वैदिक सम्पत्ति-298 (चतुर्थ खण्ड) जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान
(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )
प्रस्तुति: देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’ )
वेदमन्त्रो के उपदेश
गतांक से आगे….
औषधियों के अतिरिक्त वायु सेवन के द्वारा रोगनिवृत्ति करनेका उपदे इस प्रकार है-
आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो श्यावशं चरति देव एषः ।
घोषा इदस्य श्रृष्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥ ४ ॥ ( ऋ० १०/ १६८/४
अर्थात् देवों का आत्मा और भुवन का गर्भ यह वायुदेव अपनी इच्छा से चलता है । इसका केवल शब्द ही सुनाई पड़ता है, रूप नहीं दिखता। उस वायु के लिए हम हविष देते हैं ।
यददो बात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः ।
ततो नो देहि जीवसे ।। ( ऋ० १०।१८६।३ )
अर्थात् हे वायु ! आपके घर में जो अमृत का खजाना है, वह हमें जीने के लिए दीजिये ।
वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे ।
प्र ण आयुषि तारिषत् ।। (ऋ० १०।१८६।१ )
अर्थात् वायु आरोग्यता के लिए औषधि है । उससे हृदय की आरोग्यता बढ़ती है, बल प्राप्त होता है और आयु बढ़ती है।
उत वात पितासि न उत भ्रातोत नः सखा ।
स नो जीवातवे कृषि ।। (ऋ० १०।१८६/२ )
अर्थात् हे वात ! तू हमारा पिता है, हमारा भाई है और हमारा सखा है, अतः तू हमको जीवन के लिए तैयार कर। इसके आगे जल के आरोग्य प्राप्त करनेका उपदेश इस प्रकार है-
स्व१न्तरमृतमप्सु भेषजम् । अपामुत प्रशस्तिभिः
अश्रा भवथ वाजिनो गावो भवथ वाजिनीः ॥ ( अथवं० १/४/४ )
अर्थात् जल में अमृत है और जल में औषधि है, इसीलिए जल के इन श्रेष्ठ गुणों से गौ, बैल और घोड़े बलवान् होते हैं। जिस तरह जल से आरोग्यता होती है, उसी तरह सूर्यताप से भी आरोग्यता होती है एक मन्त्र में वेद उपदेश करते हैं कि-
उद्यन्नद्य मित्रमह आरोहन्नुत्तरां दिवम् ।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय ( ऋ० १।५०/१११ )
अर्थात् आज और नित्य प्रातःकाल आनेवाले हे सूर्य ! मेरे हृदय के रोगों का और रात के समय चोरी करने- बालों का नाश करो। इसका तात्पर्य यही है कि सूर्य देवता उदय होकर हृदयरोग और चोर दोनों का नाश करते हैं। इसके आगे शल्यकर्म (सर्जरी) का उपदेश इस प्रकार है-
शल्याद् विषं निरवोचं प्राज्ञ्जनादुत पर्णधे: ।
अपाष्ठाच्छङ्गात् कुल्मलान्निरवोचमहं विषम् ।। (अथर्व० ४।६।५ )
अर्थात शल्यकर्म से, लेप से, पर से, सींग से (सींगी से चूसकर), चाकू से और बाण से विष निकालता हूँ। इस मन्त्र में चीर फाड़, पोल्टिस, सींगी और बाण की नोक से मवाद निकालने का उपदेश है । इसके आगे रुके हुए पेशाब को खोलने के लिए इस तरह कहा गया है कि-
विद्या शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् ।
तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ( अथर्व० १।३।१ )
अर्थात् हम जानते हैं कि वृष्टि की अधिकता से सरकंडा होता है । उस सरकंडे से तेरे शरीर को अरोग्य करता हूँ । अब तेरे मूत्र का प्रवाह पृथिवी पर हो और बलबलाकर बाहर निकले। इसके आगे टूटी हुई हड्डियों के जोड़ने का उपदेश इस प्रकार है-
य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
संधाता स’धि मधवा पुरूवसूनिकर्ता विह्नतं पुनः ।। ४७ ।। ( अथर्व० १/ ४/ २ )
अर्थात् जो वैद्य टकराने से टूटी हुई ग्रीवा आदि जोड़ों की हड्डियों को यथास्थान चिपका कर जोड़ता है, वही टेढ़े और अकड़े हुए अङ्ग को भी सीधा कर देता है। इस मन्त्र में बतलाया गया कि टकराने आदि से टूटी हुई हड्डियों को ठीक ठीक बांधकर जोड़नेवाला हो टेढ़े अङ्गों को भी ठीक कर सकता है। इसके आगे विना दबादारू के केवल रोगी के मन को उत्तेजना, उत्साह और प्रेरणा (Suggestion) देकर रोगों को निर्मूल करने का उपदेश इस प्रकार दिया गया है –
अङ्गादङ्गालोम्नोलोम्नो जातं पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते । ( ऋ० १०/१६३/६ )
अर्थात् मैं अपने आत्मबल से अङ्ग-अङ्ग रोम-रोम, जोड़-जोड़ से यक्ष्मारोग को निकाल बाहर करता हूँ। इस प्रेरणा को आकर्षणशक्ति के साथ किस प्रकार करना चाहिये, उस क्रिया का उपदेश इस प्रकार किया गया है-
अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः । जयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः ॥ ६ ॥
हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी ।
अनामवित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ॥ ७ ॥ ( अथर्व० ४।१३/६-७ )
अर्थात् मेरा यह हाथ प्रभावशाली है, मेरा यह हाथ अधिक गुणकारी है, मेरा यह हाथ सब रोगों की दवा और मेरे इस हाथ के स्पर्श से आरोग्यता होती है। मैं प्रेरणात्मक वाणी और दशशाखा (अंगुली) वाले तथा आरोग्य देनेवाले दोनों हाथों से तुझे स्पर्श करता है। इन मन्त्रों में पास के द्वारा प्रेरणात्मक वाणी से रोगी को आरोग्य करने का उपदेश है।
क्रमशः