एक दिन गंगा तीर पर एक साधु कमण्डलु आदि प्रक्षालन करके वस्त्र धोने में प्रवृत्त था । संयोग से भ्रमण करते हुए ऋषि वहीं जा पहुंचे । साधुजी ने कहा – आप इतने त्यागी, परमहंस होकर खण्डन मण्डनरूप प्रवृत्ति के जटिल जाल में क्यों उलझ रहे हो ? प्रजा प्रेम का बखेडा क्यों डालते हो ? मनुष्यों के उद्धार से तुम्हे क्या मिलेगा ? आत्मा से प्रेम करो ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने कहा – वह प्रेममय आत्मा कहां है ?
साधुजी – वह राजा रंकपर्यन्त, हस्ती से लेकर कीट तक सर्वत्र ऊॅच नीच में परिपूर्ण है ।
महर्षि – जो आत्मा सब में रमा हुआ है, क्या आप सचमुच उससे प्रेम करते हैं ?
साधुजी – तो क्या हमने मिथ्या वचन बोला है ?
महर्षि – गम्भीरतापूर्वक कहा ‘ नहीं । आप उस महान् आत्मा से प्रेम नही करते । आपको अपनी भिक्षा की चिन्ता है, अपने वस्त्र उज्ज्वल बनाने का ध्यान है, अपने भरण – पोषण का विचार है । क्या आपने कभी उन बंधुओं का भी चिंतन किया है, जो आपके देश में लाखों की संख्या में भूख की चिता पर पड़े हुए रात दिन 12 महीने भीतर ही भीतर जलकर राख हो रहे हैं ? सहस्रों मनुष्यों आपके देश में ऐसे हैं जिंहें आजीवन उदर भर कर खाने को अन्न नही जुड़ता । उनके तन पर सड़े गले मैले कुचैले चिथडे लिपट रहे हैं । लाखों निर्धन दीन ग्रामीण भेड़ों और बकरियों की भाॅति, गंदे कीचड़ और कूड़े के ढेरों से घिरे हुए सड़े गले झोंपडों में लोटते हुए जीवन के दिन काट रहे हैं । ऐसे कितने ही दीन दुःखिया भारतवासी हैं, जिनकी सार संभाल कोई भूले भटके भी नहीं लेता । बहुतेरे कु समय में राजमार्गो में पड़े पड़े पांव पीट-पीटकर मर जाते हैं, परंतु उनकी बात पूछने वाला कोई नहीं मिलता । महात्मन ! यदि आत्मा से और विराट् आत्मा से प्रेम करना है तो अपने अंगों की भांति सबको अपनाना होगा । अपनी क्षुधा – निवृत्ति की भांति उन की भी चिंता करनी पड़ेगी । सच्चा परमात्मा – प्रेमी किसी से घृणा नहीं करता । वह ऊंच नीच भेद भावना को त्याग देता है । उतने ही पुरुषार्थ से दूसरों के दुख निवारण करता है, कष्ट क्लेश काटता है, जितने से वह अपने करता है । ऐसे ज्ञानी जन ही वास्तव में आत्मा – प्रेमी कहलाने के अधिकारी है ।’
वह साधु यह सुनकर महर्षि दयानंद सरस्वती से क्षमा मांगने लगा ।