संसार में जीना है तो अनासक्त भाव से जीओ
संसार में जीना है तो अनासक्त भाव से जीओ :-
अनासक्त होकर जीओ,
मत मोह – माया पाल।
हंस उड़ेगा एक दिन,
सूना होगा ताल ॥2472॥
आनंद का स्रोत कौन है –
आकर्षण संसार में,
किन्तु नही आनंद।
आनन्द का स्रोत तो,
केवल सच्चिदानन्द॥2471॥
आत्मा कब धन्य होती है –
अन्तर्दृष्टि से निरख,
निजमनु आकाहाल।
पुण्य कमा हरि भजन कर,
आत्मा होय निहाल॥2473॥
राही तू आनन्द लोक का :-
क्या खोया क्या पा चला,
इस पर करो विचार ।
राही तू आनन्द लोक का,
सपने का संसार॥2474॥
कैसे मिले वे सचिदानंद –
तार जुड़े हरि ओ३म से ,
अतुलित हो आनन्द ।
निर्बिज समाधि में मिले,
भक्त को सचिदानन्द॥2475॥
पाप-वृत्ति को नष्ट कर देती है,प्रभु की रसानुभूति :-
रवि: किरणो को देखकै,
ज्यों अरू भग जाय।
रसानुभूति ओ३म की,
त्यों ही पाप तिराय॥2476॥
परमपिता परमात्मा के स्वरूप और रूप में अंतर :-
सत् चित और आनन्द तो,
परमपिता का स्वरूप।
दृश्यमान ये विश्व ही,
वैश्वानर का रूप॥2477॥
रोग – अपमान, उपेक्षा का नाम ही तो बुढ़ापा है:-
तन में बुढ़ापा आ गया,
घेरे रोग अपमान।
तितिक्षा की है परीक्षा,
मत होवै हैरान ॥2478॥
परमपिता परमात्मा की सायुज्या कैसे प्राप्त हो –
चित में चिन्तन चले,
प्यारे प्रभु का नाम ।
क्रिया करो शरीर से,
हो करके निष्काम॥2479॥
विद्या, विभूति, वैभव ये तेरे नहीं अपितु प्रभु-कृपा प्रसाद है:-
विद्या विभूति वैभव तो,
प्रभु-कृपा प्रसाद।
ये तेरा कौशल नहीं,
क्यों करता उन्माद॥2480॥
क्रमशः