प्रमोद भार्गव
2024 लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल माने जा रहें पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल, मसलन वास्तविक अनुमान कहीं बदलाव तो कहीं बराबर की टक्कर जता रहे हैं। वास्तविक नतीजे तो 03 दिसंबर को आएंगे, उससे पहले सामने आए इन अनुमानों ने मतदाता की नब्ज टटोलने की कोशिश की है। लेकिन इस बार एग्जिट पोलों में जो भिन्नता व दुविधा दिखाई दे रही है, उससे लगता है कि मतदाता की मंशा टटोलने वाली सर्वे एजेंसियों की सर्वेक्षण प्रणालियां वैज्ञानिक नहीं हैं। क्योंकि मध्यप्रदेश से जुड़े जो आठ सर्वे खबरिया चैनलों में प्रसारित हुए हैं, उनमें से सात भाजपा को और एक एबीपी-सी वोटर कांग्रेस को बहुमत दे रहे हैं। भाजपा सत्ता में आती है तो इसका जीत का श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान और चुनाव के ठीक पहले लाई गई ‘लाडली बहना योजना‘ को दिया जाएगा। जिन सात सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया गया था, वे खुद अपनी जीत की उधेड़बुन में लगे रहे। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्वालियर-चंबल अंचल में कोई करिश्मा दिखा पाएंगे, ऐसा मतदाता के रुख से फिलहाल नहीं लग रहा है।
राजस्थान के आठ सर्वे में से पांच भाजपा और तीन कांग्रेस के पक्ष में हैं। छत्तीसगढ़ में आठ में से आठ सर्वे कांग्रेस को फिर से सत्ता में आते दिखा रहे हैं। तेलंगाना में छह सर्वे में से पांच सर्वे कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दे रहे हैं। दूसरे नंबर पर यहां मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति है। भाजपा को पांच से लेकर 13 सीटों पर ही संतोष करना पड़ेगा। साफ है, कर्नाटक के बाद कांग्रेस तेलंगाना में भी सत्तारूढ़ होती दिख रही है। यहां के चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस अधिकांश एक्जिट पोल में कांग्रेस से चुनाव हारती हुई नजर आ रही है। ध्यान रहें, तेलंगाना में कुछ ही महीने पहले कांग्रेस चुनावी संग्राम में उतरी थी। बावजूद वह बढ़त में है तो इसका प्रमुख कारण सत्तारूढ़ दल के प्रति सत्ता विरोधी रुझान है। यहां कांग्रेस को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी लाभ पहुंचाती दिख रही है। भाजपा का तेलंगाना में बुरी तरह से पिछड़ना इस बात का संकेत है कि दक्षिण भारत में न तो राम मंदिर और धारा-370 जैसे मुद्दे काम आए और न ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह का जादू चला।
मिजोरम में राष्ट्रीय पार्टियां आती नहीं दिख रही हैं। यहां त्रिशंकु सरकार बनती दिखाई दे रही है। मिजोरम में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में 14 से 18 सीटों की जीत के साथ एमएनएफ उभरती दिख रही है। उसका सीधा मुकाबला जेडपीएम से है। इस क्षेत्रीय दल को 12 से 16 सीटें मिल सकती हैं। कांग्रेस को 8 से 10 और भाजपा को दो सीटें मिलने के अनुमान लगाए गए हैं। साफ है, एग्जिट पोल करने वाली सर्वे एजेंसियों में इतना झोल और विरोधाभास है कि ये सर्वे भरोसे के नहीं लग रहे हैं। इसीलिए इन सर्वेक्षणों को ‘जितने मुंह, उतनी बातें‘ कहा जा रहा है। वैसे भी ये अनुमान संयोग से ही सटीक बैठते हैं।
ओपीनियन पोल, मसलन जनमत सर्वेक्षण जहां मतदान पूर्व मतदाता की मंशा टटोलने की कोशिश हैं, वहीं एग्जिट पोल, अर्थात सटीक सर्वेक्षण, मतदान पश्चात, मतदाता का निर्णय जानने की कोशिश हैं। ओपीनियन पोल बाईदवे शुल्क चुकाकर प्रायोजित ढ़ंग से कराए जा सकते हैं, इसलिए क्योंकि इनके प्रकाशित व प्रसारित होने के बाद मतदाता के रुख को प्रभावित किया जा सकता है। किंतु एग्जिट पोल मतदान पूरा हो चुकने के बाद, महज वास्तविक परिणाम के पूर्व अनुमान हैं। इसलिए कोई राजनीतिक दल इन्हें अपनी इच्छानुसार कराने में रुचि नहीं लेता। मतदान के बड़े प्रतिशत को अब तक सत्तारूढ़ दल के खिलाफ व्यक्गित असंतुष्टि और व्यापक असंतोष के रूप में देखा जाता था, लेकिन मतदाता में आई बड़ी जागरूकता ने परिदृष्य को बदला है, इसलिए इसे केवल नकारात्मकता की तराजू पर तौलना बड़ी भूल होगी। इसे सकारात्मक दृष्टि से देखने की भी जरूरत है। मध्यप्रदेश में महिलाओं का बढ़ा प्रतिशत भाजपा के पक्ष में दिखाई दे रहा है।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा इस बार चुनाव के दो माह पहले तक मुश्किल में दिखाई दे रही थी। लेकिन अब लाडली बहना उसे वैतरणी पार कराती दिखाई दे रही है। जबकि 2013 में शिवराज अपने बूते 200 विधानसभा सीटों में से 165 सीटें जीतने में सफल हो गए थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ चुनाव की कमान होने के बावजूद कांग्रेस महज 58 सीटों पर सिमटकर रह गई थी। मतदान के बड़े प्रतिशत के बावजूद मत दाता को मौन माना जा रहा है। लेकिन मतदाता मौन कतई नहीं है। मौन होता तो चैनल एग्जिट पोल के लिए कैसे सर्वे कर पाते? हां,उसने खुलकर राज्य सरकार को न तो अच्छा कहा और न ही उसके कामकाज के प्रति मुखरता से नराजी जताई। मतदाता की यह मानसिकता,उसके परिपक्व होने का पर्याय है। वह समझदार हो गया है। अपनी खुशी अथवा कटुता प्रकट करके वह किसी दल विशेष से बुराई मोल लेना नहीं चाहता। इस लिहाज से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व जीवंत माध्यम बनी सोशल साइट्स पर खातेदारों ने दलीय रुचि नहीं दिखाई। हां क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दे उछाल कर आभासी मित्रों की राय जानने की कोशिश में जरूर लगे रहे। मानसिक रूप से परिपक्व हुए मतदाता की यही पहचान है।
पारंपरिक नजरीए से मतदान में बड़ी रूचि को सामान्यतः एंटी इनकमबेंसी का संकेत,मसलन मौजूदा सरकार के विपरीत चली लहर माना जाता है। इसे प्रमाणित करने के लिए 1971, 1977 और 1980 के आम चुनाव में हुए ज्यादा मतदान के उदाहरण दिए जाते है। लेकिन यह धारणा पिछले कुछ चुनावों में बदली है। 2018 में छोड़ 2013, 2008 और 2003 में बड़े मतदान का लाभ सत्तारूढ़ होते हुए भी मध्यप्रदेश में भाजपा को मिलता रहा है। 2010 के चुनाव में बिहार में मतदान प्रतिशत बढ़कर 52 हो गया था, लेकिन नीतीश कुमार की ही वापिसी हुई। जबकि पश्चिम बंगाल में ऐतिहासिक मतदान 84 फीसदी हुआ और मतदाताओं ने 34 साल पुरानी माक्र्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की बुद्धदेव भट्रटाचार्य की सरकार को परास्त कर,ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीत दिलाई थी। गोया,चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक दलों को अब किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं है,मतदाता पारंपरिक जड़ता और प्रचलित समीकरण तोड़ने पर आमदा हैं।
बड़े मत प्रतिशत का सबसे अह्रम, सुखद व सकारात्मक पहलू है कि यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल हमारे देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। निकट भविष्य में इस उम्मीद की पूरी होने की संभावना भी नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक व जतीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कलांतर में राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी।
क्योंकि जब मतदान प्रतिशत 75 से 85 प्रतिशत होने लग जाएगा तो किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत खत्म हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्याबल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाएगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर धु्रवीकरण की राजनीति नगण्य हो जाएगी। यह स्थिति मतदाता को धन व शराब के लालच से मुक्त कर देगी। क्योंकि कोई प्रत्याषी छोटे मतदाता समूहों को तो लालच का चुग्गा डालकर बरगला सकता है, लेकिन संख्यात्मक दृष्टि से बड़े समूहों को लुभाना मुश्किल होगा। जाहिर है, ऐसे हालात भविष्य में निर्मित होते हंै तो भारतीय राजनीति संविधान के उस सिद्धांत का पालन करने को मजबूर होगी, जो समाजिक न्याय और समान अवसर की वकालत करता है। बड़ा मतदान प्रतिशत ही ऐसा प्रमुख कारण हैं, जिसके चलते एग्जिट पोल इकतरफा नहीं रह गए हैं। क्योंकि इसके सर्वे के नमूने का प्रतिशत बहुत कम होता है। गोया, इस आधार पर बड़े मतदाता समूह की मंशा की पड़ताल करना और व्यावहरिक नतीजे पर पहुंचना बहुत कठिन काम है। वैसे भी अब कई सर्वे एजेंसियां क्षेत्रीय पत्रकारों से फोन पर बात करके नतीजों का अनुमान लगाने का तरीका अपना रहे हैं। जो सर्वे की वैज्ञानिक प्रणाली को नकारता है। दरअसल क्षेत्रीय पत्रकार किसी न किसी दल या प्रत्याषी से प्रभावित रहते हैं और उसी प्रभाव के चलते वे अपनी राय व्यक्त कर देते हैं, जो तटस्थ नहीं होती। इसीलिए इस बार एग्जिट पोल के अनुमानों को जितने मुंह, उतनी बातें कहा जा रहा है।
प्रमोद भार्गव
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