अपनी पुस्तक “लाल किले की दर्द भरी दास्तां” में डॉ मोहनलाल गुप्ता ने स्पष्ट किया है कि दिल्ली का मुगल बादशाह नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह रंगीला बहुत ही अय्याश किस्म का बादशाह था। जिसने 1719 ईस्वी में गद्दी पर बैठते ही दरबार को ही अय्याशी का केंद्र बना दिया था। ऐसा नहीं है कि इससे पहले मुगल दरबार में ऐसा नहीं होता था, पर पूर्व के मुगल बादशाहों के समय में अय्याशी का अलग स्थान होता था। कुल मिलाकर थोड़ा बहुत सरकारी कार्य राजदरबार में उस समय निपट ही जाता था। पर जब मुहम्मद शाह रंगीला बादशाह बना तो उसके दरबार में ही भड़वे, हिजड़े और वेश्याओं का नाचना गाना आरंभ हो गया। इस बादशाह ने उन शायरों को महत्व दिया जो अय्याशी भरी शायरी को बनाते सुनाते थे। जहां तक भारत की बात है तो भारतवर्ष में तो प्राचीन काल से ही नचकइयों, भड़वों, वेश्याओं आदि का राजदरबारों से दूर-दूर तक का भी कोई संबंध नहीं होता था। यहां तक कि ब्रह्मचर्य आश्रम में रहने वाले ब्रह्मचारियों और ब्रह्मचारिणियों की दिनचर्या में भी उन्हें कहीं सम्मिलित नहीं किया जाता था। देश सेवा में लगे हुए सैनिकों को भी राष्ट्र सेवा के दायित्व का निर्वाह करने के लिए इन सबसे दूर रखा जाता था जिससे उनकी शारीरिक शक्ति का हनन ना हो और मन में आवश्यक आवेग भी न उठने पाएं।
मन की शक्ति क्षीण हो, उठते जब आवेग।
शक्ति की करो साधना, उन्नत हो निज देश।।
पृष्ठ 371 - 372 पर उपरोक्त लेखक लिखते हैं कि "जब उर्दू शायरी मुगल दरबार से निकलकर दिल्ली की गलियों में टहलने निकली तो उसने वेश्याओं और नृत्यांगनाओं के कोठों पर मुकाम किया। मनचले अमीर तथा उनके बेटे इन कोठों पर आकर उर्दू शायरों की शायरी रक्कासाओं की अदायगी तथा गवैयों की गायकी का एक साथ आनंद उठाने लगे। साहित्य की तरह नृत्य में मुजरा और संगीत में ध्रुपद गायकी का प्रचलन हो गया। मोहम्मद शाह रंगीला खुद भी औरतों के कपड़े पहन कर मुजरा करता और ध्रुपद गाता । ध्रुपद गायकी आज तक की सबसे कठिन गायकी मानी जाती है ।...... मोहम्मद साहब रंगीला की जिंदगी इन सब बातों में आराम से निकल रही थी। उसे राज्य शासन करते हुए 30 साल हो गए थे किंतु उसने कभी भी कोई युद्ध नहीं लड़ा था। न महाराजा अजीत सिंह के पुत्र अभय सिंह से जो दिल्ली के बाहर सराय अली खान तक धावे मार रहा था, न पेशवा बाजीराव से जो कालकाजी में लूट मचा कर वापस लौट गया था, न सिंधिया गायकवाड़ , पंवार और होलकर से जो मालवा गुजरात में अलग-अलग राज्य स्थापित करके बैठ गए थे।"
इसी मुगल बादशाह ने बेहूदी और अय्याशी भरी उर्दू की शायरी को ही हिंदी का नाम दिया। इससे पहले भारतीय भाषा को हिंदी के नाम से नहीं पुकारा जाता था। मुगल बादशाह ने अपने पूर्वजों की भांति यहां के लोगों को हिंदू कहा तो हिंदुस्तान की भाषा को उसने ‘हिंदी’ या ‘हिंदुस्तानी’ का नाम दिया। मुगल बादशाह ने जिस भाषा को ‘हिंदी’ कहा था , वह अपने आप में एक खिचड़ी भाषा थी। जिसमें अनेक भाषाओं के शब्दों को ले लिया गया था। उर्दू भी अपने आप में एक ऐसी ही भाषा है। उर्दू का अर्थ ही भीड़ होता है। जिस भाषा में अनेक भाषाओं की भीड़ हो, अरबी , फारसी ,अफगानी, तुर्की , यूनानी विभिन्न देशज भाषाओं के शब्दों का जहां जमावड़ा हो, उसे उर्दू कहा जाता है।
मुहम्मद शाह रंगीला के इसी ‘हिंदुस्तानी’ या ‘हिंदी’ के विचार को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने के बाद लागू करने का प्रयास किया।
कुल मिलाकर कहने का अभिप्राय है कि ‘हिंदी’ और ‘हिंदुस्तानी’ से भारत की किसी भी भाषा का कोई लेना देना नहीं है। जिस भाषा को हम आजकल हिंग्लिश या उर्दू मिश्रित शब्दों के साथ प्रयोग करते हैं, वह भाषा हमारी पराधीन मानसिकता का परिचायक है। पराधीनता के इन प्रतीकों या चिहनों को पंडित जवाहरलाल नेहरू या उन जैसी मानसिकता के लोग यथावत बनाए रखने के पक्षधर थे।
भाषा को बदरंग कर, किया घोर अन्याय।
आर्य राष्ट्र में गूंजती, अपनी भाषा नाय ।।
दूसरी ओर स्वामी दयानंद जी महाराज थे, जो पराधीन भारत के काल से ही भारत की राष्ट्रभाषा को ‘आर्यभाषा’ के नाम से पुकारते थे। उनकी आर्य भाषा संस्कृतनिष्ठ थी। उसे तत्कालीन परिस्थितियों में यदि आप थोड़ी देर के लिए हिंदी का नाम भी दे दें तो भी शुद्ध और परिष्कृत वैज्ञानिक भाषा थी। जिसमें संस्कृत को प्रतिष्ठा प्रदान की गई थी। इस भाषा में एक भी गाली नहीं थी। इसीलिए यह देवभाषा संस्कृत की उत्तराधिकारिणी भाषा थी। स्वामी जी महाराज ने इसे आर्यभाषा इसलिए कहा कि भारत देश के निवासियों को वह आर्य कहते थे और भारत को वह आर्यावर्त के नाम से संबोधित किया करते थे । आर्यों का निजी जीवन तो आर्यत्व से भरपूर होता ही था उनकी भाषा भी बहुत ही उत्तम होती थी। आर्यों की भाषा- आर्यभाषा अर्थात श्रेष्ठ भाषा और एक ऐसी भाषा जिसमें एक भी गाली ना हो। स्वामी जी महाराज ने अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को भी इसी आर्यभाषा में लिखने का सराहनीय कार्य किया। स्वामी जी महाराज के पश्चात आर्य समाज की पहली और दूसरी पीढ़ी के अनेक विद्वानों ने जिस साहित्य की रचना की उसमें उर्दू मिश्रित किसी भी प्रकार की अवैज्ञानिक भाषा की पूर्णतः उपेक्षा की गई और शुद्ध संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया गया। यद्यपि कई भजनोपदेशक अपने भजनों में उर्दू के अनेक शब्दों का प्रयोग करते रहे।
स्वामी जी महाराज ने भारत की राष्ट्रभाषा को कभी ‘हिंदी’ या ‘हिंदुस्तानी’ का नाम नहीं दिया। इसका एक ही कारण था कि वह जानते थे कि ‘हिंदी और हिंदुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है और यदि अपनी राष्ट्रभाषा को ‘हिंदी या हिंदुस्तानी’ का नाम दिया गया तो यह भारत की आत्मा के साथ खिलवाड़ करने जैसा होगा। उन्होंने भारत की संस्कृत को भारत की आत्मा के रूप में देखा, विश्वात्मा के रूप में देखा। उससे निर्मित भाषा को ही वह भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के पक्षधर थे । जिस प्रकार हिंदू शब्द उन्हें आर्यों के लिए उचित नहीं लगता था, उसी प्रकार वह आर्यों की भाषा को भी हिंदी या हिंदुस्तानी मानने को कदापि तैयार नहीं थे।
हिंदी हमारी शान है, संस्कृत का यदि ज्ञान।
माता अपने दूध का, करवाती हमें पान।।
स्वामी दयानंद जी महाराज की अपनी संस्कृतनिष्ठ आर्य भाषा अर्थात राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति श्रद्धा का ही परिणाम था कि 14 सितंबर 1949 को उसे भारत की संविधान निर्मात्री सभा में राजभाषा का दर्जा दिया गया। हम लेख में आगे स्वामी दयानंद जी महाराज की आर्यभाषा को सुविधा के दृष्टिकोण से हिंदी के नाम से ही संबोधित करेंगे, पर पाठकों से यह निवेदन भी करेंगे कि वह जहां भी हिंदी का प्रयोग हो वहां – वहां ही उसे स्वामी दयानंद जी के दृष्टिकोण से समझते हुए आर्यभाषा अर्थात संस्कृतनिष्ठ हिंदी के रूप में पढ़ें, ना कि उर्दू ,अरबी, फारसी, इंग्लिश या अन्य अनेक प्रकार की देशज भाषाओं के शब्दों से बनी ‘हिंदुस्तानी’ के रूप में।
स्वामी जी महाराज का यह स्पष्ट विचार था कि किसी भी बच्चे को यदि उसकी मातृभाषा में अपने विचारों की अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाए तो वह कहीं अधिक आत्मविश्वास के साथ अपनी अभिव्यक्ति देने में सफल होता है। इसके अतिरिक्त संसार की सर्वाधिक प्राचीन भाषा संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक है। उसके स्थान पर अन्य अवैज्ञानिक भाषाओं का प्रयोग करना भारत की वैज्ञानिक ऋषि परंपरा के साथ भी अन्याय करना होगा। इसके उपरांत भी हमारे देश में कुछ ऐसे असामाजिक तत्व हैं जिन्होंने भारत की आर्यभाषा हिंदी को साम्राज्यवादी भाषा के रूप में उल्लेखित किया है। जो लोग ऐसा मानते हैं वे निरे अज्ञानी हैं। साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी हो सकती है, अरबी व फारसी हो सकती हैं, पर आर्य भाषा हिंदी कभी नहीं हो सकती। अंग्रेजी, अरबी और फारसी के मानने वाले लोगों ने संसार भर में साम्राज्यवाद की आंधी चलाने का काम किया है। अपने इस अमानवीय दुराचरण का परिचय देते हुए इन लोगों ने भाषा के नाम पर भी बड़े-बड़े नरसंहार किए हैं।
भाषा भी हिंसा करे, चढ़े मजहब का रंग।
देख बुरी इस सोच को हर कोई होता दंग।।
जिस समय तक स्वामी दयानंद जी महाराज आए उस समय तक भारत की आर्यभाषा को लोग हिंदी के नाम से जानने लगे थे। स्वामी जी ने बंगाली नेता केशवचंद्र सेन जी के आग्रह को स्वीकार करते हुए हिंदी में लेखन कार्य आरंभ किया और अपने अमर ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' को भी उन्होंने हिंदी में ही लिखा।
जब अपने इस ग्रंथ को केशव चंद्र सेन के आग्रह पर उन्होंने हिंदी में लिखना आरंभ किया तो उसके पीछे भी एक विशेष घटना घटित हुई थी। 1872 ईस्वी में स्वामी दयानंद जी महाराज कोलिकाता गए थे, जहां उन्होंने संस्कृत में व्याख्यान दिए थे। उस समय भारत की राजधानी भी कोलिकाता में ही थी। स्वामी दयानंद जी महाराज द्वारा दिए जा रहे संस्कृत भाषण का हिंदी में अनुवाद किया जाना भी उस समय आवश्यक था । जिसे गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेश चन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। जिन्होंने उसकी मनमानी व्याख्या कर डाली थी। स्वामी जी महाराज के आशय से अलग किए गए अनुवाद का उपस्थित विद्यार्थियों, शोधार्थियों और श्रोताओं ने विरोध किया। तब अनुवादक न्यायरतन सभा छोड़कर चले गए थे। इसके उपरांत केशव चंद्र जी ने स्वामी जी से आगे से हिंदी में भाषण देने का आग्रह किया।
इस एक छोटी सी घटना ने आगे का मार्ग प्रशस्त कर दिया आप यह भी कह सकते हैं कि इस छोटी सी घटना ने इतिहास को निर्णायक मोड़ दे दिया। यद्यपि स्वामी दयानंद जी महाराज की अपनी मातृभाषा गुजराती थी और उनका अध्ययन अध्यापन संस्कृत में होने के कारण वह हिंदी की अपेक्षा संस्कृत में अधिक उत्तमता के साथ वार्तालाप, व्याख्यान, लेखन शास्त्रार्थ और शंका का समाधान आदि का कार्य करने में सक्षम थे । परंतु इसके उपरांत भी उन्होंने केशव चंद्र जी की बात को स्वीकार कर राष्ट्रहित में हिंदी में लिखना आरंभ किया। उनकी आर्य-भाषा के प्रति इस प्रकार की निष्ठा का प्रभाव यह हुआ कि हमारे देश के अनेक क्रांतिकारियों ने अपने समाचार पत्र ,पत्रिकाएं या पत्रक हिंदी में ही निकालने आरंभ किये । जिससे हिंदी के प्रचार प्रसार में पर्याप्त सहायता मिली।
स्वामी दयानंद जी महाराज बड़ी विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना मात्र 3 महीने में कर डाली थी। जिस ग्रंथ को लिखने से पहले स्वामी जी महाराज को 3000 ग्रंथों / पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ा हो उनके निचोड़ को मात्र 3 महीने में एक पुस्तक में समायोजित या संकलित कर देना स्वामी दयानंद जी के ही वश की बात थी। हिंदी में लिखा गया उनका यह ग्रंथ भारत ही नहीं भारत से बाहर भी लोकप्रिय हुआ। इस ग्रंथ को पढ़ने के पश्चात अनेक युवाओं का हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने भारत के स्वाधीनता आंदोलन की क्रांतिकारी विचारधारा के साथ जुड़कर देश की स्वाधीनता के लिए अपना अप्रतिम योगदान दिया । कितने ही युवाओं ने आजीवन अविवाहित रहकर देश सेवा का संकल्प लिया और कितनों ने ही देश सेवा करते हुए अपना अनुपम बलिदान दिया।
अंग्रेजी साम्राज्य की भारत में होली जलाने का काम यदि किसी एक ग्रंथ की विचारधारा ने किया तो वह ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” ही था। गांधीजी सहित अनेक नेताओं ने स्वदेशी के नाम पर जिस प्रकार विदेशी कपड़ों की अलग-अलग स्थानों पर और अलग-अलग समय पर होली जलाई वह होली जलाने का बार-बार का आवाहन वास्तव में सत्यार्थ प्रकाश की विचारधारा की ही परिणति था।
थियोसोफिकल सोसायटी की नेत्री मैडम ब्लेवत्स्की ने स्वामी दयानंद जी से उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद करने की अनुमति चाही थी। यह 1879 की घटना है। तब स्वामी दयानंद जी महाराज ने मैडम ब्लेवत्सकी के लिए पत्र लिखकर उनसे कहा था कि यदि उनके ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाएगा तो इससे हिंदी के प्रचार प्रसार में अवरोध आएगा। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। स्वामी जी के हिंदी के प्रति इस प्रकार के दृष्टिकोण से पता चलता है कि वह किस सीमा तक राष्ट्रभाषा हिंदी के समर्थक थे? उन्हें इस बात का मोह नहीं था कि यदि उनके ग्रंथों का अंग्रेज़ी अनुवाद होता है तो इससे उनके पाठकों की संख्या बढ़ेगी ? इससे अधिक उनके लिए यह अनिवार्य था कि मेरे देश की भाषा देश के लोगों से संवाद करे और उनके भीतर क्रांति भाव उत्पन्न कर विदेशी शक्तियों को भारत भूमि से खदेड़ने का काम करे।
अंग्रेजी में अपने ग्रंथों के अनुवाद को स्वामी जी इसलिए भी अनुचित मानते थे कि भारत आर्यभाषा भाषियों का देश है। यदि इस समय उनके महत्वपूर्ण ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया तो कई लोग हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी की पुस्तकों को प्राथमिकता देकर उसे प्रोत्साहित करने का काम करेंगे। यद्यपि स्वामी दयानंद जी के बाद अंग्रेजी भाषा में भी आर्य विद्वानों ने लिखने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। उनका इस प्रकार का लेखन अनुचित ही कहा जाएगा। जिस प्रकार स्वामी जी महाराज ने अपने ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद करने से इनकार कर दिया था, उसी प्रकार उन्होंने हरिद्वार में एक व्यक्ति द्वारा उनकी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद करने के आग्रह को अस्वीकार करके भी अपनी आर्यभाषा हिंदी के प्रति निष्ठा व्यक्त की थी। उस समय उन्होंने कहा था कि अनुवाद विदेशियों के लिए हुआ करता है। इस संबंध में जानकारी देते हुए मनमोहन कुमार आर्य जी लिखते हैं :- “हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने कहा, ‘‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा।” इस स्वर्णिम स्वप्न के द्रष्टा स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में एक स्थान पर लिखा है कि आर्या (भारत वर्ष का प्राचीन नाम) भर में भाषा का एक्य सम्पादन करने के लिए ही उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों को आर्य भाषा (हिन्दी) में लिखा एवं प्रकाशित किया है। अनुवाद के सम्बन्ध में अपने हृदय में हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम को प्रकट करते हुए स्वामी दयानंद जी महाराज स्पष्ट कहते हैं, ‘‘जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी, वह इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे।” यही नहीं आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उन्होंने हिन्दी सीखना अनिवार्य किया था। भारत वर्ष की तत्कालीन अन्य संस्थाओं में हम ऐसी कोई संस्था नहीं पाते जहां एकमात्र हिन्दी के प्रयोग की बाध्यता हो।”
एक महत्वपूर्ण घटना
बात 1872 से 1882 के बीच की है । उस समय स्वामी जी महाराज हिंदी में अपने व्याख्यानों, शास्त्रार्थों के लिए बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। उस समय ब्रिटिश सरकार ने डॉ हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया और उससे कहा गया कि वह भारत में राज्य कार्य करने के लिए किसी एक उपयुक्त भाषा की संस्तुति करे। जब इस आयोग ने अपना काम करना आरंभ किया तो स्वामी दयानंद जी महाराज ने उस समय संपूर्ण देशवासियों का आवाहन कर हिंदी को राजभाषा बनाने पर बल दिया । उन्होंने देश की सभी आर्य समाजों के लिए लिखा और आर्य लोगों से विशेष अपील की कि वह राजभाषा बनाने के लिए हिंदी का समर्थन करें। स्वामी जी महाराज के आवाहन पर उस समय लाखों की संख्या में लोगों ने हंटर कमीशन को हिंदी के समर्थन में अपने ज्ञापन सौंपे थे।
स्वामी जी द्वारा किए गए इस प्रकार के आवाहन का परिणाम यह निकला कि बड़ी संख्या में लोग हिंदी प्रेमी बनते चले गए। इसके तथ्य इस प्रकार हैं “स्वामी जी की प्रेरणा के परिणामस्वरुप देश के कोने-कोने से आयोग को बड़ी संख्या में लोगों ने हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेजे गए जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द द्वारा किया गया यह कार्य भी इतिहास की अन्यतम घटना है। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से जिन प्रमुख लोगों ने हिन्दी सीखी उनमें जहां अनेक रियासतों के राज परिवारों के सदस्य थे वहीं कर्नल एच. ओ. अल्काट आदि विदेशी महानुभाव भी थे जो इंग्लैण्ड में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने भारत आये थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराजा स्वामी दयानन्द के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा पर उन्होंने अपनी रियासतों में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था।”
इस प्रकार मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला ने चाहे जिस हिंदी या हिंदुस्तानी को स्थापित करने का काम किया हो पर स्वामी जी ने उस भाषा का आर्यकरण कर उसे आर्य भाषा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य