भारत -पाक विभाजन दंगों की भीषण मारकाट युक्त घटनाओं से विचलित वैरागी होने वाले मुस्लिम धोबी किशोर युवक मुंशी के ब्रह्मचारी मनु देव तथा कालांतर में जीवनमुक्त योगी सन्यासी श्रद्धेय स्वामी “सत्यपति परिव्राजक महाराज” बनने की त्याग तपस्या तितिक्षा मुमुक्षत्व ईश्वर के प्रति समर्पण से युक्त जीवन यात्रा का स्वामी जी द्वारा स्वयंकथित वर्णन ||
ईश्वर अतिशय ज्ञान, बल ,आनंद ,निर्भयता आदि असंख्य गुणों का भंडार है…| उस के दरबार में मत, पंथ ,देश ,प्रांत जैसी बाध्यता लागू नहीं होती | इसका साक्षात आदर्श अनुपम उदाहरण थे जीवनमुक्ति मोक्षगामी योगी परम पूज्य स्वामी सत्यपति परिव्राजक जिन्होंने 58 से अधिक वर्षों से सतत वैदिक धर्म ,योग विद्या व्याकरण ,संस्कृति ,आदर्श परंपराओं का प्रचार प्रसार तन मन धन से …किया| जिनके द्वारा सन् 1986 में स्थापित दर्शन योग महाविद्यालय व स्वामी जी के संरक्षण में ,आर्यवन रोजड़ गुजरात में देश के दर्जनों प्रांत के सैकड़ों त्यागी, तपस्वी ,वैराग्यवान ,युवा दार्शनिक विद्वान, व्याकरण आचार्य ,वेद प्रचारक, उपदेशको का निर्माण किया गया है.. जीवनमुक्त योगी पूज्य स्वामी जी ने योग दर्शन के व्यास भाष्य की हिंदी टीका की है जो बहुत ही अमूल्य अनुपम है नवीन योगाभ्यासीयों के लिए…। साथ ही साथ योग में ऊंची योग्यता रखने वाले योग साधकों के लिए यह भाष्य टीका ‘योगदर्शनम्’ के नाम से मिलता है | इसके साथ ही स्वामी जी ने दर्शन योग अध्यात्म उपनिषद पर अमूल्य वैदिक साहित्य का लेखन सृजन किया है स्वामी जी ने देश देशांतर में घूमकर वैदिक धर्म का प्रचार किया |
स्वामी जी का जन्म सन 1927 में हरियाणा प्रांत के रोहतक जिले के फरमाना ग्राम में हुआ था | स्वामी जी की माता का नाम दाखां और पिताजी का नाम मोलड था| जो मुस्लिम धोबी समुदाय से आते थे | स्वामी जी के माता पिता दोनों ही अनपढ़ थे। घर पर कृषि और वस्त्र धोने का कार्य होता था उनकी कोई भूमि नहीं थी दूसरों की भूमि में ही कृषि कार्य करते थे| अनपढ़ होने से स्वामी जी के माता-पिता को कुरान में क्या लिखा है ?यह कुछ भी विदित नहीं था… वह केवल स्वामी जी( बालक मुंशी) को इतना ही कहते थे अल्लाह का नाम लेना चाहिए अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है | उन दिनों देश में अंग्रेजी राज था स्वामी जी को विद्या अध्ययन का अवसर नहीं मिला | स्वामी जी का विद्या अध्ययन का मुख्य काल पशुओं को चराने खेती करने मैं व्यतीत हो गया लेकिन स्वामी जी को शरीर बल बढ़ाना प्रिय था और धूम्रपान आदि बुराइयों से नफरत थी| 19 वर्ष की अवस्था में स्वामी जी ने कुछ लोगों से पूछ पूछ कर हिंदी भाषा के अक्षरों को सीखा और जमीन में लिख लिख कर लिखने का अभ्यास किया , शब्दों को मिलाकर पढ़ने का अभ्यास किया लेकिन हर महापुरुष के जीवन में एक क्रांतिकारी वैचारिक आध्यात्मिक परिवर्तन होता है… स्वामी जी उससे कैसे अछूते रहते… जो मानव को महामानव साधारण को असाधारण बना देता है… ऐसे अलौकिक परिवर्तनों का निमित्त कुछ घटनाएं बनती हैं|
वर्ष 1947 में भारत का विभाजन होता है उस समय चारों ओर हिंदू और मुसलमानों के झगड़े भयंकर मारकाट चल रही होती है… इसी घटना में स्वामी जी के मन में वैराग्य के भाव जागृत कर दिए| स्वामी जी पूरा दिन सोचते रहते थे पता नहीं कब मुझे और मेरे सारे परिवार को खत्म कर दिया जाएगा | मारकाट के उस दौर में मृत्यु से बचने के लिए स्वामी जी के गांव के सभी इस्लाम मत के मानने वालों परिवारों ने हिंदू मत स्वीकार कर लिया जिसमें स्वामी जी का भी परिवार शामिल था |
विभाजन के एक-दो वर्ष पश्चात सब कुछ सामान्य हो गया लेकिन स्वामी जी के आत्मा में वैराग्य का स्थाई भाव जागृत हो गया… स्वामी जी के मन में यह प्रश्न रह रह कर आ रहे थे यह जीवन क्या है और मृत्यु क्या है ?क्या यह शरीर सदा रहेगा ?अथवा इसका विनाश होगा इस शरीर को सदा बनाए रखने के लिए संसार में कोई उपाय है या नहीं क्या मैं सदा जीवित रहना चाहता हूं मैं मरना चाहता हूं यह भूमि क्या है ?लोग क्या है? किसने ने बनाया है ।यह सब अनंत काल तक जैसे की तैसी बनेंगे रहेगे या नही आदि अनेक शंकाएँ विचार रह रहकर उनके मन में उठते रहते थे | अब स्वामी जी का मन खेती व पशुपालन में नहीं लगता.. उनके मन में ईश्वर, आत्मा ,प्रकृति संबंधी उधेड़बुन चलती रहती…। घर परिवार कुटुंब गांव वालों ने उन्हें पागल घोषित कर दिया | स्वामी जी को प्रथम स्तर का यह बोध हो गया था कि इस संपूर्ण संसार को बनाने चलाने और बनाने वाला परमात्मा है उसी ने यह शरीर आदि वस्तुएं बनाई है यह उसी की है, किसी की नहीं है | विवेक वैराग्य प्राप्ति के लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात स्वामी जी को स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ उपलब्ध हुआ उनकी रही सही शंकाओं का भी समाधान हो गया | स्वामी जी का संपर्क सुखदेव शास्त्री ग्राम आसन जिला सोनीपत निवासी से हुआ यह स्वामी जी के गांव फरमाना में अध्यापक थे उन्होंने स्वामी जी का पूर्व नाम मुंशी को हटाकर मनु देव रख दिया | उन्होंने स्वामी जी को कुछ संस्कृत भाषा पढ़ाई अष्टाध्यायी के कुछ सूत्र भी स्मरण कराएं आगे विधिवत विद्या अध्ययन हेतु आर्य गुरुकुल झज्जर भेजने में शास्त्री जी ने ही स्वामी जी की सहायता की( स्वामी जी उनका बहुत उपकार मानते हैं) | गुरुकुल झज्जर में स्वामी ओमानंद सरस्वती महाराज की कृपा से ब्रह्मचारी मनु देव ने व्याकरण आचार्य दर्शन आचार्य वेद वाचस्पति आदि उपाधि प्राप्त की यहीं पर स्वामी जी ने स्वामी ब्रह्म मुनि जी से सांख्य दर्शन, श्री आचार्य सुदर्शन देव जी से अनेक दर्शन तथा व्याकरण का बहुत सा भाग पढा श्री राजवीर जी श्री आचार्य महावीर जी श्री वेदव्रत जी शास्त्री जी इन सभी महानुभावों से भी विद्या अध्ययन में बहुत सहायता मिली इसी के साथ ही पंडित युधिष्ठिर मीमासकं से मीमांसा दर्शन पढ़ा |22 वर्ष की आयु में स्वामी जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य पालन का व्रत लिया और ग्रह को त्याग दिया ब्रह्मचारी मनु देव पौने 12 वर्ष गुरुकुल झज्जर में पढ़े तथा पढ़ाया | गुरुकुल झज्जर के पश्चात स्वामी जी का आगे का अध्ययन दयानंद मठ रोहतक में हुआ | वहां सुरेंद्रानंद जी महाराज और स्वामी सोमानंद जी महाराज ने स्वामी जी के विद्या धर्म की प्रवृद्धि में बहुत सहायता की | इसके बाद स्वामी जी अध्ययन के साथ-साथ वेद प्रचार में कूद पड़े |
विधिवत वैदिक शिक्षा अध्ययन के पश्चात स्वामी जी ने गुरुकुल सिंहपुरा सुंदरपुर जिला रोहतक में 13 वर्ष पर्यंत निवास किया | उसी गुरुकुल में रहते हुए स्वामी ब्रह्म मुनि परिव्राजक जी ने स्वामी जी को मंगलवार 7 अप्रैल 1970 में संन्यास की दीक्षा दी | अब ब्रह्मचारी मनु देव स्वामी सत्यपति बन गए | संन्यास दीक्षा से पूर्व स्वामी जी जूते ना पहनना खाट पर ना बैठना दिन में ना सोना इत्यादि ब्रह्मचर्य संबंधित नियमों का श्रद्धा पूर्वक पालन करते रहे |
गुरुकुल सिंहपुरा रोहतक को आर्ष विद्या के प्रचार-प्रसार का केंद्र बनाते हुए वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में अनेक वर्षों तक दर्जनों योग प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए सैकड़ों जिज्ञासु को दर्शन उपनिषदों का अध्यापन भी कराया | आर्य साहित्य प्रचार ट्रस्ट के प्रधान दीपचंद आर्य जी के साथ मिलकर स्वामी जी ने वेद धर्म धर्म व संस्कृति की बहुत सेवा की | 61 वर्ष की आयु में 10 अप्रैल 1986 को स्वामी जी ने दर्शन योग महाविद्यालय आर्यवन रोजड जिला साबरकांठा ,गुजरात की स्थापना की |जहां वैराग्य की भावना रखने वाले युवकों आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतधारियों को छह दर्शनों वेद वेदांग वैदिक उपनिषदों का अध्यापन और वैदिक योग का प्रशिक्षण दिया जाता है | स्वामी जी स्वीकार करते थे आर्य समाज और आर्य समाज के अनेक विद्वानों ऋषि मुनियों के ग्रंथों से यदि उन्हें सहायता नहीं मिली होती तो उनकी जो उन्नति हुई है वह ना हो पाती… निराकार सर्वशक्तिमान दयालु ईश्वर के बाद सर्वाधिक सहायता मुझे आर्य समाज से ही मिली | स्वामी जी की आयु लगभग 92 वर्ष से अधिक होने पर भी प्रायः अस्वस्थ रहते थे.. लेकिन ईश्वर द्वारा प्रदत ज्ञान व बल से 92 वर्ष की आयु में भी स्वामी जी समय-समय पर दर्शन योग महाविद्यालय गुजरात में अध्ययनरत ब्रह्मचारीरयों, वानप्रस्थीयो का यथा उचित अवसर पर मार्गदर्शन करते थे व महाविद्यालय में योग प्रशिक्षण शिविरों के प्रतिभागियों का आध्यात्मिक अलौकिक विषय को लेकर योग के साधनों व बाधाओं के संबंध में उनकी शंकाओं का समाधान करते थे …ईश्वर साक्षात्कार ईश्वर के दिए ज्ञान आनंद से ही वे ऐसा कर पा रहे हैं अपने ज्ञान से , ईश्वर साक्षात्कार से होने वाले अलौकिक ज्ञान से उनका मार्गदर्शन करते हैं |
मैं आर्य समाज का एक छोटा सा कार्यकर्ता हूं ऋषि दयानंद के बाद यदि मुझे किसी महान आत्मा के द्वारा रचित साहित्य पवित्र व्यक्तित्व चरित्र कृतित्व ने मेरा जीवन निर्माण किया है तो वह स्वामी सत्यपति महाराज है… सर्वशक्तिमान परम पिता परमेश्वर से विनती करता हूं हे !दयामय स्वामी सत्यपति जैसे योगियों को इस भारत भूमि पर भेजते रहना… ताकि इस भूमि पर पतंजलि का योग जीवित रहे…. आज योग के नाम पर जो बखेड़ा जो गोरखधंधा चल रहा है वह और न फले फूले… योग विद्या से पवित्र आत्मा के मुक्ति के आनंद को पा सकें , वेद विद्या का प्रचार हो सके ज्ञान के सूर्य का भारत भूमि पर सदा उदय रहे |
आर्य सागर खारी ✍️✍️✍️