आर्य समाज – एक क्रांतिकारी संगठन: स्वामी दयानंद जी के इतिहास ज्ञान के आदि स्त्रोत , भाग 2
इस अवसर पर अपना ओजस्वी वक्तव्य देते हुए दंडी स्वामी बिरजानन्द जी महाराज ने लोगों का आवाहन किया था कि वे सब देश के लिए एक होकर काम करें । राष्ट्र की उन्नति के लिए सबके संयुक्त प्रयास से ही विदेशी सत्ता को देश से उखाड़ फेंकने में सफलता मिल सकती है। उपरोक्त पुस्तक से जानकारी मिलती है कि :-
“सबसे पहले उन्होंने खुदा की तारीफ की, उर्दू में उसका तरजुमा किया। इस बुजुर्ग ने यह कहा था कि आजादी जन्नत/स्वर्ग है और गुलामी दोजख / नरक है। अपने मुल्क की हकूमत गैरमुल्क की हकूमत के मुकाबले में हजार दर्जे बेहतर है। दूसरों की गुलामी हमेशा बेइज्जती और बेशरमों का बायस है। हमें किसी कौम से या किसी मुल्क से कोई नफरत नहीं है। हम तो खल्के खुदा की बहबूदी के लिए खुदा से रोज दुआ माँगते हैं। मगर हुकमरान कौम खासकर फिरंगी जिस मुल्क में हकूमत करते हैं, उस मुल्क के बाशिन्दों के साथ इन्सानियत का बरताव नहीं करते और कितनी ही अपनी अच्छाई की तारीफ करें, मगर उस मुल्क के बाशिन्दों के साथ मवेशियों से गिरा हुआ बरताव करते हैं। खुदा की खलकत में सब इन्सान भाई-भाई हैं मगर गैर मुल्की हुकमरान कौम उन्हें भाई न समझकर गुलाम समझती है। किसी भी मजहब की किताब में ऐसा हुक्म नहीं है कि अशरफुल्मखलूकात के साथ दगा की जावे और अल्लाह के हुक्म के खिलाफ बरजी की जावे, इश वास्ते मातहत लोगों का न कोई ईमान है, न कोई धर्म मगर सियासी मसले में आकर वह अपने कौल फेल समझ कर फौरन बदल जाते हैं और हमारी अच्छाई और नेक सलाह को फौरन ठुकरा देते हैं। इसकी असल बजूहात यह है कि हमारे मुल्क को वह अपना वतन नहीं समझते। हमारे मुल्क का बच्चा-बच्चा उनकी खैर ख्वाही का दम भरे फिर भी अपने वतन के कुत्ते को हमारे इन्सानों से अच्छा समझते हैं, यही सब कमी का बायस है, इन्हें अपने ही वतन से मुहब्बत है, इसलिए मैं (स्वामी विरजानन्द) बाशिन्दगान हिन्द से इलतजा करता हूँ कि जितना वह अपने मजहब से मुहब्बत करते हैं उतना ही इस मुल्क के हर इन्सान का फर्ज है कि वतन- परस्त बनें और मुल्क के हर बाशिन्दे को भाई-भाई जैसी मुहब्बत करे तब तुम्हारे दिलों के अन्दर वतन परस्ती आ जाएगी तो इस मुल्क की गुलामी खुद व खुद जुदा हो जाएगी। हिन्द के रहने वाले सब आपस में हिन्दी भाई हैं और बहादुरशाह हमारा शहंशाह है।”
गुरु जी का देश जागरण का कार्य
स्वामी बिरजानंद जी महाराज की उपरोक्त ओजपूर्ण भाषण शैली से यह स्पष्ट होता है कि उनके विचार देश को आजाद कराने के थे और विदेशी शासकों के विरुद्ध वे देश के लोगों को जगा रहे थे। अब तनिक उन क्षणों को याद करें जब स्वामी दयानंद जी महाराज अपनी गुरु दक्षिणा में कुछ लौंग लेकर उनके पास जाते हैं और उस समय गुरु जी उनसे कहते हैं कि मुझे तुमसे लौंग या किसी भी प्रकार की गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए बल्कि तुम्हारा जीवन चाहिए। इसका सीधा सा अभिप्राय यही था कि गुरुजी ने अपने शिष्य दयानंद के भीतर की प्रतिभा को पहचान लिया था। उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि जिस कार्य को वे स्वयं नहीं कर पाये उसे उनका यह शिष्य अवश्य ही पूर्ण कर दिखाएगा। उन्हें अपने शिष्य पर यह विश्वास था कि जिस भवन की नींव वह स्वयं रख रहे हैं ,उस पर भव्य भवन बनाने की क्षमता यदि किसी के अंदर है तो वह दयानंद के ही अंदर है। वह चाहते थे कि उनके द्वारा रखी गई नींव पर शानदार भवन बनाया जाए। इसके लिए दयानंद को आत्म कल्याण अर्थात स्वयं मोक्ष पाने के स्थान पर समस्त देशवासियों को मोक्ष अर्थात तात्कालिक क्रूर राज्यसत्ताओं से मुक्ति दिलाने के संदर्भ में काम करना चाहिए।
जिस समय स्वामी विरजानंद जी महाराज अपने शिष्य दयानंद को इस प्रकार का उपदेश कर रहे थे ,उससे पहले निश्चित रूप से वे अपने सारे इतिहास ज्ञान को और देश की विदेशी सरकार के द्वारा किये जा रहे अत्याचारों के बारे में दयानंद को विस्तार से बता चुके होंगे। स्वामी दयानंद जी भी अपने आपको अबसे पूर्व सिद्ध कर चुके थे। गुरु जी यह जान चुके थे कि दयानंद ही उनका वास्तविक उत्तराधिकारी है। दयानंद जी अब से पूर्व 1857 की क्रांति के समय से ही देश जागरण के पुण्य कार्य में लगे हुए थे।
मथुरा की बैठक के बारे में कुछ जानकारी
मथुरा में आयोजित की गई उपरोक्त सभा के बारे में हमें जानकारी मिलती है कि-"सम्वत् 1913 विक्रमी में (सन् 1856 ई०) यह पंचायत दूर दराज जंगल में की गई थी और शुरू भादों का यह माह था। यह पंचायत चार रोज तक होती रही। पहले दिन आने वाले सब मेहमानों की एक-दूसरे से मुलाकात कराई गई थी। दूसरे दिन हजरत आदम से लेकर हजरत अलेह व सलम तक सवाने उमरी सुनाई गई। तीसरे दिन राम, कृष्ण, महात्मा बुद्ध, शंकराचार्य और महावीर स्वामी अनेक ऋषि और मुनि और राजा-महाराजाओं की जिन्दगी की दास्तानों पर रोशनी डाली गई और चौथे दिन नाबीना संन्यासी महात्मा बिरजानन्द जी और मुसलमान साईं मियांरममदून शाह ने शुरू में बिरजानन्द जी की तकरीर से पहले शुरुआत की। आज दिन की तकरीर में खासम खास लोगों की ही जमायत थी और खुफिया (और) सरकारी आदमी इसमें नहीं था । नाबीना महात्मा की तकरीर बहुत ही पुरजोर थी और हर मजहबी इल्म से ताल्लुक रखती थी और डेढ़ घंटे तक तकरीर होती रही। मैंने (मीर मुश्ताक मीरासी) इनकी ( अर्थात स्वामी दयानंद जी के गुरु दंडी बिरजानंद जी)
तकरीर के खास-खास इलफाज तहरीर किये हैं, बाकी उन्होंने हर
पहलुओं पर रोशनी डाली थी। जब महात्मा बिरजानन्द को पालकी में बिठाकर लाया गया, उस वक्त हिन्दू-मुसलमान फकीरों ने इनकी खुशी में शंख, घड़ियाल, नागफणी, नक्कारा (नगाड़ा), तुरही और नरसिंघे बजाए थे और खुदापरस्ती और वतनपरस्ती के गीत गाए थे। यह नाबीना शाधु (साधु) हर इल्म के समझने की ताकत रखता था और खुदा का जलवे जुलाल इसकी जबान से जाहिर होता था। मैंने (मीर मुश्ताक मीरासी) भी अपनी रुह के तकाजे के मुताबिक 5 फूल उनके सामने पेश किये और उनकी कदम बोसी (स्पर्श) की और खुदा से दुआ माँगी कि खुदा ऐसी नेक रुहों को खलकत की भलाई के लिए हमेशा पैदा कीजिए।’
स्वामी बिरजानंद जी को सर्व समाज का यह सम्मान केवल उनकी राष्ट्रभक्ति और ईश्वरभक्ति के साथ-साथ उनके परमयोगी स्वरूप को प्राप्त हो रही थी। यह एक दुर्लभ बात थी कि इतना वृद्ध साधु भी देश के लिए सोच रहा था। विशेष रूप से तब जब उनके पास अपने नेत्र भी नहीं थे। इसके उपरांत भी वह देश को आजाद करने की योजना पर काम कर रहे थे। इसका कारण केवल एक था कि वे जानते थे कि देश को आजाद करने के उपरांत ही वैदिक संस्कृति की रक्षा होना संभव है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने जब अपने जीवन को देश के लिए समर्पित होकर काम करना आरंभ किया तो गुरु बिरजानंद जी का ओजस्वी और तेजस्वी नेतृत्व निश्चित रूप से उन्हें जीवन भर मार्गदर्शन देता रहा। इसी प्रकार के मार्गदर्शन के चलते स्वामी जी ने देश के युवाओं का देश सेवा के लिए आवाहन किया। उन्होंने सोए हुए भारत को जगाया और उन्हें बताया कि तुम किस प्रकार के महान देशभक्त बलिदानी पूर्वजों की संतान हो?
स्वामी जी महाराज ने बिना किसी लाग लपेट के अपनी बातों को कहना आरंभ किया। उन्होंने इस बात की कभी परवाह नहीं की कि उनकी बातों से विदेशी शासकों को बुरा लगेगा।
दंडी स्वामी बिरजानंद जी के द्वारा यह बात स्वामी दयानंद जी को भली प्रकार समझा दी गई थी कि भारत की वर्तमान दुर्दशा का करण एक तो अनार्ष ग्रंथों का पठन-पाठन है और दूसरे यहां पर बलात विदेशी राज्य का स्थापित होना है। यदि वर्तमान भारत की दुर्दशा को सुधारना है तो इन दो मूल कारणों को हटाना ही पड़ेगा। स्वामी दयानंद जी महाराज ने गुरु जी के इस विचार को अपने जीवन में साकार रूप प्रदान किया। यही कारण था कि उन्होंने लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति का विरोध करते हुए उन अनार्ष ग्रंथों का भी विरोध किया जिन्होंने भारत की मूल वैदिक परंपरा को विलुप्त करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई थी। इसके साथ-साथ उन्होंने विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने का भी प्रशंसनीय कार्य किया। अपनी हर सभा में वह विदेशी शासकों के विरुद्ध लोगों को आवाज उठाने और क्रांतिकारी उपायों के माध्यम से सक्रिय रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग करने के लिए प्रेरित करते थे।
क्रान्ति का संदेश लेकर वह दीवाना चल दिया,
भगवा ध्वज लिए हाथ में गीत गाता चल दिया।
ज्यों – ज्यों कदम आगे बढ़े,बढ़ते गए – बढ़ते गए,
रुकने का न कहीं नाम था, लक्ष्य साधे चल दिया।।
मन क्रांति का आगार उसका, वह क्रांति दूत था,
दी जला क्रूर सत्ता और मां भारती का सपूत था।
साधु था, संन्यासी था,गरीबों का वह मसीहा था,
वेद धर्म का उद्धारक, सचमुच वह धर्म दूत था।।
डॉ राकेश कुमार आर्य