विस्थापित कश्मीरी पंडितों का दर्द आखिर कब तक उपेक्षित किया जाएगा?
लगभग तैंतीस साल हो गए हैं कश्मीरी पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग ऑपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई सार्थक बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा। हालांकि अब वह स्थिति नहीं रही क्योंकि केंद्र में सत्ता-परिवर्तन और धारा ३७० के हटने के साथ ही अब जम्मू-कश्मीर की परिस्थितियां बदल गयी हैं।
बहुत लम्बे समय तक उच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी। काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती! लगभग तैंतीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। एक समय वह भी आएगा जब उपनामों को छोड़ इस जाति की कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी।
दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्व होते हैं। अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान यह सपना कभी सच भी हो जाए!
यहाँ पर इस बात को रेखांकित करना लाजमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण और राष्ट्रभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता। इस के लिए परमावश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू,कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को विधानसभा/लोकसभा/राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुख दर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले।केन्द्र सरकार ने हाल ही में संसद में एक बिल पास कर इस के लिए प्रावधान तो रखा है। अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है। कहना न होगा कि केंद्र में आई नयी एनडीए सरकार इस दिशा में सार्थक कदम उठा रही है जो एक स्वागत-योग्य कदम है।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा