प्रमोद भार्गव
तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा को पैसे के बदले प्रश्न पूछने के मामले में अनैतिक और अशोभनीय आचरण के लिए सत्रहवीं लोकसभा की सदस्यता से निष्काषित कर दिया गया।संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने मोइत्रा के निष्कासन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसे ध्वनिमत से मंजूरी दे दी गई।निष्कासन की सिफारिश संसद की आचार समिति ने जांच के बाद की थी।बीते कुछ समय से इस बात पर बहस हो रही थी कि मोइत्रा पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई है और इस आधार पर उनकी सदस्यता को रद्द किया जा सकता है अथवा नहीं?दरअसल धन लेकर सवाल पूछने के आरोप भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने मोइत्रा पर लगाते हुए, संसद में कहा था कि उन्होंने भारतीय उद्योगपति गौतम अडानी और उनकी कंपनियों को कठघरे में खड़ा करने के नजरिए से संसद में निरंतर 40 से ज्यादा प्रश्न पूछे,किंतु इसके बदले मोइत्रा ने घूस और कीमती उपहार लिए।यही नहीं उन्होंने लोकसभा पोर्टल के लॉग इन आईडी और पासवर्ड भी दुबई में रहने वाले भारतीय कारोबारी दर्शन हीरानंदानी को साझा किए।इस तथ्य को स्वयं मोइत्रा ने भी स्वीकारा और आचार समिति की जांच में ये तथ्य प्रमाणित भी हुए हैं।इन साक्ष्यों को पुख्ता सबूत मानते हुए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने इसी प्रकृति के पुराने मामलों में दिए दंडों की परिपाटी का अनुकरण करते हुए निष्कासन कर दिया।इस परिप्रेक्ष्य में बिरला ने विपक्ष द्वारा मोइत्रा को सदन में अपना पक्ष रखने की मांग की भी अनुमति नहीं दी।मोइत्रा ने इस निष्कासन की तुलना ‘कंगारू न्यायालय’से करते हुए,इस सजा को सत्तारूढ़ भाजपा की मनमानी बताया।
सांसदों के असंसदीय आचरण संसद और सविधान की संप्रभुता को कैसे खिलवाड़ कर रहे हैं, इनके कारनामे पहले भी देखने में आते रहे हैं। नोट के बदले वोट देने से लेकर संसद में पैसे लेकर सवाल पूछने के स्टिंग ऑपरेशन भी हुए हैं। 1991 के आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर आई थी।इसके साथ कई क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कांग्रेस ने पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में सरकार बना ली थी।जुलाई 1993 में इस जोड़तोड़ की सरकार के विरुद्ध मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सदन में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, लेकिन यह प्रस्ताव आखिर में 14 मतों के अंतर से खारिज हो गया।इसके बाद 1996 में सीबीआई को एक शिकायत मिली ,जिसमें आरोप लगाया गया था कि राव की सरकार को जीवनदान देने के बदले में झारखंड मुक्ति मोर्चा के कुछ सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह गुट को रिश्वत दी गई थी।इस मामले में झामुमो प्रमुख शिवू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर नोट लेकर वोट देने का आरोप लगा था।इन सांसदों के बैंक खातों में मिली धनराशि से भी यह पुष्टि हो गई थी कि नोट के बदले वोट देने की कालावधि में ही यह राशि जमा हुई थी।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की नैतिक शुचिता पर आंच 22 जुलाई 2008 को तब आई थी,जब उसने लोकसभा में विश्वास मत हासिल किया था। यह स्थिति अमेरिका के साथ गैर-सैन्य परमाणु सहयोग समझौते के विरोध में वामपंथी दलों द्वारा मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापिसी के कारण निर्मित हुई थी। वामदलों के अलग हो जाने के बावजूद सरकार का वजूद कायम रहा, क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर नोट के बदले सांसदों के वोट खरीदे थे। इस मामले में संजीव सक्सेना और सुहैल हिन्दुस्तानी को हिरासत में लिया गया था।इनकी गिरफ्तारी के बाद आए बयानों से जाहिर हुआ था कि सरकार बचाने के लिए वोटों को खरीदने का इशारा शीर्ष नेतृत्व की ओर से हुआ था। क्योंकि सुहैल ने समाजवादी पार्टी के मौजूदा राज्यसभा के सांसद अमरसिंह के साथ सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल का भी नाम लिया था।वोट के बदले इस नोट कांड में अमर सिंह के खिलाफ चार्जशीट भी दाखिल हुई थी। यही नहीं इस मामले में अमर सिंह और सुधीर कुलकर्णी को प्रमुख षड्यंत्रकारी आरोपित किया गया था। इस मामले में इन लोगों ने संजीव सक्सेना और भाजपा कार्यकर्ता सुहैल हिन्दुस्तानी के साथ 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत के दौरान भाजपा सांसद अशोक अर्गगल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा को वोट के बदले घूस दी थी। जिसका लोकसभा में इन सांसदों ने नोटों की गड्डियां लहराकर पर्दाफास किया था। संसदीय परम्परा और नैतिकता की दुहाई देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए यह षड्यंत्र अमर सिंह ने रचा था।मनमोहन सिंह पर कठपुतली प्रधानमंत्री, अमेरिका का पिट्टू, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हित साधक के आरोप भले ही लगते रहे हों, किंतु उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर अंगुली कभी नहीं उठी। पर 22 जुलाई 2008 को नेपथ्य में रहकर जिस तरह से उन्होंने राजनीति के अग्रिम मोर्चे पर शिखण्डी और बृहन्नलाओं को खड़ा करके विश्वास मत पर विजय हासिल की उससे कांग्रेस की सत्ता में बने रहने की ऐसी विवशता सामने आई थी, जिसने संविधान में स्थापित पवित्रता, मर्यादा और गरिमा की सभी चूलें हिलाकर रख दी थीं।
हमारे निर्वाचित सांसदों में से अनेक ने घूस के लालच में नैतिकता की सभी सीमाएं लांघने का काम स्टिंग ऑपरेशन के जरिए की गई बातचीत में भी किया है। इन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा की भी परवाह नहीं की थी ? 50 हजार जैसी छोटी रिश्वत के लिए भी वे फर्जी विदेशी तेल कंपनी को बिना कोई सोच-विचार किए, भारत-भूमि पर उतारने के लिए तैयार हो गए थे। बिना यह शंका किए कि इस तथाकथित कंपनी का स्वदेशी कंपनियों पर क्या असर पड़ेगा ? अलबत्ता, रोड़ा दूर करने की दृष्टि से पेट्रोलियम मंत्रालय को सिफारिशी पत्र भी लिख दिए थे। लालच और लापरवाही की यह बैखौफ स्थिति एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए सामने आई थी। कई प्रमुख दलों के 11 सांसद रिश्वत का लेन-देन करते हुए गोपनीय कैमरे की आंख में कैद हो गए थे। यह स्टिंग ऑपरेशन वेबसाइट कोबरा पोस्ट के प्रमुख अनिरुद्ध बहल ने किया था। 6 सांसदों ने तो पैसे लेकर चिट्ठी भी लिख दी थीं।राष्ट्र के प्रतीक चिन्ह वाले शीर्षपत्रों पर लिखी ये चिट्ठियां समाचार चैनलों पर दिखाई भी गईं थीं। चिट्ठी लिखने की कीमत सांसदों ने महज 50 से 75 हजार रुपए तक ली थी। इस दौरान किसी भी सांसद ने कंपनी की सच्चाई तक जानने की कोशिश तक नहीं की थी। बल्कि इनमें से कई सांसदों ने तो कंपनी की लाॅबिंग के लिए संविधान के पवित्र माने जाने वाले मंदिर, संसद में हुंकार लगाने तक की हामी भर दी थी।इन सांसदों में कांग्रेस,भाजपा,बसपा और अन्नाद्रमुक के सांसद शामिल थे। साफ है,भृष्टाचार की कोई दलीय सीमा नहीं है। कोई वैचारिक विभाजन नहीं है। चोर-चोर मौसेरे भाई हैं।
इसके पहले भी कोबरा पोस्ट ने ही इसी प्रकृति के एक और स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया था। जिसमें 11 सांसदों पर पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने का आरोप लगा था। तब इन सभी सांसदों को संसद ने बर्खास्त कर दिया था। इस ऑपरेशन की गिरफ्त में भाजपा के दिलीप सिंह जू देव, भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण, जया जेटली और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी भ्रष्टाचार व अनैतिकता बरतने को तैयार होते हुए कैमरे में कैद कर लिए गए थे। जब इन स्टिंग ऑपरेशन का खुलासा सामाचार चैनलों के पर्दे पर हुआ तो जूदेव छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए। अजीत जोगी को कांग्रेस से निलंबित होना पड़ा था। बंगारु लक्ष्मण से भाजपा ने अध्यक्षी छीन ली थी। जया जेटली को रक्षा सौदों के लिए घूस लेते हुए दिखाया गया था, जो तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीस से जुड़ी थीं। लिहाजा जाॅर्ज को रक्षा मंत्री का पद छोड़ना पड़ा था।
दरअसल जब राजनीति का मकसद ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज बने रहने और जायज-नाजायज तरीकों से धन कमाने का हो जाए, तब सवाल संसद में प्रश्न पूछने का हो अथवा विश्वास मत के दौरान मत हासिल करने का, राष्ट्र और जनहित गौण हो जाते हैं। प्रजातंत्र के मंदिरों में जो परिदृश्य दिखाई दे रहे हैं, उनसे तो यही जाहिर होता है कि राष्ट्रीय हित अनैतिक आचरण और बाजारवाद की महिमा बढ़ाने में समर्पित किए जा रहे हैं। पीवी नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार से लेकर विश्वास मत के जरिए मनमोहन सरकार को बचाए जाने तक सांसदों का मोलभाव होता है। महुआ मोइत्रा द्वारा पैसे लेकर सवाल पूछने के इस ताजा मामले ने एक बार फिर तय किया है कि संसद में संविधान की शपथ लेने के बाद भी सांसद संविधान और लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
उस समय सर्वोच्य न्यायालय ने कथित आरोपी सांसदों को संविधान के अनुच्छेद 105 में दर्ज प्रावधान के अंतर्गत छूट दी थी।इसमें प्रावधान है कि किसी सांसद द्वारा संसद के भीतर की गई कायर्वाही को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। फिर चाहे वह कोई टिप्प्णी हो ,दिया गया वोट हो या फिर संबंधों से संबंधित हो।ऐसे प्रावधान संविधान निर्माताओं ने शायद इसलिए रखे होगें, जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को पूरी निर्भीकता से अंजाम दे सकें। उन्हें अपनी अवाम पर इतना भरोसा था कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि नैतिक दृष्टि से इतना मजबूत तो होगा ही कि वह रिश्वत लेकर न तो अपने मत का प्रयोग करेगा और न ही सवाल पूछेगा ? लेकिन यह देश और जनता का दुर्भाग्य ही है कि जब बच निकलने के ये कानूनी रास्ते सार्वजनिक होकर प्रचलन में आ गए तो सांसद अपने नैतिक और संवैधानिक दायित्व से भी विचलित होने लग गए।किंतु अब ‘सीता सोरेन बनाम भारतीय संघ’ मामले में सुनवाई करते हुए डीवाई चंद्रचूड़ की पांच सदस्यीय पीठ ने इस लेनदेन को गंभीरता से लिया है।पीठ ने कहा है कि सदन में वोट के लिए रिश्वत में शामिल सांसदों और विधायकों के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया से बचने की छूट पर पुनर्विचार के लिए सात जजों की पीठ बनाई जाएगी।यह पीठ तय करेगी कि सांसद या विधायक सदन में मतदान के लिए घूस लेता है तो उस पर अदालत में मुकदमा चलेगा अथवा नहीं?यह फैसला 4 अक्टूबर 2023 को सीता सोरेन की याचिका पर सुनाया गया है।
प्रमोद भार्गव
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