वेदों में राष्ट्रवाद*
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मा नः स्तेन ईशतः |
(यजुर्वेद १/१)
भ्रष्ट व चोर लोग हम पर शासन न करें |
वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम |
(अथर्व० १२.१.६२)
हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों ।
यतेमहि स्वराज्ये ।
(ऋ० ५.६६.६)
हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें ।
धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम |
(यजु० २९.३९)
हम धनुष अर्थात् युद्ध-सामग्री से सब दिशाओं पर विजय प्राप्त करें ।
सासह्याम पृतन्यतः ।
(ऋ० १.८.४)
हमला करने वाले शत्रु को हम पीछे हटा देवें ।
माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ।
(अथर्व० १२.१.१२)
भूमि मेरी माता है और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूंँ ।
उप सर्प मातरं भूमिमेताम् ।
(ऋग्वेद : १०.१८.१०)
हे मनुष्य ! तू इस मातृभूमि की सेवा कर ।
नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै ।
(यजुर्वेद ९.२२)
मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो, हमारा बार-बार नमस्कार हो ।
अथर्ववेद का १२वां सम्पूर्ण काण्ड ही राष्ट्रीय कर्तव्यों का द्योतक है |
ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम् ।
ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते ।।
(अथर्ववेद १२.१.५६)
हे मातृभूमि ! जो तेरे ग्राम हैं, जो जंगल हैं, जो सभा – समिति (कौन्सिल, पार्लियामेन्ट आदि) अथवा संग्राम-स्थल हैं, हम उन में से किसी भी स्थान पर क्यों न हो सदा तेरे विषय में उत्तम ही विचार तथा भाषण आदि करें | तेरे हित का विचार हमारे मन में सदा बना रहे ।
उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता: ।
दीर्घं न आयु: प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम ॥
(अथर्व० १२.१.६२)
हे मातृभूमि ! हम सर्व रोग-रहित और स्वस्थ होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें । तेरे अन्दर उत्पन्न और तैयार किए हुए स्वदेशी पदार्थ ही हमारे उपयोग में सदा आते रहें । हमारी आयु दीर्घ हो । हम ज्ञान-सम्पन्न होकर आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों तक की बलि को लाने वाले हों ।
इससे उत्तम राष्ट्रीय धर्म क्या हो सकता है ? राष्ट्र के ऐश्वर्य को भी खूब बढ़ाने का यत्न करने के लिए भी वेद उपदेश देता है ।
जहाँ ईश्वर से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक कल्याण के लिए प्रार्थना की जाती है, वहाँ प्रत्येक देशभक्त को यह प्रार्थना भी करनी चाहिए,
स नो रास्व राष्ट्रमिन्द्रजूतं तस्य ते रातौ यशस: स्याम ।
(अथर्ववेद : ६.३९.२)
हे ईश्वर ! आप हमें परम ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र को प्रदान करें । हम आपके शुभ-दान में सदा यशस्वी होकर रहें ।
राष्ट्र की उन्नति इन गुणों का धारण ,
सत्यं बृहद्दतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति ।
(अथर्ववेद : १२.१.१)
सत्य, विस्तृत अथवा विशाल ज्ञान, क्षात्र-बल, ब्रह्मचर्य आदि व्रत, सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना, धन और अन्न, स्वार्थ-त्याग, सेवा और परोपकार की भावना ये गुण हैं, जो पृथ्वी को धारण करने वाले हैं । इन सब भावनाओं को एक शब्द 'धर्म' के द्वारा धारित की जाती हैं ।
........ संकलन |