आर्य राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र ऊपरी तौर पर एक हैं, परंतु एक मौलिक अंतर इन दोनों में है और वह अंतर है विचारधारा का अंतर। यद्यपि हम इन दोनों शब्दों को लेकर किसी प्रकार के विवाद के पक्षधर नहीं है, परंतु फिर भी बता देना चाहते हैं कि आर्य राष्ट्र हमारे देश के सत्य सनातन वैदिक धर्म का प्रतिनिधि सोना जैसी खरी विचारधारा का राष्ट्र है। जबकि हिंदू में कुछ दुर्बलता है और उसमें कुछ दोगलापन भी है। जो लोग कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा को अपनाकर वैदिक आदर्शों और मूल्यों की बात करते हुए रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी का अनुकरण करते हुए शिवाजी के आदर्शों पर चलकर हिंदू राष्ट्र नीति के समर्थक हैं, हम उन सबको आर्य राष्ट्र के समर्थक ही मानते हैं।
यदि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के हाथों में स्वाधीनता के पश्चात देश की सत्ता आती तो निश्चित रूप से वह आर्य राष्ट्र के समर्थक होते। सरदार भगत सिंह और उन जैसे क्रांतिकारी स्वाधीनता के पश्चात सत्ता के दावेदार न बनें इसलिए उन्हें समय से निपटाना अथवा मरवाने के प्रति कांग्रेस और उसके बड़े नेता बहुत हद तक जिम्मेदार हैं।
उनके भीतर आर्य राष्ट्र का शिव संकल्प कूट-कूट कर भरा था। क्योंकि उनके परिवार ने स्वामी दयानंद जी महाराज के आदर्शों पर चलकर आर्य राष्ट्र के प्रति अपना संकल्प व्यक्त किया था। एक बार राष्ट्रभक्ति के पड़े संस्कारों को किसी परिवार या वंश से बहुत शीघ्रता से समाप्त नहीं किया जा सकता । अपनी इस प्रतिबद्धता को इस परिवार ने अपना शिवसंकल्प स्वीकार कर उसी के लिए जीने मरने की सौगंध उठाई थी। यह ऋषि दयानंद जी की विचारधारा का जादू ही था कि परिवार के मुखिया और भगत सिंह के दादाजी अर्जुन सिंह जी ने आने वाली पीढ़ियों के लिए भी यह संकेत दे दिया था कि यदि देश धर्म की सेवा करनी है तो आर्य राष्ट्र के ध्वज के नीचे आकर ही इस काम को किया जा सकता है।
शहीद भगतसिंह की सगी भतीजी वीरेन्द्र सिन्धु के द्वारा इस विषय में बड़ा स्पष्ट लिखा गया है। जिससे यह सिद्ध होता है कि भगत सिंह जी के परिवार पर स्वामी दयानंद जी की विचारधारा का गहरा प्रभाव था और पूरा परिवार उस विचारधारा के प्रति पूर्णतया समर्पित था। उनकी अमर कृति ‘युगद्रष्टा भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे’ इस संबंध में इतिहास के कई रहस्यों से पर्दा उठा देती है। उन्होंने बिना किसी लागलपेट के इतिहास के सच को अपनी लेखनी से स्वर्णिम पृष्ठों पर उकेरने का सराहनीय और राष्ट्रभक्ति पूर्ण कार्य किया है। वीरेन्द्र सिन्धु हमारा मार्गदर्शन करते हुए लिखती है” सरदार अर्जुनसिंह ने ऋषि दयानन्द के दर्शन किए तो मुग्ध हो गये और उनका भाषण सुना तो नव-जागरण की सामाजिक सेना में भरती होकर आर्यसमाजी बन गए। वे उन थोड़े से लोगों में थे, जिन्हें स्वयं ऋषि दयानन्द ने दीक्षा दी थी, यज्ञोपवीत अपने हाथ से पहनाया था। यह सरदार अर्जुनसिंह का सांस्कृतिक पुनर्जन्म था। मांस खाना उन्होंने छोड़ दिया, शराब की बोतल नाली में फेंक दी, हवन कुण्ड उनका साथी हो गया और सन्ध्या- प्रार्थना सहचरी। उनका जीवन पूरी तरह बदल गया था ……. ।’
हवन कुंड पर जा बैठे और छोड़ दिए दारू सुल्फा।
सौगंध उठा ली जीवन में, ना काम करूं कोई उल्टा।।
वीरेंद्र सिंधु के इन शब्दों में इतिहास कि वह चेतना छुपी है जिसे वह ‘नवजागरण की सामाजिक सेना’ के नाम से पुकार रही हैं। नवजागरण की यह सामाजिक सेना आर्य समाज था। जिसमें लोग स्वेच्छा से अपना नाम लिखवा रहे थे और इस सेना की संख्या में निरंतर वृद्धि करते जा रहे थे। नवजागरण की यह सेना दिन प्रतिदिन अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बनती जा रही थी । इसके सामने कांग्रेस का आंदोलन पूर्णतया फीका और बेस्वाद हो चुका था। यद्यपि आर्य समाज के लोगों ने कांग्रेस के मंचों को उजड़ने से बचाकर उन पर अपनी उपस्थित दर्ज कराकर उन्हें जीवित रखा। इसके उपरांत भी कांग्रेस अपनी परंपरागत राजभक्ति से बाज नहीं आई। यदि आर्य समाज के लोग बड़ी संख्या में (अर्थात 80% ) कांग्रेस के मंचों पर जाकर खड़े नहीं होते तो कांग्रेस खड़े होते – होते ही दम तोड़ गई होती। आर्य समाज के तत्कालीन नेतृत्व का यह बहुत ही दूरगामी निर्णय था कि उन्होंने कांग्रेस को भी जीवित बनाए रखने में भलाई समझी। उनकी सोच थी कि कांग्रेस के मंचों पर आर्य नेताओं / क्रांतिकारियों के जाने से कांग्रेस का चिंतन राष्ट्रवादी बनेगा। यह अलग बात है कि कांग्रेस का मौलिक चिंतन आज तक भी राष्ट्रवादी नहीं बन पाया है।
वीरेंद्र सिंधु आगे लिखती हैं कि ‘सचमुच सरदार अर्जुनसिंह का आर्यसमाजी होना एक बड़ा क्रान्तिकारी कदम था। इसे यों समझा जा सकता है कि किसी हिन्दू का आर्यसमाजी हो जाना ही बड़ी बात थी, फिर सरदार अर्जुनसिंह तो सिख से आर्यसमाजी हुए थे। मन्दिर से ही आर्यसमाज का भवन काफी दूर था, पर वे तो गुरुद्वारे से चलकर आर्यसमाज- भवन पहुंचे थे, जो और भी दूर था. ..उन्होंने आर्यसमाज के साहित्य का बहुत गहरा अध्ययन किया। इस गहराई का पता इससे चलता है कि सनातनधर्मी पण्डितों के साथ मूर्तिपूजा और श्राद्ध जैसे विषयों पर कई शास्त्रार्थों में ये ही आर्यसमाज के प्रमुख प्रवक्ता रहे और आर्यसमाज के उत्सवों में दूर-दूर भाषण देने के लिए जाते रहे। वे अपने क्षेत्र के प्रमुख आर्यसमाजी नेताओं में गिने जाते थे और हर काम में उनकी सलाह मानी जाती थी……. गांव के अनपढ़ वातावरण में बहुत बार फुसफुसाहटों में ये शब्द इधर से उधर आते-जाते, जानें बड़े सरदार जी हर वक्त क्या लिखते हैं? यह सब आर्यसमाज के परिपत्र होते थे और छप कर दूर-दूर तक बंटते थे। कई पुस्तकें भी उन्होंने लिखी थीं। उनका बहुत साहित्य बाद की तलाशियों में पुलिस उठा ले गई, फिर भी बहुत कुछ सुरक्षित था। दुःख है कि वह सब बंटवारे की भेंट हो गया और इस प्रकार उनके साहित्य रूप की कहानी अनलिखी ही रह गई।”
शास्त्रार्थों में आर्य समाज का नेतृत्व करना बहुत बड़ी बात थी। यह हर किसी को सौभाग्य प्राप्त नहीं होता था कि वह आर्य समाज की ओर से किसी से जाकर शास्त्रार्थ करे। निश्चित रूप से यह सौभाग्य उसी को प्राप्त होता था जो बहुत अधिक अध्ययनशील होता था और शास्त्रों के अर्थ जानकर दूसरों से भिड़ने की क्षमता रखता था। तार्किक बुद्धि से किसी से भिड़ना शस्त्र बल से भिड़ने की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा काम होता है।
इस कार्य के लिए सरदार जी को चुना जाना, उनकी विद्वत्ता को प्रकट करता है। आर्य समाज के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण को प्रकट करता है। ऋषि सिद्धांतों का उन पर किस प्रकार प्रभाव हो चुका था ? – इस बात को प्रकट करता है। अर्जुन सिंह जी नाममात्र के आर्य समाजी नहीं थे। उन्होंने स्वामी दयानंद जी
की विचारधारा को घोटकर पी लिया था।
घोट घोट कर पीव लिया दयानंद का जाम।
सारे जगत में हुआ निज भगत का नाम।।
हमें और अधिक जानकारी देते हुए वीरेंद्र सिंधु लिखती हैं 'आर्यसमाजी होने पर भी उन्होंने बहुमत जनता का ध्यान कर गांव में गुरुद्वारा बनाने में पूरा सहयोग दिया, जब कि गुरुद्वारे में जाकर भी वे ग्रन्थ साहब के सामने मत्था नहीं टेकते थे। कहते थे कि यह तो मूर्ति पूजा की तरह ही पुस्तक-पूजा है। हर साल वे एक बड़ा यज्ञ करते थे.....जब उनके बड़े पोतों जगतसिंह और भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, तो उन्होंने एक को अपनी बायीं भुजा में और दूसरे को दायीं भुजा में भर कर यह संकल्प किया- मैं अपने दोनों वंशधरों को इस यज्ञवेदी पर खड़े हो, देश की बलिवेदी के लिए दान करता हूँ।"
जब अर्जुन सिंह इस प्रकार का संकल्प ले रहे थे तब उनकी दृष्टि में स्वामी दयानंद जी का चित्र निश्चित रूप से उपस्थित रहा होगा। उन्होंने अपने दो वंशधरों को राष्ट्रवेदी और यज्ञवेदी के लिए समर्पित किया। इसका अभिप्राय था कि राष्ट्र और धर्म की उन्हें चिंता थी। जिसकी यज्ञाग्नि को बलवती बनाए रखने के लिए उन्होंने किसी और को उपदेश नहीं दिया बल्कि ऋषि के उपदेश को हृदयंगम कर अपने आप उस पर चलकर दिखाए।
इसी तरह भगतसिंह के पिता सरदार किशनसिंह के बारे में वीरेन्द्र ने लिखा है: “साईंदास ऐंग्लो-संस्कृत हाई स्कूल, जालन्धर में शिक्षा पाने के बाद उनका सार्वजनिक जीवन महात्मा हंसराज के साथ आरम्भ हुआ।” भगतसिंह की माता विद्यावती अपने विवाह के विषय में बातचीत करते हुए कहती हैं: “यों तो दोनों परिवार सिक्ख थे, पर इधर आर्यसमाज का विशेष प्रभाव होने के कारण विवाह गुरु ग्रन्थ साहब से न होकर आर्यसमाजी ढंग से हुआ। फेरे वेदों से हुए, सरदार जी ने पण्डित के साथ-साथ स्वयं भी सभी मन्त्र पढ़े…..सारे गांव में इस बात की चर्चा हुई कि सरदार बरयामसिंह के घर तो ऐसा दामाद आया है जो मन्त्र भी स्वयं ही पढ़ता है।’ भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह भी दृढ़ आर्यसमाजी थे। ”
1894 ई. में अजीतसिंह ने साईंदास ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल से मैट्रिक पास किया। उनकी इच्छा अब बनारस में पढ़ने की थी। कारण था संस्कृत में बेहद दिलचस्पी…..अब वे डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर के छात्र थे…… आर्यसमाज के लिए उन्होंने बहुत-से पैम्फलेट और ट्रैक्ट लिखे। इनमें ‘विधवा की पुकार’ बहुत प्रसिद्ध हुआ।’
सरदार अजीतसिंह आर्यसमाज से पूर्ण रूपेण प्रभावित थे। किशोर भगतसिंह ने जब कभी भी अपने दादाजी या पिताजी के लिए पत्र लिखा तो उसमें उन्होंने ओ३म् और नमस्ते को अवश्य लिखा। ‘सत्यार्थ प्रकाश विमर्श’ के लेखक डॉ रामप्रकाश उक्त तथ्यों की जानकारी देते हुए पृष्ठ 77 – 78 पर हमें बताते हैं कि जब 1923 ई. के उत्तरार्द्ध में अपनी सगाई की निश्चित तिथि से कुछ दिन पूर्व भगतसिंह घर से लाहौर चले गए और फिर फरार हो गए, तब पिता के नाम अपनी मेज की दराज में रखे पत्र में लिखकर गए थे: “पूज्य पिता जी, नमस्ते। ”
” …आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त एलान किया था कि मुझे खिदमते-वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाज़ा में उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूं। उम्मीद है आप मुझे माफ फरमायेंगे।”
राम प्रकाश जी आगे लिखते हैं कि साण्डरस वध के पश्चात् भगतसिंह कोलकाता में दानवीर सर सेठ छाजूराम, केटी.सी.आई.ई. के घर पर ठहरे थे सेठ जी आर्यसमाज, कार्नवालिस स्ट्रीट (विधान सरणी), कोलकाता के प्रमुख नेता थे। उन्हें ‘सर’ की उपाधि मिली हुई थी। उनका घर अधिक सुरक्षित न समझा गया और भगतसिंह को फरारी के उन दिनों में आर्यसमाज, कोलकाता की छत पर निर्मित गुम्बजनुमा कोठड़ी में ठहराया गया। आर्यसमाज, कोलकाता में भगतसिंह ‘हरि’ नाम से जाने जाते थे। वे अंग्रेजी पोशाक पहनते थे। उनका हैट वाला प्रसिद्ध चित्र इसी आर्यसमाज में निवास के समय का है। जाते समय भगतसिंह आर्यसमाज के सेवक तुलसीराम को निशानी के रूप में थाली लोटा दे गए। समाज मन्दिर से चलते समय सुशीला दीदी ने भगतसिंह को अपने रक्त का टीका किया। असेम्बली बम काण्ड के पश्चात् जब भगतसिंह पकड़े गए और चित्र समाचारपत्रों में छपा, तब लोगों को पता चला कि आर्यसमाज मन्दिर की छत पर रहने वाला वह युवक कौन था ? सांडर्स हत्या से पूर्व जब भगतसिंह कमलनाथ तिवारी (लाहौर केस अभियुक्त और बाद में संसद सदस्य) के साथ कुछ केमिकल्स खरीदने कोलकाता आए थे, तब भी इसी आर्यसमाज में ठहरे थे। यही भगतसिंह कुछ समय आर्यसमाज दीवान हाल, दिल्ली में भी रहे थे। व्यक्ति वहीं ठहरता है जहाँ उसे अपनापन महसूस होता हो । भगतसिंह के छोटे भाई सरदार कुलतारसिंह और उनका परिवार आज भी आर्यसमाजी है। इतना होने पर भी क्या ‘भगतसिंह की क्रान्तिकारी चेतना आर्यसमाजी पृष्ठभूमि की देन’ नहीं है?’
हमारा मानना है कि सारा क्रांतिकारी आंदोलन ही आर्य समाज की देन था। आर्य समाज वह पारसमणि था, जिसके संपर्क में आकर हर कोई क्रांतिकारी हो जाता था। फिर भगत सिंह जी का तो क्रांतिकारी हो जाना इसलिए भी निश्चित था कि उनके दादाजी ने उन्हें बचपन में ही राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया था। जिस बच्चे को बचपन में ही ऐसे संस्कार मिल गए हों और जिसे बता दिया गया हो कि आर्य समाज उसकी मां है, उसके आर्य समाज होने या ऋषि का शिष्य होने पर भी यदि प्रश्न उठाए जाते हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे लिए और कोई नहीं हो सकता।
मुख्य संपादक, उगता भारत