वैदिक सम्पत्ति-296 (चतुर्थ खण्ड) जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान
(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहें हैं )
प्रस्तुति: देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’ )
(वेदमंत्रों के उपदेश)
गतांक से आगे…
समाज और साम्राज्य की रक्षा
उपर्युक्त आदर्श वैदिक आर्यसमाज का पवित्र चित्र देखकर उसकी रक्षा का प्रश्न सामने आ जाता है और उस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि जहाँ- जहाँ भय की सम्भावना हो, वहीं- वहीं रक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। वेदों में रक्षासम्बन्धी अनेकों प्रकार के उपदेश है, जो स्थूल रूप से चार भागों में बाँट जा सकते हैं। बीमारी से रक्षा, प्राकृतिक विप्लवों से रक्षा, समाज के भीतरी दुष्टों से रक्षा और बाहर के शत्रुओं से रक्षा। इन चारों प्रकार की रक्षाओं को आयुर्वेद यज्ञ, प्रार्थना और राज्यप्रबन्ध के अन्तर्गत रक्खा गया है। इनमें सबसे पहिला आयुर्वेद ज्ञान है। आयुर्वेद दो प्रकार का है-व्यक्ति का और समाज का व्यक्ति का आयुर्वेद वैद्यकशास्त्र है और समाज का यह है। व्यक्तिगत व्याय वैद्यकशास्त्र से और ऋतुसम्बन्धी या महामारी आदि सामाजिक व्याधियाँ यज्ञो के द्वारा
नष्ट होती है। वेदों में दोनों प्रकार का ज्ञान दिया गया है। यहाँ हम पहिले वैद्यक ज्ञान का नमूना दिखलाते हैं। वेद में सबसे पहिने जीवन का उपदेश इस प्रकार है-
इस जीवेभ्यः परिर्धि दधामि मंषां नु गादपरो अर्थमेतम् ।
शतं जीवन्तु शरद: पुरुचीरन्तर्मृत्युं दधतां पर्वतेन॥ (ऋग्वेद १०/१८/४)
अर्थात् मैं मनुष्यों के आयु की मर्यादा १०० वर्ष मुकर्रर करता हूँ। इससे पहिले इस जीवनधन को न गँवाओं, सौ वर्ष जिओ और अपमृत्यु को पर्वत से दबा दो। इस मन्त्र में अपमृत्यु से बचने का उपदेश है। अपमृत्यु बीमारियों से ही होती है और बीमारियां दोषों के ही कोप से होती हैं। इसलिए वेद में दोषों का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
त्रिषधस्था सप्तधातुः पञ्च जाता वर्धयन्ती। वाजे वाजे हव्या भूत् । (ऋग्वेद ६/६१।१३) अर्थात् तीन स्थानों (कफ, वात ओर पित्त) में ठहरी हुई सात धातुएं पांच तत्वों से उत्पन्न होकर बढ़ती हैं और अन्न से पुष्ट होती हैं। इसका तात्पर्य यही है कि पांचों तत्वों से बने हुए खानेपीने के पदार्थों से ही सातों धातुएँ उत्पन्न होती हैं जो वात, पित्त और कफ में स्थित हैं। इसके आगे हृदय और नाड़ी आदि के विषय में लिखा है कि-
इदं यमस्य सादनं देवमानं यदुच्यते । इयमस्य धम्यते नाळीरयं गीर्भिः परिष्कृतः ।। (ऋ० १० १३५।७)
अर्थात् यह हृदय देवमान – नियमित गति का बतानेवाला – यम का घर है और यही नाड़ी को धौकता है।
इस मन्त्र में हृदय की चाल का नियमित रूप बतलाकर नाड़ीज्ञान का उपदेश किया गया है। इसके आगे पथ्याहार का वर्णन इस प्रकार है-
त्रीणि च्छन्दांसि कवयो वि येतिरे पुरुरूपं दर्शतं विश्वचक्षणम् ।
आपो बाता ओषधयस्तान्येकस्मिन् भुवन अर्पितानि ।। (अथर्व० १८।१।१७)
अर्थात् बुद्धिमानों ने अनेक प्रकार से निरूपण करने योग्य, पद्भुत गुणवाले, सबके जानने योग्य और आनन्द देनेवाले तीन पदार्थों को बहुत तरह से समझ लिया है। वे तीनों पदार्थ जल, वायु और औषधियाँ हैं, जो संसार को दी गई हैं ओर हर जगह में मौजूद हैं। यहाँ स्वास्थ्यरक्षा से सम्बन्ध रखनेवाले और हर समय उपयुक्त होनेवाले वायु जल ओर अन्नों का वर्णन किया गया है। क्योंकि मनुष्य का स्वास्थ्य इन्हीं के आधीन है। इसके आगे आहार का नियम बतलाते हुए वेद उपदेश करते हैं कि –
यदश्नामि बलं कुर्वं इत्थं वज्रमा ददे ।स्कन्धानमुष्य शातयन् वृत्रस्येव शचीपतिः ।। १ ।।
यत् पिबामि सं पिबामि समुद्र इव संपिब: । प्राणानमुष्य संपाय सं पिबामो अमु वयम् ।। २ ।।
यद् गिरामि सं गिरामि समुद्र इव सङ्गिरः । प्राणानमुष्य संगीर्य सं गिरामो अमु वयम् ।। ३ ।। (पथ० ६।१३५।१३)
अर्थात् जो कुछ मैं खाता हूँ उसे बल बना देता है, तभी मैं शत्रु के कंधों का तोड़नेवाला वज्र उसी तरह ग्रहण कर सकता है, जैसे वृत्र के लिए इन्द्र अपने वज्र को ग्रहण करता है। इसी तरह जो कुछ पीता हूँ वह भी यथाविधि हो पीता है, जैसे समुद्र यथाविधि पीता है। इसलिए जो कुछ हम पीवें, वह उस पदार्थ के सारभाग को चूसकर पीयें। इसी तरह जो कुछ चबाता हूँ, वह यथाविधि चबाता हूँ जैसे समुद्र चबाकर पचा जाता है, इसलिए पदार्थों के प्राणस्वरूप सार को खूद दातों से पीसकर चबाना चाहिये । इन मन्त्रों ने खूब चबाकर उतना ही खाने की आज्ञा है, जितता पच जावे और बल उत्पन्न करनेवाला हो। समुद्र के उदाहरण से बतला दिया गया है कि कभी अजीर्ण न होना चाहिये, क्योंकि समुद्र को जल से कभी अजीर्ण नहीं होता ।
क्रमशः