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लेखक आर्य सागर खारी 🖋️
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16वीं शताब्दी तक समूचे यूरोप में यह ज्ञान नहीं था कि सर्प के काटने से मृत्यु कैसे होती है?। यह कथन आपको अजीबोगरीब लगेगा लेकिन यही सत्य है यूरोप में सर्प के काटने से होने वाली मृत्यु को लेकर यह आम विश्वास था कि- ‘सर्प की दुष्ट आत्मा के कारण ऐसा होता है’। 17वीं शताब्दी में इटालियन फिजिशियन फ्रांसिसको रेडी ने यह प्रयोग से सिद्ध किया कि सर्प से काटने में जो मृत्यु होती है वह सर्प के विष के कारण होती है ।सर्प के मुख में विष ग्रंथि होती है जो विष का निर्माण करती है। ऐसे में 16वीं शताब्दी तक जब समुचे यूरोप में यह ज्ञान ही नहीं था कि सर्प के विष से मृत्यु होती है तो सर्प के विष की चिकित्सा करना तो दूर की कौड़ी था।
वही अपने भारतवर्ष में अथर्ववेद से निकली सर्प विद्या व विष चिकित्सा अपने चरम उत्कर्ष पर थी 16वीं शताब्दी से भी हजारों वर्ष पूर्व। छान्दोग्य उपनिषद में एक प्रसंग आता है नारद, सनत कुमार से कहते हैं मैंने अनेकों विद्या पढी है लेकिन मैं मंत्रवित हूं आत्मवित नहीं हूं नारद ने जो विद्याये पढी थी उनमें एक सर्प विद्या भी थी।
अथर्ववेद का यह मंत्र अंश
विषेण हन्मि ते विषम् १|३|१४
अर्थात मैं इस विष से तेरे शरीर के इस विष का विनाश करता हूं।
यह मंत्र आधुनिक एंटी वेनम विषरोधी चिकित्सा प्रणाली या विष विज्ञान (Toxinology)का सर्वप्रथम बीजरूप सूत्र है। इसी मंत्र के आधार इस बीजरूप मंत्र को शाखा रूप करते हुए पर महर्षि चरक, सुश्रुत् वागभट्ट ने अपनी-अपनी संहिताओं में विष विज्ञान व पृथक पृथक जीवो के विष की चिकित्सा व जीवों के विष का विविध असाध्य बीमारियों में रामबान चिकित्सा हेतु उपयोग के अनेकों योग लिखे हैं ।सुश्रुत्व व चरक आयुर्वेद विज्ञानी ही नहीं सरीसृप विज्ञानी भी थे सरीसृपों के स्वभाव उनके विष की चिकित्सा वातावरण आवास का उनके शरीर में विष उत्पादन , विष की घातकता आदि आदि विषयों पर परम ऋषि सुश्रुत्व ,चरक ने इतना अधिक लिखा अनुसंधान किया है की आधुनिक सरीसर्प विज्ञानी दंग रह जाएंगे चरक व सुश्रुत संहिता ग्रंथ आयुर्वेद के ही ग्रंथ नहीं है विज्ञान की आधुनिकतम बहुत सी शाखाओं के प्रथम लिखित साइंटिफिक लिटरेचर है। हजारों वर्षों से भारतीय वैद्य सर्प आदि के विष का प्रयोग विष के ही विरुद्ध नहीं विष का प्रयोग अन्य रोगों में चिकित्सा के रूप में भी कर रहे थे। मॉडर्न मेडिकल साइंस में एण्ड स्टेज लीवर व किडनी डिजीज से होने वाली सीवेयर एसाइटिस अर्थात ग्रेट 3 की एसाइटिस या यू कहे पेट में पानी भरने के रोग जलोदर का कोई इलाज नहीं है लेकिन प्राचीन वैद्य विष चिक्तिसा प्रयोग से वैद्य इस जानलेवा कॉम्प्लिकेशन से मुक्ति दिलाते थे।आयुर्वेद की सुचिकाभरण, अघोर नरसिंहरस जैसी औषधीय नाग के विष से ही बनाई जाती है।
वैद्य तो छोड़िए भारत के सपेरे भी विष चिकित्सा में महारत हासिल किए हुए होते।
थोड़ी चर्चा सांप और सांप के विष पर करते हैं सांप की 1300 से अधिक विश्व में प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें कुछ दर्जन ही प्रजाति विषैली होती है जिनके विष जानलेवा होता है लेकिन इन सांपों के मुख में निर्मित होने वाला यह विष उन सांपों के लिए नुकसानदायक नहीं होता अर्थात सांपों को नेचुरल इम्यूनिटी अपने विष के विरुद्ध हासिल रहती है इस साइंटिफिक तथ्य को भारत के सपेरे सदियों से जानते थे।
घटना 1870 की मद्रास प्रांत की है स्काटिश सर्जन एडवर्ड निकालसन मद्रास मेडिकल जनरल में एक शोध पत्र प्रस्तुत करता है जिसका आधार वह एक भारतीय सपेरे के द्वारा अपनी गई प्रक्रिया को बनाता है। वह वर्णन करता है उसने एक भारतीय सपेरे को अपने नाग के विष को खुद अपने शरीर में इनोकुलेट अर्थात चढ़ाते हुए देखा है। पूछने पर सपेरे ने उसे बताया अब उसे कोई भी विषैला सांप यदि डसता है तो उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा आप सोचिए एंटी वेनम चिकित्सा इतिहास में यह बताया जाता है की प्रथम सर्प विषरोधी टीके का निर्माण 1895 में चार्ल्स अल्बर्ट कालमेट ने किया लेकिन उसे सपेरे का कहीं नामोनिशान नहीं है जिसकी प्रक्रिया के आधार पर वह शोध स्थापित हुआ और उसे शोध पर ही कॉलमेट ने एंटी वेनम चिकित्सा पद्धति पर अनुसंधान कर प्रथम टीका विकसित किया।
भारत भूमि अनेकों विधाओं ज्ञान विज्ञान की आद्य प्रसूता रही है। वेद से इसकी समस्त विद्याएं निकली और हमारे प्रमाद से लुप्त होती रही। यूरोप में जितना भी ज्ञान का प्रकाश हुआ उसका स्त्रोत भारत भूमि का वेद रूपी विद्या भास्कर उसकी छाया में लिखे गए ग्रंथ ही थे।
सर्प विद्या पर लेखन का अब प्रयास रहेगा।
शेष अगले अंक में ।
लेखक आर्य सागर खारी ✍