आज का विचार
स पर्यगाच्छुमकायमव्रणमस्नाविरम शुद्धमपापविद्धम । कविर्मनीषी परिभु: स्वयंभूर्याथातभ्यतोS र्थानव्यदधाच्छा श्वतीभ्य: समाभ्य:।। यजु0 ४०/८।।
अर्थात—- हे मनुष्यो ! वह परमात्मा सारे संसार में सब ओर से व्याप्त है, महान वीर्यशाली सर्वशक्तिमान, स्थूल शूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, अखण्ड, अद्वित्तीय, फोड़ा फुंसी और नस नाड़ी आदि के बन्धन से रहित है। अविद्या आदि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पापयुक्त , पापकारी और पाप में प्रीति करने वाला कभी नहीं होता क्योंकीउपरोक्त सभी बातें शरीर के साथ स्वत: सम्बन्धित रहती हैं।जो काव्यरूप सर्वसत्यविद्यामय वेद ज्ञान का देने वाला सर्वज्ञ , सब प्राणियों के मनों की वृतियों को जानने वाला, सर्वव्यापक , सर्वान्तर्यामी, जो स्वयं सृष्टि रचन – पालन और संहाररूप कार्यों को करने में समर्थ ,किसी की सहायता की उपेक्षा न रखने वाला , सनातन अनादिरूप , प्रजाओं के लिए , प्राणियों के जैसे जिसके कर्म होते हैं वैसे ही भोग और योनि रूप फ़लोंको विशेष करके धारण कराता है। उसको तुम इस प्रकार ठीक ठीक जानो, मानो और धारण करो।।
सहस्त्र शीर्षा पुरुष: सहत्राक्ष: सहत्रपात ।स भूमिं सर्वत: स्प्रीत्वातयतपत्तिष्ठद्दाशांगुलम।।यजु0 ३१/१।।
अर्थात—- हे प्रजाजनों ! जो सब
प्राणियों हजारों शिर , हजारों नेत्र और असंख्यों पाद जिसके बीच में हैं , ऐसा वह सर्वत्र परिपूर्ण जगदीश्वर है। सम्पूर्ण भूगोलमात्र में व्याप्त होके , पाँच अग्नि -वायु आदि स्थूल महाभूत और पाँच सूक्ष्मभूत रूप, रस – गन्ध आदि ये दस जिसके अवयव हैं। इस समस्त जगत को उलांघकर सबसे पृथकभी है।