- संन्यास संस्कार
सम्यक न्यास अर्थात विचारपूर्वक दूरी बना लेना , अथवा ऐसा भाव उत्पन्न कर लेना कि अब मैं न्यासी या ट्रस्टी हो गया हूँ । मैं निरपेक्ष हो गया हूँ । मैं राग और द्वेष से ऊपर उठ गया हूँ । अब मुझे न किसी से अधिक लगाव है ना किसी से द्वेष है । मैं अब मैं संसार को साक्षीभाव से देख रहा हूँ । यहां की प्रत्येक घटना को मैं केवल देख रहा हूँ । उसमें किसी भी प्रकार से लिप्त नहीं हूँ । ऐसी उत्कृष्ट भावना को जब व्यक्ति हृदयंगम कर लेता है तो वह संसार में रहकर भी संन्यासी हो जाता है।
संन्यास = सं + न्यास। ऐसी अवस्था को व्यक्ति जब प्राप्त कर लेता है तो वह सारे संसार को अपना घर बना लेता है और वह स्वयं में चलती फिरती एक संस्था बन जाता है । एक ऐसा विचार बन जाता है जो सबके कल्याण के भाव से ओतप्रोत होता है । एक ऐसा विश्वविद्यालय बन जाता है जो सब के लिए अपने द्वार खोल देता है । एक ऐसा गुरु बन जाता है जो सबको निरपेक्ष भाव से बिना किसी राग द्वेष के अपने ज्ञान को बांटने का काम करने लगता है ।
अब उसके पास न तो लोकैषणा है , ना वित्तैषणा है , ना पुत्रैषणा है । अब वह सारी ऐषणाओं से ऊपर उठ गया है । अब तो एक ही इच्छा है और वह इच्छा हो कर भी इसलिए इच्छा नहीं है कि उसमें केवल और केवल लोक कल्याण छुपा हुआ है और वह इच्छा भी यही है कि सबका भला हो , सब निरोग हों , सब भद्र भाव देखने वाले हों और मेरा जीवन सबके लिए समर्पित हो जाए।
जब किसी व्यक्ति के विचारों में इतनी शुद्धता , पवित्रता और परिपक्वता आ जाती है तो वह संसार के लिए मनुष्य रूप में देवता हो जाता है । तब वह श्वेत वस्त्रधारी न होकर संन्यासी के लिए नियत किए गए भगवा वस्त्रों को धारण कर लेता है। जैसे फल पककर भगवा रंग का हो जाता है , वैसे ही वह भी अब पककर भगवामय हो गया है । समझो कि अब वह लोक कल्याण के लिए समर्पित हो गया है। भारत में हिंदुत्व की इस पवित्र भावना या चेतना के इस मौलिक स्वर ने भारत को बहुत कुछ दिया है । इतना कुछ कि इसी के कारण वह संसार का गुरु बन गया। आज भी संसार के लोग यदि भारत की ओर देखते हैं तो उसके इसी भगवा के रहस्यमयी स्वरूप की ओर देखते हैं । वे भगवा को आकर्षण की दृष्टि से देखते हैं ,
क्योंकि उन्हें भगवा से बहुत कुछ मिलता है।
संन्यासी ऐसा होता है कि उसे जीवन से कोई राग नहीं होता और मृत्यु से किसी प्रकार का भय नहीं होता। वह अपने जीवन में हर स्थिति परिस्थिति में आनंदित रहने का अभ्यासी हो जाता है । वह आत्मनिष्ठ होकर जीवन जीता है। उसे मान – अपमान , हानि – लाभ , सुख – दुख के द्वन्द्वभाव किसी प्रकार से विचलित नहीं करते । वह जितेंद्रिय हो जाता है और सभी प्रकार के अंतर्द्वंद को परास्त कर देता है। सन्यासी सम्मान से उसी प्रकार डरता है जैसे कोई विष के ग्रहण करने से डरता है और अपमान को वह अमृत के समान सहर्ष पी लेता है।
- अन्त्येष्टि संस्कार
मनुष्य की मृत्यु के उपरांत उसके शव को जलाने की भारत की परंपरा भी आज संसार के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनायी जानी बहुत ही आवश्यक हो गई है । यह अलग बात है कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण लोग अभी भी शवदाह की इस वैज्ञानिक परंपरा को अपनाने से हिचक रहे हैं । भारतीय समाज में इसे अंत्येष्टि संस्कार के नाम से जाना जाता है। जिसे कभी-कभी हम नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी कह देते हैं ।
यह संस्कार अंतिम होने के कारण अंत्येष्टि संस्कार कहलाता है बात स्पष्ट है कि इसके पश्चात फिर करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। जब अंतिम संस्कार हो गया तो उसके पश्चात जितने भर भी क्रियाकलाप हैं वह सब लोकपरम्परा के चाहे अनुकूल हों परंतु वेदपरम्परा के अनुकूल नहीं हैं । भारत की शवदाह की इस अनूठी परंपरा को आज के सभ्य संसार के लोग बहुत ही उत्तम मान रहे हैं । कुछ लोग अपने सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों को तोड़कर भी इसे अपनाने की बात कर रहे हैं । क्योंकि उन्होंने देख लिया है कि बड़े-बड़े शहरों में या महानगरों में पूरा का पूरा एक क्षेत्र ऐसा होता है जो कब्रिस्तान के नाम पर ‘ मुर्दों का शहर’ के नाम से महानगर में अपना स्थान बना लेता है। जबकि अंत्येष्टि संस्कार के लिए बहुत थोड़ी सी जगह ही अनेकों लोगों के संस्कार के लिए पर्याप्त होती है ।
कुल मिलाकर हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में पाए जाने वाले यह 16 संस्कार हमारी राष्ट्रीय चेतना के प्रबल स्रोत हैं । चाहे अब हम इन्हें पूर्ण रूप में अपना रहे हैं या नहीं अपना रहे , इसके उपरांत भी ये हमारा किसी न किसी प्रकार मार्गदर्शन करते हैं और हमारे भीतर सांस्कृतिक चेतना के उस स्वर को झंकृत किये रखते हैं जो हममें सामाजिक और राष्ट्रीय एकता को प्रबल से प्रबलतर करने की क्षमता रखता है। वैदिक संस्कृति या हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इन सभी संस्कारों को न केवल अपनाता है बल्कि उनके माध्यम से भारत के अन्य लोगों के साथ भी अपने आपको एक ऐसी अदृश्य राष्ट्रीय एकता में बंधा हुआ पाता है जिसके सूत्र तो हमें दिखाई नहीं देते परंतु यह आभास अवश्य होता है कि हम किसी ऐसी सुखदायी श्रंखला में बंधे हुए हैं जो हमें एक ही छत के नीचे रहने के लिए प्रेरित करती है। वास्तव में यही छत और यही श्रंखला हमारी राष्ट्रीय एकता के वे सूत्र या आधारभूत स्रोत हैं जो हमारी मौलिक चेतना को जगाए रखने का कारण बनते हैं। निश्चय ही इन स्रोत – सूत्रों को बनाने में सोलह संस्कारों का प्रबलतम योगदान है।
डॉ राकेश कुमार आर्य