ज्योतिष में धर्म प्रतिष्ठित है।*
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धर्म में ज्योतिष समाहित है। धार्मिक ज्योतिषी होता है। ज्योतिषी धार्मिक होता है। जहाँ ज्योतिष नहीं, वहाँ धर्म नहीं। जहाँ धर्म नहीं, वहाँ ज्योतिष नहीं। ज्योतिष सिद्धान्त मात्र नहीं है। अपितु वह फलीभूत है। फलित बिना सिद्धान्त व्यर्थ है। जैसे वृक्ष फल के बिना। आम्रादि वृक्षों में यदि मधुर स्वादिष्ट फल न लगे तो इन का इतना महत्व ही न रहे। जिस सिद्धान्त/ ज्ञान से मनुष्य का कल्याण न हो, वह महत्वहीन है। ऐसे ही सिद्धान्त ज्योतिष के साथ फलितशास्त्र अभिन्न रूप से है। सिद्धान्त है तो फलित है। फलित है तो सिद्धान्त है। इन में से जो एक को स्वीकार करे, दूसरे को नहीं तो वह बालक है, विज्ञ नहीं। नारद जी कहते हैं …
“वेदस्य निर्मलं चक्षु ज्योतिषशास्त्रमकल्मषम्
विनैतदखिलं श्रीतमा कर्म न सिद्ध्यति।
तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा,
अतएव द्विजैः एतद् अध्येतव्यं प्रयत्नतः इति ॥”
अकल्मष हैं, यह ज्योतिषशास्त्र यह ज्ञान का निर्मल नेत्र है। बिना इसके सम्पूर्ण श्रौत स्मार्त कर्म की सिद्धि नहीं होती है। इसलिये विश्वकल्याण हेतु ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम इस को रचा। अतः ब्राहाणों को प्रयत्नपूर्वक इसका अध्ययन करना चाहिये ।
✍️ शेखर शुल्ब
┉❀꧁❍ वयं राष्ट्रे जागृयाम ❍꧂❀┉
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