दिवस (25 दिसम्बर) पर काव्य-पंक्तियों में जो भाव व्यक्त किये, वह उनके इंद्रधनुषी जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ावों को प्रदर्शित करते हैं :-
मुझे दूर का दिखायी देता है
मैं दीवार पर लिखा-पढ़ा सकता हूं
मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ पाता
सीमा के पार भड़कते शोले मुझे दिखाई देते हैं
पांवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख मुझे नजर नहीं आती
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूं
हर 25 दिसम्बर की जीने की एक
नई सीढ़ी चढ़ता हूं
नये मोड़ पर औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूं
मैं भीड़ को चुप करा देता हूं
मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर
जब जिरह करता है
मेरा हलफनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है
गुनहगार बन जाता हूं, तब मुझे कुछ दिखायी नहीं देता।
अटल जी ने ‘जय विज्ञान’ का नारा दिया। जिसके बहुमुखी कार्यान्वयन में राष्ट्रीय विज्ञान संचार संस्थान नयी दिल्ली के वैज्ञानिक एवं संपादक डा. प्रदीप शर्मा द्वारा राष्ट्र भाषा हिन्दी में भारत की संपदा-वैज्ञानिक विश्वकोश का निर्माण इस दिशा में मील का पत्थर बना है। भारतीय संसद में देश के प्रथम प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की कही गयी पंक्तियां वर्तमान कवि हृदय राजनेता अटलजी पर कितनी प्रासंगिक है:-
गंदगी गरीबी,मैलेपन को दूर रखे, शुद्घोदन के पहरे वाले चिल्लाते हैं
है कपिल वस्तु पर फूलों का श्रृंगार पड़ा, रथसभारूढ़ सिद्घार्थ घूमने जाते हैं
मन में कुत्सा का भाव नहीं पर जगता है
समझाये, उनको कौन, नहीं भारत वैसा।
बहुभाषाविद् आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री की इन पंक्तियों में वाजपेयी जी का बहुआयामी व्यक्तित्व झलकता हैं- ‘वज्र से भी कठोर अडिग संकल्प-सम्पन्न राजनेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी के कुसुम कोमल हृदय से उमड़ पडऩे वाली कविताएं गिरि-हृदय से फूट निकलने वाली निर्झरियों के सदृश एक ओर जहां अपने दुर्दान्त आवेग से किसी भी अवगाहनकर्ता को बहा ले जाने में समर्थ हैं, वहीं दूसरी ओर वे अपनी निर्मलता, शीतलता और प्राणवत्ता से जीवन के दुर्गम पथ के राहियों की प्यास और थकान को हरकर नई प्रेरणा की संजीवनी प्रदान करने की क्षमता से भी सम्पन्न हैं। इनका सहज स्वर तो देशभक्तिपूर्ण शौर्य का ही है; किन्तु कभी-कभी नव सर्जना की वेदना से ओतप्रोत करूणा की रागिनी को भी ये ध्वनि करती है।‘ अन्त में, लोकतंत्र के सजग प्रहरी श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में
‘हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं।
गीत नया गाता हूं।‘… (विनायक फीचर्स)