1355 विक्रमी में दिल्ली से 15 मील उत्तर की ओर मुगलों के 40000 सैनिक एकत्र हो गए थे । तब हरियाणा के 37000 पंचायती योद्धाओं ने मुगलों को रोकने के लिए कमर कस ली और लगातार 3 घंटे लोहा लेकर ‘मारो काटो शत्रु को मत जाने दो’ की वीर ध्वनि से जंगल को गुंजा कर अदम्य साहस और शौर्य का परिचय देते हुए अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन किया। उस समय मुगलों को काट-काट कर लाशों का ढेर लगा दिया गया था। मुगल दल पर उस दिन बड़ी कड़ी मार पड़ी थी।
इसी वर्ष पंचायती वीरों ने 38000 की संख्या में एकत्र होकर मुगलों के दूसरे 60000 के सैन्य दल को पानीपत के पास रोककर अपनी वीरता और देशभक्ति का परिचय दिया था। उनकी वीरता के सामने मुगल सेना टिक नहीं पाई थी। उस समय अपने इन वीर योद्धाओं की सहायता के लिए अड़ोस पड़ोस के गांव के 16 से 18 वर्ष की आयु के लगभग 11000 किशोर नवयुवक भी साथ आकर मिल गए थे। उनके आते ही हमारे सैनिकों में और भी अधिक उत्साह का संचार हो गया था।
जब हमारे वीर सैनिक योद्धाओं ने शत्रु दल की 60000 की फौज पर आक्रमण किया तो 40 हजार मुगलों को काटकर फेंक दिया था। लाशों की कोई गिनती नहीं रही थी । उस समय शत्रु मैदान छोड़कर भाग गया था और इतना अधिक भयभीत हो गया था कि दोबारा हमला करने का साहस नहीं कर पाया था। इस युद्ध में हमारे 12000 योद्धा काम आए थे।
पंचायती इतिहास लेखन यूनुस लिखता है कि यदि पंचायती सेना मुगलों को देश से न खदेड़ देती तो मुगल दिल्ली को नष्ट कर डालते। तवारीख फरिश्ता कहती है कि खिलजी सेना मुगलों को देश से नहीं निकाल सकती थी। पंचायती संगठन अत्यधिक दृढ़ है। पंचायती वीरों में कोई देशद्रोही नहीं है । बादशाही तथा राजाओं की सेना में देशद्रोही मिलते हैं। पंचायती संगठन सेना इस पाप से मुक्त है । (यूनुस तथा रामदेव भाट, पंचायत के लेखक से यह जानकारी मिलती है)
वीरांगनाऐं भी पीछे नहीं थीं
जिस प्रकार हमारे पंचायती योद्धा उस समय विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कर रहे थे, उसी प्रकार देश की नारी शक्ति ने भी अपने आपको देश सेवा के लिए समर्पित किया। जींद के पास की वीरांगना भागीरथी देवी की उस समय 28 वर्ष की अवस्था थी । उस वीरांगना ने तब 28000 की फौज तैयार की थी। अपने देश की सेवा के लिए जब उनकी यह सेना प्रस्थान करती है तो भागीरथी ने अपनी इस फौज के पांच जत्थे बना दिए थे। एक जत्थे का नेतृत्व दो वीरांगनाओं को दिया गया था । इनमें मोहिनी गुर्जर , लाडकौर राजपूत , बिशनदेई भंगी, सहजो ब्राह्मण, कृपी रोड, निहालदे तगा, सुंदर कुमारी कोली, रंजना सुनार, चंदन कौर बनिया, नाहरकौर कायस्थ के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस वीरांगनाओं की फौज ने मुगलों से युद्ध किया । इसके बारे में देव प्रकाश भाट और जैनुद्दीन मुदर्रिस ने लिखा है कि इन वीर देवियों के जत्थों को देखकर मल्लों का उत्साह बढ़ गया। मारू बाजे पर चोट लग गई। देवियां युद्ध भी करती और सैनिकों का भोजन भी बनाती । युद्ध सामग्री पहुंचाती। घायलों की मरहम पट्टी करती हैं और वीरों का उत्साह बढ़ाती हैं। मल्ल अपनी बहनों के साहस को देखकर दुगनी वीरता से युद्ध करते थे। अकेली रणचंडी ने हजारों मुगल सैनिकों के सिर काट डाले। यह अंतिम मुगल युद्ध सरहिंद के मैदान में हुआ था। इन देवियों की सेना ने शत्रु की लाशों के ढेर लगा दिए थे ।
भागीरथी देवी ने मुगलों के चुगताई वंश के चार बड़े सरदारों के सिर काट कर फेंक दिए थे। मुगलों का मामूर नामी सरदार बड़ा वीर योद्धा था। वह बोला कि भागीरथी देवी क्यों अधिक सेना को लड़ाती है। आज लड़ाई केवल मेरी और तेरी ही हो जानी चाहिए । मामूर के इतना कहते ही भागीरथी देवी ने अपना घोड़ा उसके सामने पहुंचाकर युद्ध आरंभ कर दिया। दोनों की भयंकर टक्कर हुई। पास में लड़ने वाले योद्धा खड़े होकर दोनों का युद्ध देखने लगे । जब एक हथियार उठाता और आक्रमण करता तो योद्धा समझते कि दूसरा मर गया, परंतु वीर तुरंत वार को बचाकर इस पर आक्रमण कर देता । ऐसे ढाई घंटे तक लड़ाई होती रही । अंत में मामूर के हाथ ढीले पड़ गए। भागीरथी ने बड़े जोर से हुंकार भरके अपने घोड़े को मामूर के घोड़े के बराबर करके उसके घोड़े को दबा दिया और बड़े कौशल से भारी भाले को दोनों हाथों से संभाल कर और मुंह में घोड़े की लगाम लेकर इतनी जोर से मामूर की छाती में घुसेड़ दिया कि भाला छाती से पार हो गया। भागीरथी ने तुरंत तलवार से मामूर का सिर काट डाला। मुगलों के पांव उखड़ गए। मैदान छोड़ भागे। देवियों ने 25 मील तक मुगलों की सेना की लाशें भूमि पर बिछा दी।’