“सभी आत्माएं एक जैसी हैं।”
"सभी आत्माएं एक जैसी हैं।" ऐसा वेद आदि शास्त्रों में बताया गया है। उसका एक अनुमान प्रमाण यह भी है कि "सभी को सुख चाहिए, दुख किसी को भी नहीं चाहिए। थोड़ा सा भी नहीं चाहिए। सभी को सुख 100 प्रतिशत चाहिए। उत्तम क्वॉलिटी का चाहिए।" इससे पता चलता है कि सभी आत्माएं एक जैसी हैं।
"परंतु अधिकतर लोग जब एक दूसरे को देखते हैं, तो वे आत्मा की दृष्टि से नहीं देखते। वे दूसरे व्यक्ति को शरीर आयु आदि की दृष्टि से देखते हैं। इसलिए वे सब आत्माओं को एक समान नहीं समझते।" अर्थात जितनी भी आत्माएं मनुष्य शरीर में हैं, या पशु पक्षी आदि शरीरों में हैं, उन सबको एक समान अर्थात आत्मा के रूप में नहीं देखते, शरीर के रूप में देखते हैं।
"बच्चे का शरीर छोटा और उसकी आयु कम होने के कारण उसे छोटा समझते हैं। अपना शरीर बड़ा और आयु बच्चे से अधिक होने के कारण वे स्वयं को उससे बड़ा समझते हैं।" अतः अज्ञानता और अभिमान के कारण से लोग प्रायः एक दूसरे के साथ अन्याय करते हैं। वे ऐसा विचार नहीं करते, कि "इस बच्चे में भी मेरे जैसी ही आत्मा है। जैसे मुझे सुख चाहिए, ऐसे ही इसको भी सुख चाहिए। जैसे मुझे प्रेम चाहिए, ऐसे ही इस को भी प्रेम चाहिए। जैसे मैं दुख भोगना नहीं चाहता, वैसे ही यह भी दुख भोगना नहीं चाहता।" इस प्रकार से वे लोग नहीं सोच पाते। "अपनी अज्ञानता और अभिमान के कारण वे बच्चे पर या अन्य किसी प्रकार से कमजोर लोगों पर अन्याय करते हैं।" ऐसा करना उचित नहीं है।
"इसी प्रकार से पशु पक्षियों में भी मनुष्यों जैसी ही आत्मा होती है। वे भी सुख भोगना चाहते हैं, और दुख भोगना नहीं चाहते।" "परंतु मनुष्य लोग पशु-पक्षी आदि शरीरों में विद्यमान आत्माओं को भी अपने से छोटे स्तर की आत्मा मानते हैं, और उन पर भी अनेक प्रकार से अत्याचार करते हैं।" ऐसा करना भी उचित नहीं है।
वे अज्ञानी और दुरभिमानी लोग इस प्रकार से अन्याय क्यों करते हैं? दुर्व्यवहार क्यों करते हैं? इसलिए कि "वे इस बात को नहीं समझते, कि हमारे इन दुर्व्यवहारों का हमें भविष्य में ईश्वर और समाज या प्रशासन आदि की व्यवस्था से दंड भोगना पड़ेगा।" इसीलिए वे पशु पक्षी आदि प्राणियों पर और छोटे मनुष्यों पर अन्याय अत्याचार करते हैं। "ऐसे अपराधों से बचना चाहिए। अन्यथा प्रशासन अथवा ईश्वर के न्यायालय में तो दंड भोगना ही पड़ेगा। तब आप को उस दंड से कोई नहीं बचा पाएगा।"
"जो बुद्धिमान लोग दूसरों में अपने जैसी आत्मा समझते हैं। वे दूसरों के साथ न्यायपूर्वक अच्छा व्यवहार करते हैं।" इस न्यायपूर्वक अच्छे व्यवहार का फल उनको यह मिलता है, कि "दूसरे लोग भी उनके साथ न्यायपूर्वक अच्छा व्यवहार करते हैं। उनके साथ स्नेह करते हैं, प्रेम करते हैं, उन्हें सुख देते हैं।"
"आप भी यदि दूसरों के साथ इसी प्रकार से न्यायपूर्वक उत्तम व्यवहार करेंगे, तो आपको भी दूसरों से स्नेह प्रेम सुख आदि सब मिलेगा।"
अतः यह सदा स्मरण रखें, कि "आज जो आपको दूसरों से स्नेह प्रेम सुख सेवा संपत्ति आदि मिल रहा है, यह आपके द्वारा किए गए न्यायपूर्वक उत्तम व्यवहार का फल है। यदि आप भविष्य में भी अपना व्यवहार ऐसा ही रखेंगे, तो लोग आपको भविष्य में भी ऐसे ही स्नेह प्रेम और सुख देते रहेंगे।" "और यदि आप मिथ्याज्ञान और अभिमान के कारण दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करेंगे, तो दूसरों से मिलने वाला प्रेम स्नेह सुख आदि सब बन्द हो जाएगा।" फिर आपको बाद में पश्चाताप करना पड़ेगा। "तब पश्चाताप करने से अच्छा है, कि आप दूसरों के साथ बुद्धिमत्ता से न्यायपूर्वक उचित व्यवहार करें, और सदा सुखी रहें। दूसरों से प्रेम स्नेह सुख आदि प्राप्त करते हुए अपने जीवन को सफल करें।"
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।”