( भीष्म ने युधिष्ठिर के लिए प्राचीन काल के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों और संवादों को बड़ी सहज और सरल भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य केवल एक ही था कि उनका प्रिय धर्मराज युधिष्ठिर प्रजा पर शासन करते हुए धर्म, न्याय और नीति के अनुसार आचरण करे। यद्यपि वह जानते थे कि धर्मराज जो कुछ भी करेगा, उचित ही करेगा, परंतु इसके उपरान्त भी वे अपने प्रिय धर्मराज को ऐसी प्रत्येक बात को बता देना चाहते थे जिससे जनकल्याण हो और जनता को प्रत्येक प्रकार की उन्नति करने का सुअवसर उपलब्ध हो।
भीष्म पितामह उस समय धर्मराज युधिष्ठिर को जो कुछ भी बता रहे थे वह राष्ट्र की कल्याण की भावना से प्रेरित होकर बता रहे थे। उनके लिए धर्म सर्वोपरि था और वैदिक संस्कृति की रक्षा प्रत्येक काल में होती रहे, इसे वह अपने जाने के बाद की आने वाली पीढ़ियों के लिए भी सुनिश्चित कर देना चाहते थे। वे धर्मराज युधिष्ठिर में एक परिपक्व राजनीतिज्ञ का स्वरूप देख रहे थे। यही कारण था कि वह बहुत ही निश्छल भाव से उन्हें राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए धर्म मार्ग पर चलते रहने का अमिट संदेश दे रहे थे। – लेखक)
भीष्म से धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछ लिया कि “पितामह ! आप राजनीति धर्म और न्याय के मर्मज्ञ हो। कृपया मुझे यह बताने का कष्ट करें कि यदि कोई मनुष्य धन की तृष्णा से ग्रस्त होकर नाना प्रकार के कार्य करने पर भी धन न पा सके तो ऐसी परिस्थितियों में उसे फिर और क्या करना चाहिए , जिससे उसे संसार में रहकर सुख की प्राप्ति होती रहे।”
इस पर भीष्म पितामह ने कहा कि “राजन ! सबमें समता ( इसी को आजकल की भाषा में ‘कानून के समक्ष समानता’ कहा जाता है) का भाव रखना चाहिए। लोगों के बीच न्याय करते समय किसी प्रकार का विभेद राजा को नहीं करना चाहिए। उसकी दृष्टि में समता का भाव होना चाहिए। समभाव में जीने वाला राजा ही प्रजा के मध्य न्याय कर सकता है।
व्यर्थ के परिश्रम से बचना चाहिए। सत्य भाषण, संसार से वैराग्य और कर्म आसक्ति का अभाव – जिस मनुष्य के पास ये पांच गुण होते हैं, संसार में रहकर वही शाश्वत सुख को प्राप्त होता है। इसलिए मनुष्य को अपनी झोली में इन पांचों वस्तुओं के धन में वृद्धि करनी चाहिए । ज्ञानवृद्ध पुरुष इन्हीं पांच वस्तुओं को शांति का शाश्वत स्त्रोत बताकर इनका महिमा मंडन करते हैं।
ज्ञानवृद्ध लोगों के पास बैठकर उनसे उनके अनुभवों को प्राप्त करते रहना चाहिए। उनके दीर्घकालिक अनुभव जीवन में काम आते हैं।
वत्स! संसार में जो लोग स्वर्ग स्वर्ग चिल्लाते रहते हैं उन्हें नहीं पता कि स्वर्ग क्या है ? इसी प्रकार जो लोग धर्म की बात करते रहते हैं, उन्हें भी नहीं पता कि धर्म क्या है ? वास्तव में धर्म इन पांचों वस्तुओं का ही नाम है। इन्हीं को सबसे उत्तम सुख मानना चाहिए ।”
राजन ! तुम्हें मैं इस विषय में इतिहास का एक उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहता हूं। मेरा मानना है कि इतिहास के उसे उदाहरण को सुनकर तुम्हारी शंका का समाधान निश्चय ही हो जाएगा। मंकि नामक मुनि ने भोगों से विरक्त होकर जो बातें कही थीं, वही मैं अब तुम्हें सुनाता हूं।
मंकि एक ऐसे मुनि थे जिन्होंने धन प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए। वह मुनि होकर भी धन को ही सर्वोपरि मानकर चलते थे। उनका मानना था कि शायद धन प्राप्ति से ही धर्म प्राप्ति हो जाएगी। यही कारण था कि वह धन प्राप्ति की बार-बार चेष्टा करते थे पर उनका बार-बार का प्रयत्न व्यर्थ ही चला जाता था। मनोवांछित लाभ उन्हें प्राप्त नहीं हो रहा था। जितना ही अधिक वे धन कमाने की योजना पर काम करते, उतनी ही अधिक उन्हें निराशा हाथ लगती । अंत में जब उनके पास काम करने के लिए बहुत थोड़ा धन रह गया , तब उन्होंने अपने उस बचे हुए धन से दो नए बछड़े खरीद लिए।
एक दिन की बात है कि मुनिवर अपने उन दोनों बछड़ों को परस्पर जोड़कर उन्हें हल में जोतने की शिक्षा देने के लिए जंगल की ओर ले जा रहे थे। जब वे दोनों बछड़े गांव से बाहर निकले तो रास्ते में एक ऊंट को बैठा देखकर वे दोनों बिदक गये और अचानक ऊंट की ओर को ही दौड़ने लगे। वे उस ऊंट के पास पहुंच गए और उसी से छेड़खानी करने लगे। उन बछड़ों की ऐसी हरकत को देखकर वह ऊंट थोड़ी देर तो शांत रहा, पर जब वे उसकी गर्दन के पास जाकर उछल कूद करने लगे तो ऊंट न केवल सावधान हो गया अपितु वह क्रुद्ध होकर खड़ा भी हो गया।
अब ऊंट उन दोनों बछड़ों को लटका कर बड़ी तेजी से दौड़ने लगा। इसे देखकर निकट खड़े मुनि की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। उन्हें लगने लगा कि ऊंट उनके दोनों बछड़ों को मारकर ही दम लेगा।
मुनि मंकि कहने लगे कि “ऊंट ने उनके बछड़ों का बलपूर्वक अपहरण कर लिया है । इस घटना से मुनि का विवेक जागृत हो गया। अब वह सचमुच में मुनि भाव से प्रेरित हो उठे थे। इसलिए कहने लगे कि मनुष्य चाहे कितना ही चतुर क्यों न हो, जो उसके भाग्य में नहीं है, उस धन को वह पर्याप्त प्रयास करने के उपरान्त भी प्राप्त नहीं कर सकता । मैंने जीवन भर धन प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार की चेष्टाएं की। पर मैं कभी धन प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका। कई प्रकार के विघ्न और कई प्रकार की बाधाएं आती रहीं और धन कमाने का मेरा हर प्रयास विफल होता रहा। मेरा पुरुषार्थ व्यर्थ गया। इसके उपरांत भी मैंने धन कमाने की इच्छा को त्यागा नहीं और मैं धन कमाने के प्रयासों में लगा रहा। मैंने इन बछड़ों को प्राप्त करके सोचा था कि शायद अब मेरा धन कमाने का सपना साकार होने ही वाला है , पर आज मैं देख रहा हूं कि इन बछड़ों से बिछुड़ने का भी शायद समय आ गया है। आज मैं समझ रहा हूं कि धन भी भाग्य से ही मिलता है। यदि भाग्य में धन नहीं है तो पर्याप्त प्रयासों के उपरांत भी उसे आप प्राप्त नहीं कर सकते।
मुनि कह रहे थे कि यह ऊंट मेरे बछड़ों को लिए जा रहा है । ऊंट के गले में मेरे दोनों बछड़े दो मणियों के समान लटक रहे हैं । आज मेरी समझ में आ रहा है कि भाग्य के सामने हठपूर्वक किया गया पुरुषार्थ भी व्यर्थ ही जाता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह कहानी मेरी अभी हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक “महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियां” से ली गई है . मेरी यह पुस्तक ‘जाह्नवी प्रकाशन’ ए 71 विवेक विहार फेस टू दिल्ली 110095 से प्रकाशित हुई है. जिसका मूल्य ₹400 है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत