हे धर्मराज ! मनुष्य दूसरों द्वारा किए हुए जिस व्यवहार को अपने लिए उचित नहीं समझता , दूसरों के प्रति भी वह वैसा व्यवहार ना करे। प्रत्येक मनुष्य को यह समझना चाहिए कि जो बर्ताव अपने लिए अच्छा नहीं है, वह दूसरों के लिए भी अच्छा नहीं हो सकता।
जिस मनुष्य की अभी स्वयं जीने की इच्छा है, उसको चाहिए कि वह दूसरों के जीवन का भी सम्मान करे। संसार में जिसकी जीने की इच्छा होती है, वह दूसरों के साथ हिंसा का व्यवहार नहीं कर सकता। जो अपने लिए सुख – सुविधा चाहता है, वैसी ही सुख – सुविधाओं को वह दूसरे के लिए भी सुलभ कराने का विचार करता रहे। सबके साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करने से जिस आनंद की प्राप्ति होती है ,वही धर्म है। जो व्यक्ति इसके विपरीत आचरण करता है वह अधर्मी कहलाता है । उसका कार्य निंदित श्रेणी का होता है और उसका व्यक्तित्व भी दुर्गंधयुक्त हो जाता है। धर्म और अधर्म का संक्षेप से यही मौलिक अंतर है।
धर्म के विषय में जाजलि के साथ तुलाधार वैश्य का प्राचीन काल में एक संवाद हुआ था। उसे भी उदाहरण के रूप में विद्वान लोग अक्सर चर्चा में लाते रहते हैं। मैं उस वार्तालाप को भी तुम्हें बता रहा हूं। ऐसा कहकर भीष्म पितामह ने धर्मराज युधिष्ठिर को उस वार्तालाप को बताना आरंभ किया –
“युधिष्ठिर ! प्राचीन काल में जाजलि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था , वह वन में रहता था। उसने समुद्र तट पर जाकर महान तप किया था। एक समय की बात है जाजलि निराहार रहकर वायुभक्षण करते हुए ठूंठ की भांति खड़े हो गए । उनके मन में उस समय थोड़ी सी भी चंचलता या व्यग्रता नहीं थी। क्षण भर के लिए भी कभी विचलित नहीं होते थे। उनकी तपस्या बड़े ऊंचे स्तर की थी। चेष्टाशून्य होने के कारण वे ठूंठ से जान पड़ते थे। उनके सिर के ऊपर गौरैया पक्षी के एक जोड़े ने अपने रहने के लिए घोंसला बना लिया। धीरे-धीरे वर्षा ऋतु व्यतीत हो गई और शीत-काल आ पहुंचा।
उस समय कामासक्त गौरइयों ने परस्पर समागम किया और महर्षि के सिर पर ही अंडे दे दिए। उस तेजस्वी ब्राह्मण को भी यह पता चल गया कि पक्षियों ने मेरी जटाओं में अंडे दिए हैं। इसके उपरान्त भी वे अविचल रहे । उनका मन सदा धर्म में लगा रहता था। इसलिए वह निंदित कर्म का विचार तक भी नहीं लाते थे। गौरैया का वह जोड़ा प्रतिदिन दाना चुगने के लिए जाता और फिर लौटकर उनके सिर पर ही अपने बने हुए बसेरे में लौट आता। वे बड़े सहज भाव से प्रसन्न होकर वहां निवास करते रहे। उन्हें तनिक भी यह पता नहीं चला कि जिस ठूंठ पर उन्होंने अपना घोंसला बनाया है, वह कोई दिव्य पुरुष है।
अंडों के पकने और परिपुष्ट होने पर उन्हें फोड़कर बच्चे बाहर निकले और वहीं पर बड़े होने लगे। जाजलि मुनि तनिक भी विचलित नहीं हुए। अब बच्चों के पंख निकल आए थे। दिन में दाना चुगने के लिए निकल जाते और शाम को फिर वहीं लौटकर आ जाते। जाजलि उन पक्षियों को आते-जाते देखते,परंतु हिलते-डुलते नहीं थे।
अब वे पक्षी के बच्चे कुछ बड़े हो गए थे। वे पांच-पांच दिन तक बाहर रह जाते और कहीं छठे दिन वापस आकर जाजलि मुनि के सिर पर बैठे । एक समय वे पक्षी उड़ जाने के बाद एक महीने तक भी लौट कर नहीं आए । तब मुनि जाजलि वहां से कहीं दूसरे स्थान पर चले गए । उन पक्षियों के इस प्रकार लापता हो जाने पर मुनि को पहले तो कुछ आश्चर्य हुआ पर कुछ समय पश्चात उनको यह अहंकार हो गया कि वे सिद्ध हो गए हैं । तब उन्होंने आकाश में ताल ठोंकते हुए यह घोषणा भी कर दी कि मैंने धर्म को पा लिया है। उनकी इस प्रकार की घोषणा को सुनकर आकाशवाणी हुई कि “जाजलि ! तुम धर्म के मामले में तुलाधार वैश्य की बराबर भी नहीं हो।”
उस समय काशी नगरी में तुलाधार नाम के एक वैश्य रहते थे। अपने बारे में की गई इस आकाशवाणी को मुनि ने सुना। इस आकाशवाणी को सुनकर वह क्रोध के वशीभूत हो गए। उन्हें इस प्रकार के शब्दों को सुनकर अपना अपमान अनुभव हुआ।
तब उन्होंने निर्णय लिया कि मैं उस तुलाधार के दर्शन अवश्य करूंगा, जिसे मुझसे भी अधिक उच्चकोटि का महात्मा माना गया है। इस प्रकार वे काशी नगरी के लिए चल दिए। काशी नगरी में पहुंचने पर उन्होंने वहां तुलाधार वैश्य को चीजों की बिक्री करते हुए देखा।
जैसे ही तुलाधार की दृष्टि अपनी ओर आते हुए उस ब्राह्मण पर पड़ी तो वह तुरंत उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव प्रकट करते हुए अति हर्ष के साथ खड़े हो गए और आगे हाथ बढ़ाकर उसने ब्राह्मण का स्वागत सत्कार किया।
तुलाधार बोला “हे ब्राह्मण ! आप मेरे अतिथि हैं और आप जब मेरे पास आ रहे थे तो मुझे उसी समय यह बात ज्ञात हो गई थी कि आप मेरे पास आ रहे हैं। बताइए, मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूं। इस अवसर पर मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ?”
तब जाजलि ने कहा कि “वैश्यपुत्र ! तुम तो सब प्रकार के रस, गंध ,वनस्पति आदि बेचते हो । तुम्हें धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे और कहां से मिली? मुझे इसके बारे में सारा ज्ञान कराइए। मैं तुम्हारी कार्य शैली से अति प्रसन्न हुआ हूं।”
तुलाधार वैश्य ने कहा कि “जाजले! संसार में एक सनातन धर्म ही ऐसा है जो समस्त प्राणियों के लिए हितकारी है और सबके प्रति मैत्रीभाव सिखाता है। इस धर्म के मर्म को मैं अच्छी प्रकार जानता हूं। यह सनातन धर्म हमें सिखाता है कि किसी भी प्राणी के प्रति घृणा का भाव मन में नहीं आना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि कम से कम विद्रोह करने से काम चल जाए तो ऐसी जीवन वृत्ति ही सबसे अधिक उत्तम होती है। मैं सनातन के इसी मूल्य को अपनाकर अपनी जीवन शैली को चलाने का प्रयास करता रहता हूं ।
जाजले ! मैंने दूसरों के द्वारा काटे गए काष्ठ और घासफूंस से अपना घर तैयार किया है। मैं जो कुछ भी बेचता हूं वह दूसरों से खरीद कर बेचता हूं। मेरे यहां मदिरा नहीं बेची जाती। उसे छोड़कर मैं बहुत से पीने योग्य रसों को दूसरों से खरीद कर अपने जीवन निर्वाह के लिए बेचता हूं। मैं माल बेचने में किसी भी प्रकार से छल कपट या झूठ का सहारा नहीं लेता। ईमानदारी से अपना सारा कार्य व्यापार करता हूं। इसमें मुझे परम शांति और आनंद की प्राप्ति होती है। जिसे मैं अपने जीवन का व्रत और धर्म बनाकर चलता हूं। मैं अपने प्रत्येक ग्राहक के साथ न्याय करने के लिए विचार करता रहता हूं। कोई भी मेरा ग्राहक मुझे गलत ना कहे, इस बात का भी ध्यान रखता हूं।
वास्तव में धर्म मैं उसको मानता हूं जो प्राणी मात्र का मित्र होता है और मन, वचन, कर्म से सबके हित में लगे रहने की शिक्षा देता है । जिसमें इसके विपरीत बातें मिलती हैं और जो दूसरों को कष्ट पहुंचाने की प्रेरणा देता है वह धर्म के विपरीत अधर्म है ,जिससे मनुष्य को बचना चाहिए।
जाजले ! समस्त प्राणियों के प्रति मेरा समभाव है। मैं किसी के प्रति तेरा मेरा का भाव नहीं रखता। सबके प्रति समान भाव बरतता हूं और वैसा ही व्यवहार करता हूं। मैं किसी को छोटा बड़ा नहीं मानता। सबको एक ही ईश्वर की संतान मानता हूं। मेरी बुद्धि में विभेद नाम मात्र के लिए भी नहीं है । मेरे इस आचरण पर आपको भी नजर दौड़ानी चाहिए। मेरे बारे में यह विचार करना चाहिए कि मैं वास्तव में ऐसा आचरण निष्पादित करता भी हूं या नहीं ? मेरी तराजू के सामने सब मनुष्य एक जैसे हैं। मेरे यहां जो भी आता है वही मेरे लिए खास होता है। मैंने खास और आम या साधारण और विशिष्ट या अतिविशिष्ट की श्रेणियों में लोगों को बांटने का काम नहीं किया है। जिससे मेरी तराजू सबके लिए बराबर तोलने का काम करती है ।
अहिंसा और दया आदि के भावों से प्रेरित होकर जब कोई व्यक्ति कर्म करता है तो उसे सब लोगों में उत्तम फल प्राप्त होते हैं। दया धर्म का मूल है। ऐसा मानकर ही हमें अपना जीवन व्यवहार बनाना चाहिए। यदि मन में हिंसा की भावना हो तो वह श्रद्धा का नाश कर देती है । नष्ट हुई श्रद्धा कर्मकर्ता हिंसक मनुष्य का भी सर्वनाश कर डालती है। अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है और श्रद्धा पाप से मुक्ति दिलवाने का काम करती है। “महाज्ञानी जाजले ! तुम जीवन में श्रद्धा धारण करो । तब तुम्हें परम गति की प्राप्ति होगी । श्रद्धा करने वाला श्रद्धालु मनुष्य साक्षात धर्म का स्वरूप बन जाता है । सब लोग उस पर विश्वास करते हैं और हृदय से उसकी बातों का श्रवण कर अपना आचरण उसके अनुकूल बना देते हैं।”
अंत में भीष्म जी कहते हैं कि “हे कौंतेय ! ब्राह्मण जाजलि ने विख्यात और प्रभावशाली तुलाधार के वचन सुनकर उन्हें हृदय से अपनाया और उसके पश्चात वह वास्तव में मोक्ष पथ के अनुगामी बने।”
कहानी हमें शिक्षा देती है कि धर्म के मर्म को जानकर उसे अपने जीवन व्यवहार में उतारना चाहिए। जीवन व्यवहार में उतरा हुआ धर्म का स्वरूप मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)