अंग्रेजी सत्ता ध्वस्त करने वाली जिद का नाम था टंट्या भील
लक्ष्मण सिंह मरकाम
भारतीय इतिहास में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक टंट्या भील की जांबाजी का अमिट अध्याय है। उन्होंने भारत की माटी को अंग्रेजों से मुक्त कराने में अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंग्रेजी सत्ता को ध्वस्त करने वाली जिद का नाम था टंट्या भील यह मात्र चनवासियों की आवाज नहीं थे, वरन् अंतिम व्यक्तियों के हितों की लड़ाई लड़े। वनवासियों ने अंग्रेजी सत्ता को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी क्रूरता भरी हुकूमत ने ही टट्या के मन में संग्राम के बीज बोये।
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में टंट्या भील का योगदान आम जनमानस व इतिहास के पन्नों में उन्हें अमर रखेगी। अंग्रेजों ने उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 4 दिसम्बर, 1889 को फांसी पर लटका दिया। जब अंग्रेज उनको बंदी बनाकर जबलपुर अदालत में पेश करने ले जा रहे थे, उस समय उनकी एक झलक पाने की कायल लोगों का जनसमूह सड़कों पर उमड़ा। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस दृश्य से लगाया जा सकता है। अंग्रेजों की आंखों में वह कांटे की तरह चुभते थे। टंट्या की वीरता व साहस से तात्या टोपे बहुत प्रभावित थे।
मध्य प्रदेश में निमाड़ के जंगलों में जन्मे टया को गुराश युद्ध में महारथ हासिल था। गुलिहा युद्ध उन्हें क्रांतिकारी तात्या टोपे ने सिखाया था। यहीं, उन्होंने इसके अलावा अपने पिता से शादी, सौर-कमान चलाने का प्रशिक्षण ले रखा था। उनके पिता का नाम भादु सिंह था पिता ने युवावस्था में ही उनका विवाह कागजवाई से कर दिया। पिता की मृत्यु के बाद टंट्स पर पूरी जिम्मेदारी आ गई थी। मां की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी या चार सालों से अपनी जमीन “काहीं कर पाये थे, जिसके कारण मालगुजार ने उन्हें बेदखलका दिया था। इस मामले को लेकर वह अपने पिता के मित्र शिवा पाटिल के पास गये। जमीन को शिवा व भाऊ सिंह दोनों मिलकर खरीदें थे। लेकिन शिवा ने जमीन पर अधिकार देने से साफ मनाकर दिया। चारों तरफ से निराशाओं से घिरे टंट्या को अंग्रेजी न्यायालय से आस जगी। उन्होंने अपनी बैलगाड़ी व घर बेचकर नकदी जुटाया और शिवा के विरुद्ध मुकदमा लिखवाई, लेकिन अंग्रेजों की न्यायव्यवस्था से भी उन्हें निराशा हालगी सायों के आधार पर शिवा विजयी हुआ। न्याय पाने के लिए परेशान टदया के पास संग्राम के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था। एक दिन वह खेत पर गये और शिवा के सभी आदमियों पर हमला बोल दिया और अपनी भूमि की उनके कब्जे से मुक्त कराया। उनके जीवन में न्याय के लिए हथियार उठाने की यह पहली घटना थी। घटना के बाद एंट्या को पुलिस से गई और एक साल की कठोर करावास की सजा मिल में कैदियों पर उन्होंने देखो भी जल रही आग और धपकी सजा काटने के बाद एक हो रही अमानवीय घटनाओं ने उन्हें हथियार उठाने पर विवश कर दिया। अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने वनवासियों, पीड़ितों को एकजुट किया और बिगुल फूंक दिया। टंट्या वनवासियों व पीड़ितों का मसीहा बनकर उभरे। मालगुजारों साहूकारों के विरुद्ध छिड़ चुके टंट्या के आंदोलन की लपटें अंग्रेजी सत्ता को भी झुलसाने को आतुर होने लगी थी, लेकिन उन्हें षड्यंत्रपूर्वक गिरफ्तार कर 20 नवम्बर, 1878 को खड़वा जेल में डाल दिया। गया। 24 नवम्बर, 1878 की रात में दीवार लांघकर फरार हो गये। यह गांव-गांव घूमते थे। पीड़ितों को खोजते थे और उनकी सहायता करने की कोशिश करते थे। ऐसा करते-करते वह ‘या मामा’ के रूप लोकप्रिय हुए। टंट्या की बहादुरी का अंदाजा इस बात से भी लगाई जा सकती है कि उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज सरकार ने विशेष दस्ता ‘टंट्या पुलिस’ गठित की थी। इंग्लैंड से विशेष अफसर बुलाया गया था। 1880 में टंट्या ने अंग्रेजों के 24 ठिकानों पर हमला बोला। ठिकानों से प्राप्त धनों को गरीबी में बांट दिये। उसी समय अंग्रेज सरकार की रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर अकाल पीड़ितों में बंटवाया। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों ने पोस्टर चिपकवाए। अंग्रेजी पुलिस ने चारों तरफसे घेराबंदी की। पुलिस ने आंदोलन को खत्म करने के लिए उनके सहयोगी विजानिया को पकड़कर फांसी दे दी, जिससे उनकी ताकत पट गयी। मुसीबत की घड़ी में टंट्या ने बनेर के गणपत सिंह से संपर्क साधा गणपत उनकी मुहबोली बहन का पति था। 11 अगस्त, 1889 को रक्षाबंधन के दिन गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने के लिए उनको बुलावा भेजा। गणपत अंग्रेजों के षड्यंत्र का हिस्सा था। उसके घर में ओज पुलिस पहले से ही छिपी थी। निहत्या के आते ही पुलिस ने दबोच लिया। उन्हें ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इन्डिया एजेन्सी जेल (सीआईए) में रखा गया। इसके बाद उन्हें खंडवा से जबलपुर भेजा गया। यहीं उनको फांसी की सजा हुई। उनके फांसी का प्रमाण नहीं मिलता है। जनश्रुति के अनुसार, खंडवा रेलमार्ग पर काला पानी रेलवे स्टेशन के पास उनका गोली लगा शव पड़ा मिला था। यहाँ ‘वीरपुरुष’ की समाधि बनी हुई है। अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न क्षेत्रों में जनजाति वीरों अपनी महत्पूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजों के आगमन से धनवासियों को अपनी संस्कृति पर खतरा महसूस हो गया था। पेट भरने के साथ ही अपने जंगल की बचाए रखने के लिए तो उन्होंने लड़ा ही, वहीं उनकी यह लड़ाई बनवासी संस्कृति को विदेशी प्रभाव से बचाने की चिंता भी थी अंग्रेजों के आने पर वनवासियों की संस्कृति व जीवन पर संकट मंडराता देख हो मौजवान या ने यह संग्राम खेड़ा था। अंग्रेजी सत्ता को ललकारा तो लोक देवता की तरह आराध्य बन गया। पूर्वाग्रह से गसित इतिहासकारों ने टंट्या काका पक्ष है, लेकिन यह भारतीय अस्मिता को अंग्रेजों से बचाने में रत प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका एक मात्र संकल्प था- भारत बाद करावास से निकलकर पोखा में जाकर मजदूरी करके जीवन यापन में विदेशी सत्ता का पांव उखाड़ना।
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