( धर्म जैसे जिस पवित्र शब्द के बारे में आजकल अधिकतर लोग शंकित रहते हैं और उल्टी सीधी परिभाषाएं स्थापित करते हैं। धर्म को ‘अफीम’ कहकर अपमानित करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्म एक ऐसा नशा है जो मनुष्य से पाप कार्य करवाता है। जबकि वैदिक वांग्मय में धर्म पाप से मुक्त कर पुण्य कार्यों में लगाता है।
धर्म के रूप में स्थापित हुआ मजहब जैसा राक्षस तो आजकल के सेक्युलरिस्ट ( धर्मनिरपेक्ष ) लोगों , राजनीतिज्ञों और विचारकों की दृष्टि में स्वीकार्य हो सकता है , पर धर्म नहीं। यह हमारे चिंतन के दीवालिएपन का प्रतीक है। जिससे पता चलता है कि हम धर्म जैसे पवित्र शब्द के साथ न्याय नहीं कर पाए हैं। आज हमें सनातन की उन मान्यताओं को स्थापित करने की आवश्यकता है जो धर्म के विषय में गंभीर हैं और धर्म को एक स्पष्ट आकार प्रदान करने की क्षमता रखती हैं। इसी धर्म को लेकर भी धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से प्रश्न किया था कि धर्म क्या है ? उसकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई है ? हे पितामह ! मुझे यह भी बताने का कष्ट करें। – लेखक)
युधिष्ठिर स्वयं सशंकित से होकर धर्म की परिभाषा स्थिर करने के लिए भीष्म जी से निवेदन करते हुए कहते हैं कि कुछ लोग कहते हैं कि इस लोक में सुख पाने के लिए जो कर्म किया जाता है वही धर्म है तो कुछ कहते हैं कि परलोक को सुधारने के लिए जो कर्म किया जाता है, वही धर्म है । जबकि कुछ लोगों का कहना है कि जो कर्म इस लोक और परलोक दोनों को सुधारने के लिए किया जाता है , वह धर्म है। मैं आपसे पूछता हूं कि इनमें से कौन सी बात सही है ? संसार के लोगों के लिए धर्म की कौन सी परिभाषा उत्तम है? अथवा कौन सी परिभाषा के अनुसार जीवन को जीने से हम अपने इस लोक और परलोक का सुधार कर सकते हैं ? इस बारे में विस्तार से बताने का कष्ट करें।
जिज्ञासु की भूमिका में सामने बैठे धर्मराज के इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर धर्म और राजनीति के मर्मज्ञ भीष्म पितामह बोले कि “युधिष्ठिर ! वेद, स्मृति और सदाचार यह तीन धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले हैं। इन तीनों के प्रति निष्ठा, आस्था और श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति धर्म के मर्म को समझ जाता है। कुछ विचारकों की दृष्टि में अर्थ को भी धर्म का चौथा लक्षण बताया गया है। मैं तुम्हें बताता हूं कि धर्म क्या है और उसकी कौन सी परिभाषा को स्वीकार करने से हमारे जीवन का कल्याण हो सकता है?
इस प्रकार भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर के गंभीर प्रश्न को समझकर उस पर अपना गंभीर चिंतन प्रकट करने लगते हैं और कहते हैं कि “धर्मराज ! धर्म का पालन करने से लोक और परलोक में जीव को सुख की प्राप्ति होती है । पापी मनुष्य धर्म का साथ छोड़कर पाप में प्रवृत्त हो जाता है। जिससे उसे अनेक जन्मों में अनेक प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है। उत्तम प्रकृति के मनुष्य कभी भी धर्म का साथ नहीं छोड़ते। यही कारण है कि ऐसे महामानवों का जीवन मनुष्य मात्र के लिए अनुकरणीय हो जाता है। सत्य बोलना मनुष्य के लिए सबसे उत्तम कर्म है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कार्य नहीं। सत्य बोलना भी धर्म के अंतर्गत ही आता है।”
हे कुंतीनंदन युधिष्ठिर ! सत्य के बारे में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसने ही सब को धारण किया हुआ है। इसीलिए किसी भी पाप कार्य के होने पर किसी व्यक्ति की सत्य निष्ठा की पड़ताल करने के लिए उसे धर्म की सौगंध दी जाती है। क्रूर स्वभाव वाले पापी भी अलग-अलग सत्य की सौगंध खाकर ही आपस में वैरभाव करने से बचते हैं। सत्य जीवन का उपाय ही नहीं सृष्टि का भी आधार है। उसी के आधार पर संसार के लोग अपने कामों को धर्म के अनुसार संपादित करने का कार्य करते रहते हैं।”
संसार में कुछ ऐसे मूर्ख लोग हैं जो बुद्धि से ना चलकर बल से अपने आपको चलाने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग धर्म का नाश कर देते हैं। क्योंकि उनके बाहुबल के साथ उनका बुद्धि बल जुड़ा हुआ नहीं होता। धर्म की स्थापना के लिए बाहुबल के साथ बुध्दिबल का संयोग आवश्यक है। जो लोग बल से अपने आप को चलते हैं उनका कहना होता है कि धर्म तो दुर्बलों के द्वारा चलाया गया है । धर्म पाखंड है और दुर्बल लोगों ने इसे एक डरावनी चीज के रूप में स्थापित कर लिया है। जबकि ऐसा नहीं है । वास्तव में धर्म को बुद्धिशील लोगों ने ही समझा और स्थापित किया है। यह मानव की बुद्धि में ईश्वर प्रदत्त दिव्यता का पवित्र भाव है। जिसे संसार में दुर्बलों की रक्षा के लिए स्थापित किया जाता है।
जो किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं है उसे दुष्टों , चोरों अथवा राजा से डर नहीं होता। ऐसा व्यक्ति ही धर्मशील कहलाता है। धर्मशील रात को आराम की नींद लेता है और दिन में आराम से अपने काम करता है। उसे दिन में चैन और रात में सुख की नींद आती है। जबकि पापी, अधर्मी व्यक्ति ना तो दिन में खुश रहता है और ना ही रात्रि में सुख से सो पाता है। जिसका आचार विचार शुद्ध है, वह सदा निर्भय रहता है। जैसे कोई हिरण किसी गांव में आ जाए तो वह डरा- डरा सा रहता है, वैसे ही जो मनुष्य दूसरों के अधिकारों का हनन करता है या दूसरों पर अत्याचार करता है या दूसरों के साथ अन्याय का व्यवहार करता है वह भी डरा- डरा सा रहता है। संसार के किसी भी बदमाश या डकैत को देखिए वह दिखने में तो डरावना सा लगता है पर वह स्वयं डरा और सहमा हुआ सा होता है और अपने भीतर के डर के कारण ही अपने साथ हथियारबंद लोगों को रखता है। ऐसे अधर्मी को कहीं चैन नहीं मिलता । पर जिसका आचार शुद्ध है , उसे कहीं से भी किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं होता ।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)