- वेदारम्भ संस्कार
बच्चे का वेदारम्भ संस्कार भी भारत में प्राचीन काल में समारोह पूर्वक संपन्न कराया जाता था । इसका उद्देश्य यही होता था कि बच्चे में सूक्ष्म रूप से ऐसे संस्कार उत्पन्न हों कि वह शिक्षा या विद्या को अपने लिए बोझ न समझे , अपितु उसे अपने जीवन का श्रंगार मानकर सहज रूप में धारण करने योग्य बन जाए । संस्कारों को उत्सव के माध्यम से मनाने की भारत की इस अद्भुत परम्परा को संसार समझ नहीं पाया । यद्यपि आज बहुत से लोग ऐसे हैं जो खेल – खेल में शिक्षा देने की बात करते हैं और इसे पश्चिम के किसी तथाकथित विद्वान या विदुषी के नाम दर्ज कर देते हैं , जबकि विद्या को खेल-खेल में नहीं अपितु उत्सव या समारोह के माध्यम से बच्चे के मन मस्तिष्क में संस्कार के रूप में अंकित करने की भारत की परम्परा खेल – खेल में शिक्षा की परम्परा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
गुरुकुल में विद्याभ्यास करते समय शिष्य का गुरु के साथ और गुरु का शिष्य के साथ व्यवहार माता-पिता का अपनी सन्तान के साथ होता है, वैसा ही व्यवहार आचार्य या गुरु को अपने शिष्य के साथ करना चाहिये। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्र सदृश होता है। यदि आवश्यक हो तो गुरु शिष्य को दण्डित भी करे, पर विना दुर्भाव और पूर्वाग्रह के। महर्षि का यह निर्देश केवल आचार्य के लिये नहीं है, वे माता-पिता से भी ऐसा करने को कहते हैं। जो माता-पिता या आचार्य अपनी सन्तान या शिष्य से केवल लाड़ करते हैं, वे मानो विष पिलाकर उनके जीवन को नष्ट कर रहे हैं। और जो अपराध करने पर दण्डित करते हैं, वे मानों उन्हें गुणरूपी अमृत का पान करा रहे हैं। कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं, जब सन्तान या शिष्य को कुमार्ग से हटाने के लिये दण्ड का आश्रय लेना पड़ता है, परन्तु दण्ड, दण्ड के उद्देश्य से नहीं दिया जाना चाहिये। गुरुजन हितैषी होने के कारण विना क्रोध के शिष्य की भर्त्सना और विना असूया के निन्दा करते हैं।
अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य-सूक्त में यह प्रतिपादित किया गया है कि शिष्य को अपनाता हुआ गुरु उसे अपने गर्भ में स्थित कर लेता है। अपने गर्भ में स्थापित करने का तात्पर्य यह है कि गुरु शिष्य को अपने परिवार का अङ्ग मान लेता है और उससे भी बढ़कर हृदय में स्थान सुरक्षित कर देता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार माता-पिता का सम्बन्ध अविच्छेद्य है, उसी प्रकार गुरु का भी। पुत्र की तरह शिष्य की कोई भी चर्या गुरु के लिये फिर छिपी नहीं रहती। शिष्य की सभी समस्यायें उपनीत हो जाने पर गुरु की हो जाती हैं। इसलिये गुरु शिष्य सम्बन्ध की यह अपेक्षा है कि शिष्य गुरु से छल-कपट न करे और गुरु जितना भी और जो भी वह जानता है, विना किसी दुराव के शिष्य को सिखा दे। इसी तथ्य को ज्ञापित करने के लिये मन्त्र में आचार्य को शिष्य को अपने गर्भ में स्थित करने वाला बताया है और इसी कारण वैदिक शिक्षा-पद्धति शुल्करहित थी, क्योंकि पुत्र की तरह शिष्य का सम्पूर्ण दायित्व गुरु का होता था।
वेदारम्भ संस्कार में केवल बालक ही एक आवश्यक अंग नहीं है , अपितु माता-पिता और अध्यापक भी इस संस्कार के महत्वपूर्ण अंग हैं । क्योंकि उनके उचित मार्गदर्शन के बिना इस संस्कार का संपन्न होना असंभव है । यही कारण रहा कि प्राचीन काल में भारत में विद्यारम्भ संस्कार के लिए सुयोग्य , चरित्रवान , विद्वान , संयमी , तपस्वी अध्यापक या गुरु की खोज की जाती थी । क्योंकि जब गुरु अवगुणों से रहित होगा तभी वह गुणी शिष्यों का निर्माण कर सकेगा । एक अच्छे समारोह के माध्यम से गुरु को भी समाज के सामने अपने आपको उत्तम सिद्ध करने का अवसर मिलता था । वह समाज को यह विश्वास दिलाता था कि इस बच्चे को वह योग्य से योग्य बनाकर संसार को देगा ।
गुरु के इस संकल्प की पूर्ति तभी संभव हो पाती है जब माता-पिता भी अपने बच्चे को वैसी ही प्रेरणा और शिक्षा देने वाले हों , जैसी उसका गुरु उसे दे रहा है।
- समावर्तन संस्कार
समावर्तन संस्कार विद्याध्ययन के उपरांत ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचारिणी के गुरु के आश्रम से अपने माता – पिता के घर लौटने का संस्कार है । एक प्रकार से यह संस्कार नव सृजन की तैयारी के प्रतीक के रूप में लिया जाना चाहिए । क्योंकि इसके पश्चात ही नवयुवक और नवयुवती अथवा ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी विवाह संस्कार के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं । इस प्रकार यह संस्कार एक नए सृजन के लिए या समाज की शुद्ध संरचना के लिए किया जाता है।
24 वर्ष के वसु ब्रह्मचारी अथवा 36 वर्ष के रुद्र ब्रह्मचारी या 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी सांगोपांग वेदविद्या, उत्तम शिक्षा, और पदार्थ विज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता था । इस अवसर पर गुरुकुल का आचार्य उसे उपदेश देता था कि जहां तू जा रहा है वहां जाकर अर्थात अपने माता-पिता के घर रहते हुए समाज में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाना और समाज को सही दिशा देने के कार्य में लगे रहना । आचार्य उसे उपदेश देता था कि तू सत्य को कभी न छोड़ना, धर्म का आचरण सदैव करते रहना, स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करना इत्यादि।
यहाँ से ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी का दूसरा जन्म होता था । इसी समय उसे द्विज की उपाधि दी जाती थी । अब उसको माता-पिता के द्वारा मिले जन्म के क्षुद्र स्वार्थ सब समाप्त हो चुके हैं । अब वह दूसरा जन्म लेकर आचार्य के गुरुकुल से अर्थात गर्भ से बाहर आकर संसार के उपकार के लिए अपने आप को समर्पित करना चाहता है । किसी भी ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी के जीवन में यह बहुत महत्वपूर्ण घटना होती है , क्योंकि यहीं से उसका जीवन सार्थकता का परिचय देते हुए संसार के लिए उपयोगी सिद्ध होने को प्रस्तुत होता है।
इस महत्वपूर्ण घटना को भी चित्त पर बड़ी महत्ता के साथ स्थापित करने के लिए समारोह पूर्वक यह संस्कार आयोजित होता था।
समावर्तनी के भीतर सागर के समान गम्भीरता , ब्रह्म-सिद्ध, तप-सिद्ध, महा-तपस्वी, वेद पठन-सिद्ध, शुभ गुण-कर्म-स्वभाव से प्रकाशमान, नव्य-नव्य, परिवीत अर्थात् ज्ञान ओढ़ लिया है जिसने और सुमनस अर्थात सुंदर हो मन जिसका जैसे दिव्य गुणों का होना आवश्यक माना जाता था। निश्चय ही ऐसे दिव्य गुण युक्त पुरुष या नारी से किसी भी प्रकार के ऐसे किसी कार्य के करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती जिससे संसार का या प्राणियों का अहित होता है । ऐसे लोग हर क्षण मर्यादित और धर्मानुकूल आचरण का ही संपादन करते हैं । जिससे लोक व्यवस्था बनी रहे और किसी के भी अधिकारों का अतिक्रमण करने का किसी को साहस न हो । इन दिव्य गुणों से भारत अपने समाज का निर्माण करता था। यह दिव्य गुण चाहे आज कितनी ही संख्या में कम क्यों न हो गए हैं परंतु इन सबके उपरांत भी भारत का समाज अन्य देशों के समाजों से उत्कृष्ट ही है । यही वह गुण हैं जो हिंदुत्व के स्वर बनकर हमको बांधते हैं।
प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को इंद्रियनिग्रह, दान, दया और मानवकल्याण की शिक्षा देकर उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान करते थे। वे कहते थे कि – उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधयति ….। अर्थात उठो, जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक निरंतर संघर्ष करते रहो। जीवन एक छुरे की धार है जैसे छुरे की धार पर बहुत सावधानी के साथ आगे बढ़ा जाता है वैसे ही इस जीवन में निरंतर सावधानीपूर्वक उन्नति के पथ पर चलते रहो।
अथर्ववेद 11/7/26 में कहा गया है कि-ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शाक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है।
इस समावर्तन-संस्कार के संबध में कथा प्रचलित है- एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभो ! हमें उपदेश दीजिए। प्रजापति ने एक ही अक्षर कह दिया ‘ द ‘। इस पर देवताओं ने कहा- हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोगों की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग आत्मिक आनन्द से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें ‘द ‘ से दमन अर्थात इंद्रियसयंम का उपदेश कर रहे है। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी ‘द’ अक्षर दिया गया तो उन्होंने कहा-हमें ‘द’ से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए।
असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में ‘ द’ अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा-हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्च्य ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें ‘द ‘ से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा-ठीक है, तुम समझ गए। निश्च्य ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को सीखकर अपनाना उन्नति का मार्ग होगा।
समावर्तन संस्कार अथवा दीक्षांत समारोह के इसी प्रकार के अन्य अनेकों उदाहरण हैं । जिनसे गुरु के द्वारा शिष्य को दीक्षांत समारोह के अवसर पर दिए गए उत्कृष्टतम ज्ञान का पता चलता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य