भारत में आर्यों को विदेशी बताने वालों ने ही यहां गोरे-काले अथवा आर्य-द्राविड़ का भेद उत्पन्न किया। जिससे यह बात सिद्घ हो सके कि भारत में तो प्राचीन काल से ही गोरे-काले का भेद रहा है और यहां जातीय संघर्ष भी प्राचीन काल से ही रहा है। इसके लिए देवासुर संग्राम को या आर्य दस्यु संघर्ष के अर्थ का अनर्थ करके प्रस्तुत किया गया है।
इस विषय में हमारे भ्रमित करने या संबंधित इतिहास का विकृतीकरण करने का कार्य मैकडानल ने विशेष रूप से किया। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘वैदिक रीडर’ में लिखा-”ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से पता चलता है कि ‘इण्डो आर्यन’ लोग सिंधु पार करके भी आदिवासियों के साथ युद्घ में संलग्न रहे। ऋग्वेद में उनकी इन विजयों का वर्णन है। विजेता के रूप में वे आगे बढ़ रहे थे, यह इस बात से सूचित होता है कि उन्होंने अनेेकत्र नदियों का अपने मार्ग में बाधक रूप में उल्लेख किया। उन्हें उनकी जातिगत तथा धार्मिक एकता का पता था। वे अपनी तुलना में आदिवासियों को यज्ञविहीन, आस्थाहीन, काली चमड़ी वाले व दास रंग वाले और अपने आपको आर्य-गोरे रंग वाले कहते थे।” मैकडानल का यही झूठ आज तक हमारे विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। कुछ समय पश्चात इसी झूठ को आधार बनाकर यदि कोई व्यक्ति यह भी सिद्घ कर दे कि आर्य (गोरे रंग वाले) अंग्रेजों (क्योंकि रंग उनका भी गोरा ही है) के ही पूर्वज थे तो भी कोई अतिश्योक्ति नही होगी। यह भारत है और इसमें सब चलता है-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर। यदि आप अपने आपको ही गाली दें, तो और भी अच्छा ही माना जाता है।
मैकडानल की उक्त मिथ्या अवधारणा के विषय में हमें स्मरण रखना चाहिए कि वेदों में इतिहास नही है। क्योंकि वेद अपौरूषेय हैं और वे सृष्टि प्रारंभ में ईश्वर की वाणी के रूप में मनुष्य को दिये गये। वेद वह शाश्वत ज्ञान है जो सृष्टि दर सृष्टि सदा विद्यमान रहता है और सृष्टि व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में मानव की सहायता करता है। इसमें अयोध्या आदि जैसे शब्दों को पकड़कर उनके अनुसार कुछ स्थानों के या नगरों के या जड़ पदार्थों के नाम रखे गये तो इसका अभिप्राय यह नही कि वेदों में इतिहास मान लिया जाए। हमारे वेदों में इतिहास होने की अवधारणा का प्रतिपादन करके वेदों का जिस प्रकार अर्थ का अनर्थ किया गया है, वह विश्व का सबसे बड़ा ‘बौद्घिक घोटाला’ है। स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी लिखते हैं कि-”वैदिक धर्म को भ्रष्ट करने, अंग्रेजी राज्य की जड़ें मजबूत करने तथा अंत में भारतीयों को ईसाई बनाने के लिए इस प्रकार की भ्रांतियां फेेलाई गयीं कि जिनके परिणाम स्वरूप इस देश को न जाने कितनी विपत्तियों का सामना करना पड़ा है। वास्तव में वेद में आये आर्य, दास या दस्यु आदि शब्द जाति वाचक न होकर गुणवाचक हैं।”
यद्यपि मैक्समूलर की भी मान्यता थी कि आर्य को किसी जाति विशेष के संदर्भ में नही लेना चाहिए (संदर्भ बायोग्राफीज ऑफ वर्डस एण्ड द होम आफ दी आर्यन्स) परंतु इसके उपरांत भी आर्यों को एक जाति के रूप में भारत में मान्यता भी अंग्रेजों ने ही दी और यही मान्यता आज तक चली आती है। इसी मान्यता के कारण धारणा फेेलाई गयी कि इन आर्यों ने उत्तर भारत में रहने वाले लोगों को दक्षिण भारत की ओर खदेड़ दिया और आर्यों द्वारा खदेड़े गये लोग ही आजकल द्रविड़ कहे जाते हैं। ”वैदिक इण्डेक्स” वालों ने ऋग्वेद (5-29-10) के एक मंत्र की अतार्किक व्याख्या करते हुए लिख दिया कि-ऋग्वेद (5-29-10) में दासों को अनास कहा गया है, जिससे पता चलता है कि वे वस्तुत: मनुष्य थे। इस व्याख्या से चपटी नाक वाले द्राविड़ आदिवासियों को लिया जा सकता है। इसी मंत्र में उन्हें ‘मृतध्रवाच’ भी कहा गया है। जिनका अर्थ है-द्वेषपूर्ण वाणी वाले। इसका दूसरा अर्थ लिया गया है-लड़ाई के बोल बोलने वाले।”
झूठों का क्रम यही नही रूका, यह और भी आगे बढ़ा। मैकडानल ने लिखा है कि वास्तव में कृष्णवर्ण के आदिवासियों का ही नाम दास-दस्यु आदि हैं। ग्रिफिक ने ऋग्वेद (1/10/1) का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए की टिप्पणी में लिखा है-कालेरंग के आदिवासी, जिन्हेांने आर्यों का विरोध किया। ‘वैदिक माइथौलौजी’ के अनुसार इसी प्रकार की मिथ्या बातों को और भी हवा दी गयी। वहां लिखा गया-”वज्रपाणि इंद्र को जो युद्घ में अंतरिक्षस्थ दानवों को छिन्न भिन्न करते हैं, योद्घा लोग अनवरत आमंत्रित करते हैं। युद्घ के प्रमुख देवता होने के नाते उन्हें शत्रुओं के साथ युद्घ कने वाले आर्यों के सहायक के रूप में अन्य सभी देवताओं की अपेक्षा कहीं अधिक बार आमंत्रित किया गया है। वे आर्य वर्ण के रखने वाले और काले वर्ण के उपदस्ता हैं। उन्होंने पचास हजार कृष्णवर्णों का अपाकरण किया और उनके दुर्गों को नष्ट किया। उन्होंने दस्युओं को आर्यों के सम्मुख झुकाया तथा आर्यों को उन्होंने भूमि दी। सप्तसिन्धु में वे दस्युओं के शस्त्रों को आर्यों के सम्मुख पराभूत करते हैं।”
अंग्रेजों की इसी मूर्खता पूर्ण धारणा को आधार बनाकर कर रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक ‘भारत का इतिहास’ में लिख मारा कि वर्ण व्यवस्था का मूल रंगभेद था। जाति के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द वर्ण का अर्थ ही रंग होता है।” जबकि पाणिनि महाराज ने आर्य शब्द की व्युत्पत्ति पर कहा है कि ये ‘ऋ गतौ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान, गमन और प्राप्ति है। योगवासिष्ठ (126/4) में कहा गया है कि जो कत्र्तव्य कर्मों का सदा आचरण करता है और अकत्र्तव्य कर्मों का अर्थात पापों से सदा दूर रहता है, वह आर्य कहाता है। इसी प्रकर दस्यु के लिए निरूक्तकार की परिभाषा है कि दस्यु वह है जिसमें रस या उत्तम गुणों का सार कम होता है, जो शुभ कर्मों से क्षीण है या शुभ कर्मों में बाधा डालता है। (नि.7/23) ऋग्वेद ने दस्यु के विषय में कहा है कि दस्यु वह है जो अकर्मण्य है, या जो सोच विचार कर कार्य नही करता। जो हिंसा, असत्य, क्रूरता आदि का व्यवहार करता है।
भारत की इस वैज्ञानिक नामकरण परंपरा का अध्ययन करने के उपरांत मद्रास यूनिवर्सिटी के श्री बीआर रामचंद्र दीक्षितार ने 29-30 नवंबर 1940 को मद्रास यूनिवर्सिटी में दो महत्वपूर्ण व्याख्यान दिये थे, जो एडियार लाइब्रेरी से 1947 में प्रकाशित हुए। उन्होंने कहा-”सत्य तो ये है कि दस्यु आर्येत्तर नही थे। यह मत कि दस्यु और द्राविड़ लोग पंजाब और गंगा की घाटी में रहते थे और जब आर्यों ने आक्रमण किया तो वे आर्यों से पराजित होकर दक्षिण की ओर भाग गये और दक्षिण को ही अपना घर बना लिया-युक्ति युक्त नही है।” पिंसीपल पी.टी श्रीनिवास अयंगर ने भी अपनी पुस्तक ‘द्राविडियन स्टडीज’ में लिखा है कि आर्य और दस्युओं के भेद को जातीय न मानकर गुणकर्म स्वभाव पर आधारित मानना ही ठीक है। आर्य द्राविड़ की इस कपोल कल्पना को पहली बार काल्डवेल नाम के ईसाई पादरी ने जन्म दिया। परंतु जार्ज ग्रीयरसन जैसे विदेशी भाषा शास्त्री ने स्पष्ट किया कि यह द्राविड़ शब्द स्वयं संस्कृत शब्द द्रमिल (Damila) अथवा दमिल (Damila) का बिगड़ा रूप है और केवल तामिल के लिए प्रयुक्त होता है।
सौभाग्य से जिस काल्डवेल नाम के पादरी ने द्राविड़ की कपोल कल्पना को जन्म दिया था उसी ने कालांतर में अपनी धारणा में परिवर्तन किया और लिखा कि द्राविड़ शब्द असल में तमिल है और केवल तमिल लोगों तक ही सीमित है।
इसी बात को (Ethnology of India) के लेखक सरजार्ज कैम्पबेल ने भी लिखा है-”द्राविड़ नाम भी कोई जाति नहीं है। निस्संदेह दक्षिण भारत के लोग शारीरिक गठन रीति रिवाज और प्रचार व्यवहार में केवल आर्य समाज है।”
विश्वविख्यात इतिहासविद एएल बाशम ने अपने लेख (Some Reflections on Aryans and Dravadians) में लिखा है-”इतिहास लेखकों ने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा को द्राविड़ कहा है। परंतु मोहनजोदड़ो में देखी गयी धार्मिक बातें दक्षिण भारत की विशेष नही है ना ही दोनों की खोपड़िय़ां एक दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए न कोई आर्य जाति है और न द्राविड़, और हम भी ऐसा ही मानते हैं कि केवल एक मनुष्य जाति है।” इस प्रकार विदेशियों ने हमारे बारे में मिथ्या प्रचार किया तो उन्होंने ही उसका निराकरण भी कर दिया। पर कुछ ‘प्रगतिशील इतिहास’ लेखक हमारे विषय में गलत धारणाओं को हम पर लादने का षड्यंत्र करते ही रहते हैं।
हमने यहां जिन विद्वानों के विचार विद्वान पाठकों को परोसे हैं, उन पर चिंतन कर इतिहास के विकृतीकरण के शुद्धिकरण की ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। भारत ने कभी भी व्यक्ति व्यक्ति के मध्य जाति, रूप – रंग ,कद- काठी आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया। अतः आर्य और द्रविड़ के रूप में भारत के बंटे रहने की उपरोक्त अवधारणा भी निराधार ही है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत